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शनिवार, अप्रैल 23, 2011

धनप्राप्ति में बाधक हैं मकड़ी के जाले

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धनप्राप्ति में बाधक हैं मकड़ी के जाले

मकड़ी के जाले ज्यादातर घर, ओफिस, दुकान इत्यादि जगहो पर पाये जाते हैं, विद्वानो के मतानुशार वास्तुशास्त्र के अनुशार मकड़ी के जाले अशुभ होते हैं। मकड़ी के जाले से भवन में निवास कर्ता की आर्थिक उन्नति बाधित होती हैं, आर्थिक अभाव होने लगता हैं, स्वास्थ्य से संबंधी परेशानियां होने की संभावनाएं बढजाती हैं।

मकड़ी के जाले अशुभ क्यों माने जाते हैं?
वास्तु के अनुसार जिस भवन में मकड़ी के जाले होते हैं, ठीक नियमित साफ-सफाई नहीं होती, उस भवन में निवास या व्यवसाय करने वालो को धन की कमी बनी रहती हैं। मकड़ी के जाले की अशुभता के कारण व्यक्ति चाहे जितना धन कमा लें लेकिन बचत कर पाता, धन की कमी बनी रहती हैं। आय से व्यय अधिक होने लगते हैं। अनावश्यक खर्च बढजाते हैं, घर में रोग-बिमारी क्लेश इत्यादि घर कर जाते हैं शीघ्र समाप्त नहीं होते।

मकड़ी के जाले को दरिद्रता का प्रतीक माना जाता हैं। मकड़ी के जाले से घर की बरकत प्रभावित होती हैं। मकड़ी के जाले होते हैं वहां अलक्ष्मी निवास करती हैं धन की देवी महालक्ष्मी वहां निवास नहीं करती हैं। जिस घर में या भवन में नियमित साफ-सफाई होती रहती हैं उस घर में देवी लक्ष्मी की कृपा बरसती हैं, ऎसा शास्त्रोक्त विधान हैं।

अपने घर, दुकान, ओफिस इत्यादी में साफ-सफाई के उपरांत यदि मकड़ी के जाले लटकते हैं, तो जाले को देखते ही उसे उन्हें तुरंत निकाल दें। मकड़ी के जाले निकलते ही धन का आगमन होगा और अनावस्यक खर्च कम होंगे और धन का संचय होने लगेगा। विद्वानो के मतानुशार मकड़ी के जाले स्वास्थ्य के लिए भी नुक्शानकारी होते हैं। इसी लिए मकड़ी के जाले भवन में नहीं रहने देना चाहिए।

मानाजाता हैं मकड़ी के जाले बुरी शक्तियों को अपनी और आकर्षित करते हैं, घर में सकारात्मक उर्जा खत्म होती हैं और नकारात्मक उर्जा का प्रभाव बढने लगता हैं। जिससे घर के सदस्यों के स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ने लगता हैं। इस लिये भवन से मकड़ी के जाले दिखते ही हटा देने चाहिए।

नोट: हर शनिवार, अमावस्या को घरकी साफ-सफाई करना अधिक लाभप्रद होता हैं। इस दिन घर से पूराना कबाड़-भंगार(अनावश्यक चिज-वस्तु) इत्यादी भी निकाल दें।

शुक्रवार, अप्रैल 22, 2011

धन प्राप्ति हेतु अष्टलक्ष्मी स्तोत्र

धन प्राप्ति हेतु अष्टलक्ष्मी स्तोत्र, धनप्राप्ति, धनलाभ, लक्ष्मी प्राप्ती, अष्टलक्ष्मी स्तोत्र के पाठ से धन संबंधित परेशानीयां दूर होती हैं।अष्टलक्ष्मी यंत्र, अष्ट लक्ष्मि यन्त्र, अष्टलक्ष्मी कवच, कबच, Asht Lakshmee, Aasht lakshmi yantra, asht lakshmmi yantra, Dhan prapti, Dhan labha, lakshmi prapti, Asht lakshmi, Arthik Labh, Remedy For Economy Benefit, Remedy For Fainancial Improve, Remady for wealth, Remedy for Sthir lakshmi, money, Money received, Dhnalabh, Lakshmi attains, Ashtlekshami, economic benefits, measures, Totkae, Economically benefits, Money receipt, Dhnalabh, Lakshmi attains, Ashtlekshami, Financially profit Solution, Totkae, धन प्राप्ति, धनलाभ, लक्ष्मी प्राप्ती, अष्टलक्ष्मी, आर्थिक लाभ, उपाय, टोटके, ધન પ્રાપ્તિ, ધનલાભ, લક્ષ્મી પ્રાપ્તી, અષ્ટલક્ષ્મી, આર્થિક લાભ, ಧನ ಪ್ರಾಪ್ತಿ, ಧನಲಾಭ, ಲಕ್ಷ್ಮೀ ಪ್ರಾಪ್ತೀ, ಅಷ್ಟಲಕ್ಷ್ಮೀ, ಆರ್ಥಿಕ ಲಾಭ, தந ப்ராப்தி, தநலாப, லக்ஷ்மீ ப்ராப்தீ, அஷ்டலக்ஷ்மீ, ஆர்திக லாப, ధన ప్రాప్తి, ధనలాభ, లక్ష్మీ ప్రాప్తీ, అష్టలక్ష్మీ, ఆర్థిక లాభ, ധന പ്രാപ്തി, ധനലാഭ, ലക്ഷ്മീ പ്രാപ്തീ, അഷ്ടലക്ഷ്മീ, ആര്ഥിക ലാഭ, ਧਨ ਪ੍ਰਾਪ੍ਤਿ, ਧਨਲਾਭ, ਲਕ੍ਸ਼੍ਮੀ ਪ੍ਰਾਪ੍ਤੀ, ਅਸ਼੍ਟਲਕ੍ਸ਼੍ਮੀ, ਆਰ੍ਥਿਕ ਲਾਭ, ধন প্রাপ্তি, ধনলাভ, লক্ষ্মী প্রাপ্তী, অষ্টলক্ষ্মী, আর্থিক লাভ, ଧନ ପ୍ରାପ୍ତି, ଧନଲାଭ, ଲକ୍ଷ୍ମୀ ପ୍ରାପ୍ତୀ, ଅଷ୍ଟଲକ୍ଷ୍ମୀ, ଆର୍ଥିକ ଲାଭ,


हिंदू देवी-देवताओं में श्री लक्ष्मीजी को धन की देवी माना जाता हैं। इस लिये जिन लोगो पर देवी लक्ष्मी की कृपा हो जाती हैं, उन्हें जीवन में कभी किसी तरह के अभावो या कमीयों का सामना नहीं करना पड़ता। व्यक्ति का जीवन सुख-समृद्धि और ऐश्वर्य से भरा होता हैं।
विद्वानो के मतानुशार शास्त्रों में लक्ष्मीजी के आठ रूपो का उल्लेख मिलता हैं।
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अष्टलक्ष्मी यंत्र
मंत्र सिद्ध अष्ट लक्ष्मी यंत्र को घर, दुकान, ओफिस आदि में स्थापित करने से आर्थिक स्थिती में सुधार होने के साथ मां लक्ष्मी के अष्टरुपो का अशिर्वाद प्राप्त होता हैं।
मूल्य:550 से 8200
इस लिये जिन लोगो पर अष्ट लक्ष्मी की कृपा हो जाती है।

उनका जीवन सभी प्रकार के सुख-समृद्धि-ऎश्चर्य एवं संपन्नता से युक्त रहता हैं। ऎसा शास्त्रोक्त विधान हैं, इस में लेस मात्र संशय नहीं हैं।

अष्टलक्ष्मी स्तोत्र के नियमीत पाठ से लक्ष्मी की कृपा बनी रहती हैं।

जिस्से मां लक्ष्मी के अष्ट रुप
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अष्ट लक्ष्मी कवच
मंत्र सिद्ध अष्ट लक्ष्मी कवच को धारण करने से व्यक्ति पर सदा मां महा लक्ष्मी की कृपा एवं आशीर्वाद बना रहता हैं। जिस्से मां लक्ष्मी के अष्टरुप का अशीर्वाद प्राप्त होता हैं।
मूल्य मात्र: Rs-1050
(१)-आदि लक्ष्मी,
(२)-धान्य लक्ष्मी,
(३)-धैरीय लक्ष्मी,
(४)-गज लक्ष्मी,
(५)-संतान लक्ष्मी,
(६)-विजय लक्ष्मी,
(७)-विद्या लक्ष्मी और
(८)-धन लक्ष्मी इन सभी रुपो का स्वतः अशीर्वाद प्राप्त होता हैं।

अष्टलक्ष्मी की विशेष कृपा प्राप्ति हेतु अष्ट लक्ष्मी यंत्र को संपूर्ण प्राण-प्रतिष्ठित पूर्ण चैतन्य युक्त करवा कर घर में स्थापीत करना विशेष फलदायी बताया गया है।

किसी जानकार विद्वान से शुभ मुहुर्त में अष्ट लक्ष्मी कवच बनवा कर कवच को गले धारण करने से भी विशेष लाभ प्राप्त होता हैं।

>> अष्टलक्ष्मी स्तोत्र इस लिंक पर उपलब्ध हैं।
>> http://gurutvakaryalay.blogspot.com/2010/11/blog-post_7604.html

गुरुवार, अप्रैल 21, 2011

शिवस्तोत्र से रोग, कष्ट-दरिद्रता का निवारण

दारीद्र्यदहन शिबस्त्रोत का पाठ रोग, कष्ट-दरिद्रता का निवारण करता हैं।, Daridryrhan Siva stotr For disease, suffering - poverty Ending, Daridryrhan Siva stotr For disease, suffering - poverty prevention. Remedy for disease, suffering - poverty, Remady for disease, suffering - poverty ,


 दारिद्र्यदहन शिवस्तोत्र के पाठ से रोग, कष्ट-दरिद्रता का निवारण

यदि किसी व्यक्ति को जीवन में किसी भी प्रकार के दुःख, कष्ट, रोग आदि से परेशान हो परेशानीया पीछा नहीं छोड रही हों, उनके लिये दारिद्र्यदहन शिवस्तोत्र का पाठ रामबाण हैं।

विद्वानो के मतानुशार जिन लोगो को जीवन में अथक परिश्राम एवं पूर्ण मेहनेत के उपरांत सफलता प्राप्त नहीं हो रही हों उन्हें दारिद्र्यदहन शिवस्तोत्र का पाठ पूर्ण श्रद्धा एवं विश्वास से नियमित करना चाहिये।

क्योकी एसा शास्रोक्त वचन हैं, की जो व्यक्ति श्रद्धा भाव से त्रिकाल अर्थात सुबह, संध्या एवं रात्री के समय दारिद्र्य दहन शिवस्तोत्रं का पाठ करता उनके सभी दुख, कष्ट सर्व रोगादिका शीघ्र निवारण हो जाता हैं और भगवान भोलेभंडारी की कृपा से उसे, सुख, संपत्ति एवं उत्तम संतान लाभ प्राप्त होता हैं। इसमें लेश मात्र भी संदेह नहीं हैं।



गणेश चतुर्थी व्रत (विनायकी चतुर्थी) 21-अप्रैल-2011

विनायकी चतुर्थी 21- April- 2011 विक्रम संवत 2068



गणेश चतुर्थी व्रत (विनायकी चतुर्थी) 21-अप्रैल-2011

गणेश चतुर्थी व्रत के बारें में अधिक जानकारे हेतु यहां क्लिक करें

>> http://gurutvakaryalay.blogspot.com/2010/02/blog-post_1765.html  

बुधवार, अप्रैल 20, 2011

मानसिक तनाव दूर करने हेतु वास्तु उपाय भाग:2

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मानसिक तनाव दूर करने हेतु वास्तु उपाय भाग:2

* यदि अत्याधिक मानसिक तनाव से ग्रस्त हो, तो चांदी के गिलास में पानी पीये। जिससे तनाव इत्यादि नियंत्रण में रहेगा।
* बियर, शराब इत्यादि भवन या निवास्थान पर नहीं पीने चाहिये। यदि पीते हैं तो बैड रुम में कदापी न पीये। अन्याथा क्लेश व रोग में वृद्धि हो सकती हैं।
* घर की दिवारो पर बहते झरने, तालब इत्यादि के सौम्य चित्र लगाए। शेर, बाध, हथियार इत्यादि नकारात्मक उर्जा उत्पन्न करने वाले चित्रो को लगाने से परहेज करें।
* नुकीले या धार-दार हथियार, पौधे इत्यादि रखने से बचे इस्से अत्याधिक क्रोध व तनाव होता हैं।
* रसोई घर में गैस के निकट वो्स-बेजिंग या अन्य पानी का स्त्रोत न रखे। अन्यथा घर में क्लेश व बिमारिया लगी रहेगी।
* घर की दिवारो पर हल्के रंगो का प्रयोग करें। भडकिले रंगो के इस्तेमाल से मानसिक अशांति बनी रहती हैं।
* घर की दिवारो और छत पर मकडिके जाले दिखे तो तुरंत सफाई करदे। अन्यथा * मानसिक तनाव, रोग, ऋण इत्यादि की वृद्धि होगी।
* यदि नया भवन बना रहे हैं, तो रसोई घर में काले पत्थरो के प्रयोग से बचे। यदि पहले से लगवाये हैं, तो सुविधा देख कर बदलवा लेना लाभप्रद रहेगा।

शास्त्रोक्त विधान के अनुशार इन छोटे-छोटे लगने वाले उपाय अत्याधिक प्रभावशाली होते हैं। छोटी लगने वाली बाते समय के साथ साथ बडी होने लगती हैं। अतः उक्त कारणो के उत्पन्न होने से पूर्व उसे रोकने का प्रयास लाभप्रद होता हैं।

मानसिक तनाव दूर करने हेतु निवास स्थान या व्यवसायीक स्थान का वातावरण सुगंधित रहे इस लिये हल्की सुगंघ वाली धूप-अगरबत्ती, या हलके सुगंघ के एर फ्रेसनर इत्यादिका नियमित प्रयोग करे। उग्र महक या भडकीली महेक वाली सुगंधित सामग्री से मन अशांत व अत्याधिक उत्तेजित अवस्था में रहता हैं अतः हल्की महक वाली सामाग्री का प्रयोग करें।

>> मानसिक तनाव दूर करने हेतु वास्तु उपाय भाग:1
>> http://gurutvakaryalay.blogspot.com/2011/04/1.html

मंगलवार, अप्रैल 19, 2011

श्रीहनुमन्नमस्कार

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॥श्रीहनुमन्नमस्कारः ॥

गोष्पदी- कृत- वारीशं मशकी- कृत- राक्षसम् ।
रामायण- महामाला- रत्नं वन्देऽनिलात्मजम् ॥१॥

अञ्जना- नन्दनं- वीरं जानकी- शोक- नाशनम् ।
कपीशमक्ष- हन्तारं वन्दे लङ्का- भयङ्करम् ॥२॥

महा- व्याकरणाम्भोधि- मन्थ- मानस- मन्दरम् ।
कवयन्तं राम- कीर्त्या हनुमन्तमुपास्महे ॥३॥

उल्लङ्घ्य सिन्धोः सलिलं सलीलं
यः शोक- वह्निं जनकात्मजायाः ।
आदाय तेनैव ददाह लङ्कां
नमामि तं प्राञ्जलिराञ्जनेयम् ॥४॥

मनोजवं मारुत- तुल्य- वेगं
जितेन्द्रियं बुद्धिमतां वरिष्ठम् ।
वातात्मजं वानर- यूथ- मुख्यं
श्रीराम- दूतं शिरसा नमामि ॥५॥

आञ्जनेयमतिपाटलाननं
काञ्चनाद्रि- कमनीय- विग्रहम् ।
पारिजात- तरु- मृल- वासिनं
भावयामि पवमान- नन्दनम् ॥६॥

यत्र यत्र रघुनाथ- कीर्तनं
तत्र तत्र कृत- मस्तकाञ्जलिम् ।
बाष्प- वारि- परिपूर्ण- लोचनं
मारुतिर्नमत राक्षसान्तकम् ॥७॥

आञ्जनेय त्रिकाल वंदनं

aanjaney trikal vandana

आञ्जनेय त्रिकाल वंदनं

प्रातः स्मरामि हनुमन् अनन्तवीर्यं श्री रामचन्द्र चरणाम्बुज चंचरीकम् ।
लंकापुरीदहन नन्दितदेववृन्दं सर्वार्थसिद्धिसदनं प्रथितप्रभावम् ॥

माध्यम् नमामि वृजिनार्णव तारणैकाधारं शरण्य मुदितानुपम प्रभावम् ।
सीताधि सिंधु परिशोषण कर्म दक्षं वंदारु कल्पतरुं अव्ययं आञ्ज्नेयम् ॥

सायं भजामि शरणोप स्मृताखिलार्ति पुञ्ज प्रणाशन विधौ प्रथित प्रतापम् ।
अक्षांतकं सकल राक्षस वंश धूम केतुं प्रमोदित विदेह सुतं दयालुम् ॥

सोमवार, अप्रैल 18, 2011

आञ्जनेय अष्टोत्तरशत नामावलि

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 ॥ श्री आञ्जनेय अष्टोत्तरशत नामावलिः ॥

 
ॐ मनोजवं मारुततुल्य वेगं,जितेन्द्रियं बुद्धिमतां वरिष्ठम् ।
वातात्मजं वानरयूध मुख्यं,श्री रामदूतं शिरसा नमामि ॥

 
ॐ आञ्जनेयाय नमः ।
ॐ महावीराय नमः ।
ॐ हनूमते नमः ।
ॐ मारुतात्मजाय नमः ।
ॐ तत्वज्ञानप्रदाय नमः ।
ॐ सीतादेविमुद्राप्रदायकाय नमः ।
ॐ अशोकवनकाच्छेत्रे नमः ।
ॐ सर्वमायाविभंजनाय नमः ।
ॐ सर्वबन्धविमोक्त्रे नमः ।
ॐ रक्षोविध्वंसकारकाय नमः ।
ॐ परविद्या परिहाराय नमः ।
ॐ पर शौर्य विनाशकाय नमः ।
ॐ परमन्त्र निराकर्त्रे नमः ।
ॐ परयन्त्र प्रभेदकाय नमः ।
ॐ सर्वग्रह विनाशिने नमः ।
ॐ भीमसेन सहायकृथे नमः ।
ॐ सर्वदुखः हराय नमः ।
ॐ सर्वलोकचारिणे नमः ।
ॐ मनोजवाय नमः ।
ॐ पारिजात द्रुमूलस्थाय नमः ।
ॐ सर्व मन्त्र स्वरूपाय नमः ।
ॐ सर्व तन्त्र स्वरूपिणे नमः ।
ॐ सर्वयन्त्रात्मकाय नमः ।
ॐ कपीश्वराय नमः ।
ॐ महाकायाय नमः ।
ॐ सर्वरोगहराय नमः ।
ॐ प्रभवे नमः ।
ॐ बल सिद्धिकराय नमः ।
ॐ सर्वविद्या सम्पत्तिप्रदायकाय नमः ।
ॐ कपिसेनानायकाय नमः ।
ॐ भविष्यथ्चतुराननाय नमः ।
ॐ कुमार ब्रह्मचारिणे नमः ।
ॐ रत्नकुन्डलाय नमः ।
ॐ दीप्तिमते नमः ।
ॐ चन्चलद्वालसन्नद्धाय नमः ।
ॐ लम्बमानशिखोज्वलाय नमः ।
ॐ गन्धर्व विद्याय नमः ।
ॐ तत्वञाय नमः ।
ॐ महाबल पराक्रमाय नमः ।
ॐ काराग्रह विमोक्त्रे नमः ।
ॐ शृन्खला बन्धमोचकाय नमः ।
ॐ सागरोत्तारकाय नमः ।
ॐ प्राज्ञाय नमः ।
ॐ रामदूताय नमः ।
ॐ प्रतापवते नमः ।
ॐ वानराय नमः ।
ॐ केसरीसुताय नमः ।
ॐ सीताशोक निवारकाय नमः ।
ॐ अन्जनागर्भ संभूताय नमः ।
ॐ बालार्कसद्रशाननाय नमः ।
ॐ विभीषण प्रियकराय नमः ।
ॐ दशग्रीव कुलान्तकाय नमः ।
ॐ लक्ष्मणप्राणदात्रे नमः ।
ॐ वज्र कायाय नमः ।
ॐ महाद्युथये नमः ।
ॐ चिरंजीविने नमः ।
ॐ राम भक्ताय नमः ।
ॐ दैत्य कार्य विघातकाय नमः ।
ॐ अक्षहन्त्रे नमः ।
ॐ काञ्चनाभाय नमः ।
ॐ पञ्चवक्त्राय नमः ।
ॐ महा तपसे नमः ।
ॐ लन्किनी भञ्जनाय नमः ।
ॐ श्रीमते नमः ।
ॐ सिंहिका प्राण भन्जनाय नमः ।
ॐ गन्धमादन शैलस्थाय नमः ।
ॐ लंकापुर विदायकाय नमः ।
ॐ सुग्रीव सचिवाय नमः ।
ॐ धीराय नमः ।
ॐ शूराय नमः ।
ॐ दैत्यकुलान्तकाय नमः ।
ॐ सुवार्चलार्चिताय नमः ।
ॐ तेजसे नमः ।
ॐ रामचूडामणिप्रदायकाय नमः ।
ॐ कामरूपिणे नमः ।
ॐ पिन्गाळाक्षाय नमः ।
ॐ वार्धि मैनाक पूजिताय नमः ।
ॐ कबळीकृत मार्तान्ड मन्डलाय नमः ।
ॐ विजितेन्द्रियाय नमः ।
ॐ रामसुग्रीव सन्धात्रे नमः ।
ॐ महिरावण मर्धनाय नमः ।
ॐ स्फटिकाभाय नमः ।
ॐ वागधीशाय नमः ।
ॐ नवव्याकृतपण्डिताय नमः ।
ॐ चतुर्बाहवे नमः ।
ॐ दीनबन्धुराय नमः ।
ॐ मायात्मने नमः ।
ॐ भक्तवत्सलाय नमः ।
ॐ संजीवननगायार्था नमः ।
ॐ सुचये नमः ।
ॐ वाग्मिने नमः ।
ॐ दृढव्रताय नमः ।
ॐ कालनेमि प्रमथनाय नमः ।
ॐ हरिमर्कट मर्कटाय नमः ।
ॐ दान्ताय नमः ।
ॐ शान्ताय नमः ।
ॐ प्रसन्नात्मने नमः ।
ॐ शतकन्टमुदापहर्त्रे नमः ।
ॐ योगिने नमः ।
ॐ रामकथा लोलाय नमः ।
ॐ सीतान्वेशण पठिताय नमः ।
ॐ वज्रद्रनुष्टाय नमः ।
ॐ वज्रनखाय नमः ।
ॐ रुद्र वीर्य समुद्भवाय नमः ।
ॐ इन्द्रजित्प्रहितामोघब्रह्मास्त्र विनिवारकाय नमः ।
ॐ पार्थ ध्वजाग्रसंवासिने नमः ।
ॐ शरपंजरभेधकाय नमः ।
ॐ दशबाहवे नमः ।
ॐ लोकपूज्याय नमः ।
ॐ जाम्बवत्प्रीतिवर्धनाय नमः ।
ॐ सीतासमेत श्रीरामपाद सेवदुरन्धराय नमः ।
 
॥ इति श्री आञ्जनेय अष्टोत्तरशत नामावलि संपूर्णम् ॥

हनुमान बाहुक


Hanuman Bahuk Patha

हनुमान बाहुक

छप्पय
सिंधु तरन, सिय-सोच हरन, रबि बाल बरन तनु ।
भुज बिसाल, मूरति कराल कालहु को काल जनु ॥
गहन-दहन-निरदहन लंक निःसंक, बंक-भुव ।
जातुधान-बलवान मान-मद-दवन पवनसुव ॥
कह तुलसिदास सेवत सुलभ सेवक हित सन्तत निकट ।
गुन गनत, नमत, सुमिरत जपत समन सकल-संकट-विकट ॥१॥

स्वर्न-सैल-संकास कोटि-रवि तरुन तेज घन ।
उर विसाल भुज दण्ड चण्ड नख-वज्रतन ॥
पिंग नयन, भृकुटी कराल रसना दसनानन ।
कपिस केस करकस लंगूर, खल-दल-बल-भानन ॥
कह तुलसिदास बस जासु उर मारुतसुत मूरति विकट ।
संताप पाप तेहि पुरुष पहि सपनेहुँ नहिं आवत निकट ॥२॥

झूलना
पञ्चमुख-छःमुख भृगु मुख्य भट असुर सुर, सर्व सरि समर समरत्थ सूरो ।
बांकुरो बीर बिरुदैत बिरुदावली, बेद बंदी बदत पैजपूरो ॥
जासु गुनगाथ रघुनाथ कह जासुबल, बिपुल जल भरित जग जलधि झूरो ।
दुवन दल दमन को कौन तुलसीस है, पवन को पूत रजपूत रुरो ॥३॥

घनाक्षरी
भानुसों पढ़न हनुमान गए भानुमन, अनुमानि सिसु केलि कियो फेर फारसो ।
पाछिले पगनि गम गगन मगन मन, क्रम को न भ्रम कपि बालक बिहार सो ॥
कौतुक बिलोकि लोकपाल हरिहर विधि, लोचननि चकाचौंधी चित्तनि खबार सो।
बल कैंधो बीर रस धीरज कै, साहस कै, तुलसी सरीर धरे सबनि सार सो ॥४॥

भारत में पारथ के रथ केथू कपिराज, गाज्यो सुनि कुरुराज दल हल बल भो ।
कह्यो द्रोन भीषम समीर सुत महाबीर, बीर-रस-बारि-निधि जाको बल जल भो ॥
बानर सुभाय बाल केलि भूमि भानु लागि, फलँग फलाँग हूतें घाटि नभ तल भो ।
नाई-नाई-माथ जोरि-जोरि हाथ जोधा जो हैं, हनुमान देखे जगजीवन को फल भो ॥५॥

गो-पद पयोधि करि, होलिका ज्यों लाई लंक, निपट निःसंक पर पुर गल बल भो ।
द्रोन सो पहार लियो ख्याल ही उखारि कर, कंदुक ज्यों कपि खेल बेल कैसो फल भो ॥
संकट समाज असमंजस भो राम राज, काज जुग पूगनि को करतल पल भो ।
साहसी समत्थ तुलसी को नाई जा की बाँह, लोक पाल पालन को फिर थिर थल भो ॥६॥

कमठ की पीठि जाके गोडनि की गाड़ैं मानो, नाप के भाजन भरि जल निधि जल भो ।
जातुधान दावन परावन को दुर्ग भयो, महा मीन बास तिमि तोमनि को थल भो ॥
कुम्भकरन रावन पयोद नाद ईधन को, तुलसी प्रताप जाको प्रबल अनल भो ।
भीषम कहत मेरे अनुमान हनुमान, सारिखो त्रिकाल न त्रिलोक महाबल भो ॥७॥

दूत राम राय को सपूत पूत पौनको तू, अंजनी को नन्दन प्रताप भूरि भानु सो ।
सीय-सोच-समन, दुरित दोष दमन, सरन आये अवन लखन प्रिय प्राण सो ॥
दसमुख दुसह दरिद्र दरिबे को भयो, प्रकट तिलोक ओक तुलसी निधान सो ।
ज्ञान गुनवान बलवान सेवा सावधान, साहेब सुजान उर आनु हनुमान सो ॥८॥

दवन दुवन दल भुवन बिदित बल, बेद जस गावत बिबुध बंदी छोर को ।
पाप ताप तिमिर तुहिन निघटन पटु, सेवक सरोरुह सुखद भानु भोर को ॥
लोक परलोक तें बिसोक सपने न सोक, तुलसी के हिये है भरोसो एक ओर को ।
राम को दुलारो दास बामदेव को निवास। नाम कलि कामतरु केसरी किसोर को ॥९॥

महाबल सीम महा भीम महाबान इत, महाबीर बिदित बरायो रघुबीर को ।
कुलिस कठोर तनु जोर परै रोर रन, करुना कलित मन धारमिक धीर को ॥
दुर्जन को कालसो कराल पाल सज्जन को, सुमिरे हरन हार तुलसी की पीर को ।
सीय-सुख-दायक दुलारो रघुनायक को, सेवक सहायक है साहसी समीर को ॥१०॥

रचिबे को बिधि जैसे, पालिबे को हरि हर, मीच मारिबे को, ज्याईबे को सुधापान भो ।
धरिबे को धरनि, तरनि तम दलिबे को, सोखिबे कृसानु पोषिबे को हिम भानु भो ॥
खल दुःख दोषिबे को, जन परितोषिबे को, माँगिबो मलीनता को मोदक दुदान भो ।
आरत की आरति निवारिबे को तिहुँ पुर, तुलसी को साहेब हठीलो हनुमान भो ॥११॥

सेवक स्योकाई जानि जानकीस मानै कानि, सानुकूल सूलपानि नवै नाथ नाँक को ।
देवी देव दानव दयावने ह्वै जोरैं हाथ, बापुरे बराक कहा और राजा राँक को ॥
जागत सोवत बैठे बागत बिनोद मोद, ताके जो अनर्थ सो समर्थ एक आँक को ।
सब दिन रुरो परै पूरो जहाँ तहाँ ताहि, जाके है भरोसो हिये हनुमान हाँक को ॥१२॥

सानुग सगौरि सानुकूल सूलपानि ताहि, लोकपाल सकल लखन राम जानकी ।
लोक परलोक को बिसोक सो तिलोक ताहि, तुलसी तमाइ कहा काहू बीर आनकी ॥
केसरी किसोर बन्दीछोर के नेवाजे सब, कीरति बिमल कपि करुनानिधान की ।
बालक ज्यों पालि हैं कृपालु मुनि सिद्धता को, जाके हिये हुलसति हाँक हनुमान की ॥१३॥

करुनानिधान बलबुद्धि के निधान हौ, महिमा निधान गुनज्ञान के निधान हौ ।
बाम देव रुप भूप राम के सनेही, नाम, लेत देत अर्थ धर्म काम निरबान हौ ॥
आपने प्रभाव सीताराम के सुभाव सील, लोक बेद बिधि के बिदूष हनुमान हौ ।
मन की बचन की करम की तिहूँ प्रकार, तुलसी तिहारो तुम साहेब सुजान हौ ॥१४॥

मन को अगम तन सुगम किये कपीस, काज महाराज के समाज साज साजे हैं ।
देवबंदी छोर रनरोर केसरी किसोर, जुग जुग जग तेरे बिरद बिराजे हैं ।
बीर बरजोर घटि जोर तुलसी की ओर, सुनि सकुचाने साधु खल गन गाजे हैं ।
बिगरी सँवार अंजनी कुमार कीजे मोहिं, जैसे होत आये हनुमान के निवाजे हैं ॥१५॥

सवैया
जान सिरोमनि हो हनुमान सदा जन के मन बास तिहारो ।
ढ़ारो बिगारो मैं काको कहा केहि कारन खीझत हौं तो तिहारो ॥
साहेब सेवक नाते तो हातो कियो सो तहां तुलसी को न चारो ।
दोष सुनाये तैं आगेहुँ को होशियार ह्वैं हों मन तो हिय हारो ॥१६॥

तेरे थपै उथपै न महेस, थपै थिर को कपि जे उर घाले ।
तेरे निबाजे गरीब निबाज बिराजत बैरिन के उर साले ॥
संकट सोच सबै तुलसी लिये नाम फटै मकरी के से जाले ।
बूढ भये बलि मेरिहिं बार, कि हारि परे बहुतै नत पाले ॥१७॥

सिंधु तरे बड़े बीर दले खल, जारे हैं लंक से बंक मवासे ।
तैं रनि केहरि केहरि के बिदले अरि कुंजर छैल छवासे ॥
तोसो समत्थ सुसाहेब सेई सहै तुलसी दुख दोष दवा से ।
बानरबाज ! बढ़े खल खेचर, लीजत क्यों न लपेटि लवासे ॥१८॥

अच्छ विमर्दन कानन भानि दसानन आनन भा न निहारो ।
बारिदनाद अकंपन कुंभकरन से कुञ्जर केहरि वारो ॥
राम प्रताप हुतासन, कच्छ, विपच्छ, समीर समीर दुलारो ।
पाप ते साप ते ताप तिहूँ तें सदा तुलसी कह सो रखवारो ॥१९॥

घनाक्षरी
जानत जहान हनुमान को निवाज्यो जन, मन अनुमानि बलि बोल न बिसारिये ।
सेवा जोग तुलसी कबहुँ कहा चूक परी, साहेब सुभाव कपि साहिबी संभारिये ॥
अपराधी जानि कीजै सासति सहस भान्ति, मोदक मरै जो ताहि माहुर न मारिये ।
साहसी समीर के दुलारे रघुबीर जू के, बाँह पीर महाबीर बेगि ही निवारिये ॥२०॥

बालक बिलोकि, बलि बारें तें आपनो कियो, दीनबन्धु दया कीन्हीं निरुपाधि न्यारिये ।
रावरो भरोसो तुलसी के, रावरोई बल, आस रावरीयै दास रावरो विचारिये ॥
बड़ो बिकराल कलि काको न बिहाल कियो, माथे पगु बलि को निहारि सो निबारिये ।
केसरी किसोर रनरोर बरजोर बीर, बाँह पीर राहु मातु ज्यौं पछारि मारिये ॥२१॥

उथपे थपनथिर थपे उथपनहार, केसरी कुमार बल आपनो संबारिये ।
राम के गुलामनि को काम तरु रामदूत, मोसे दीन दूबरे को तकिया तिहारिये ॥
साहेब समर्थ तो सों तुलसी के माथे पर, सोऊ अपराध बिनु बीर, बाँधि मारिये ।
पोखरी बिसाल बाँहु, बलि, बारिचर पीर, मकरी ज्यों पकरि के बदन बिदारिये ॥२२॥

राम को सनेह, राम साहस लखन सिय, राम की भगति, सोच संकट निवारिये ।
मुद मरकट रोग बारिनिधि हेरि हारे, जीव जामवंत को भरोसो तेरो भारिये ॥
कूदिये कृपाल तुलसी सुप्रेम पब्बयतें, सुथल सुबेल भालू बैठि कै विचारिये ।
महाबीर बाँकुरे बराकी बाँह पीर क्यों न, लंकिनी ज्यों लात घात ही मरोरि मारिये ॥२३॥

लोक परलोकहुँ तिलोक न विलोकियत, तोसे समरथ चष चारिहूँ निहारिये ।
कर्म, काल, लोकपाल, अग जग जीवजाल, नाथ हाथ सब निज महिमा बिचारिये ॥
खास दास रावरो, निवास तेरो तासु उर, तुलसी सो, देव दुखी देखिअत भारिये ।
बात तरुमूल बाँहूसूल कपिकच्छु बेलि, उपजी सकेलि कपि केलि ही उखारिये ॥२४॥

करम कराल कंस भूमिपाल के भरोसे, बकी बक भगिनी काहू तें कहा डरैगी ।
बड़ी बिकराल बाल घातिनी न जात कहि, बाँहू बल बालक छबीले छोटे छरैगी ॥
आई है बनाई बेष आप ही बिचारि देख, पाप जाय सब को गुनी के पाले परैगी ।
पूतना पिसाचिनी ज्यौं कपि कान्ह तुलसी की, बाँह पीर महाबीर तेरे मारे मरैगी ॥२५॥

भाल की कि काल की कि रोष की त्रिदोष की है, बेदन बिषम पाप ताप छल छाँह की ।
करमन कूट की कि जन्त्र मन्त्र बूट की, पराहि जाहि पापिनी मलीन मन माँह की ॥
पैहहि सजाय, नत कहत बजाय तोहि, बाबरी न होहि बानि जानि कपि नाँह की ।
आन हनुमान की दुहाई बलवान की, सपथ महाबीर की जो रहै पीर बाँह की ॥२६॥

सिंहिका सँहारि बल सुरसा सुधारि छल, लंकिनी पछारि मारि बाटिका उजारी है ।
लंक परजारि मकरी बिदारि बार बार, जातुधान धारि धूरि धानी करि डारी है ॥
तोरि जमकातरि मंदोदरी कठोरि आनी, रावन की रानी मेघनाद महतारी है ।
भीर बाँह पीर की निपट राखी महाबीर, कौन के सकोच तुलसी के सोच भारी है ॥२७॥

तेरो बालि केलि बीर सुनि सहमत धीर, भूलत सरीर सुधि सक्र रवि राहु की ।
तेरी बाँह बसत बिसोक लोक पाल सब, तेरो नाम लेत रहैं आरति न काहु की ॥
साम दाम भेद विधि बेदहू लबेद सिधि, हाथ कपिनाथ ही के चोटी चोर साहु की ।
आलस अनख परिहास कै सिखावन है, एते दिन रही पीर तुलसी के बाहु की ॥२८॥

टूकनि को घर घर डोलत कँगाल बोलि, बाल ज्यों कृपाल नत पाल पालि पोसो है ।
कीन्ही है सँभार सार अँजनी कुमार बीर, आपनो बिसारि हैं न मेरेहू भरोसो है ॥
इतनो परेखो सब भान्ति समरथ आजु, कपिराज सांची कहौं को तिलोक तोसो है ।
सासति सहत दास कीजे पेखि परिहास, चीरी को मरन खेल बालकनि कोसो है ॥२९॥

आपने ही पाप तें त्रिपात तें कि साप तें, बढ़ी है बाँह बेदन कही न सहि जाति है ।
औषध अनेक जन्त्र मन्त्र टोटकादि किये, बादि भये देवता मनाये अधीकाति है ॥
करतार, भरतार, हरतार, कर्म काल, को है जगजाल जो न मानत इताति है ।
चेरो तेरो तुलसी तू मेरो कह्यो राम दूत, ढील तेरी बीर मोहि पीर तें पिराति है ॥३०॥

दूत राम राय को, सपूत पूत वाय को, समत्व हाथ पाय को सहाय असहाय को ।
बाँकी बिरदावली बिदित बेद गाइयत, रावन सो भट भयो मुठिका के धाय को ॥
एते बडे साहेब समर्थ को निवाजो आज, सीदत सुसेवक बचन मन काय को ।
थोरी बाँह पीर की बड़ी गलानि तुलसी को, कौन पाप कोप, लोप प्रकट प्रभाय को ॥३१॥

देवी देव दनुज मनुज मुनि सिद्ध नाग, छोटे बड़े जीव जेते चेतन अचेत हैं ।
पूतना पिसाची जातुधानी जातुधान बाग, राम दूत की रजाई माथे मानि लेत हैं ॥
घोर जन्त्र मन्त्र कूट कपट कुरोग जोग, हनुमान आन सुनि छाड़त निकेत हैं ।
क्रोध कीजे कर्म को प्रबोध कीजे तुलसी को, सोध कीजे तिनको जो दोष दुख देत हैं ॥३२॥

तेरे बल बानर जिताये रन रावन सों, तेरे घाले जातुधान भये घर घर के ।
तेरे बल राम राज किये सब सुर काज, सकल समाज साज साजे रघुबर के ॥
तेरो गुनगान सुनि गीरबान पुलकत, सजल बिलोचन बिरंचि हरिहर के ।
तुलसी के माथे पर हाथ फेरो कीस नाथ, देखिये न दास दुखी तोसो कनिगर के ॥३३॥

पालो तेरे टूक को परेहू चूक मूकिये न, कूर कौड़ी दूको हौं आपनी ओर हेरिये ।
भोरानाथ भोरे ही सरोष होत थोरे दोष, पोषि तोषि थापि आपनो न अव डेरिये ॥
अँबु तू हौं अँबु चूर, अँबु तू हौं डिंभ सो न, बूझिये बिलंब अवलंब मेरे तेरिये ।
बालक बिकल जानि पाहि प्रेम पहिचानि, तुलसी की बाँह पर लामी लूम फेरिये ॥३४॥

घेरि लियो रोगनि, कुजोगनि, कुलोगनि ज्यौं, बासर जलद घन घटा धुकि धाई है ।
बरसत बारि पीर जारिये जवासे जस, रोष बिनु दोष धूम मूल मलिनाई है ॥
करुनानिधान हनुमान महा बलवान, हेरि हँसि हाँकि फूंकि फौंजै ते उड़ाई है ।
खाये हुतो तुलसी कुरोग राढ़ राकसनि, केसरी किसोर राखे बीर बरिआई है ॥३५॥

सवैया
राम गुलाम तु ही हनुमान गोसाँई सुसाँई सदा अनुकूलो ।
पाल्यो हौं बाल ज्यों आखर दू पितु मातु सों मंगल मोद समूलो ॥
बाँह की बेदन बाँह पगार पुकारत आरत आनँद भूलो ।
श्री रघुबीर निवारिये पीर रहौं दरबार परो लटि लूलो ॥३६॥

घनाक्षरी
काल की करालता करम कठिनाई कीधौ, पाप के प्रभाव की सुभाय बाय बावरे ।
बेदन कुभाँति सो सही न जाति राति दिन, सोई बाँह गही जो गही समीर डाबरे ॥
लायो तरु तुलसी तिहारो सो निहारि बारि, सींचिये मलीन भो तयो है तिहुँ तावरे ।
भूतनि की आपनी पराये की कृपा निधान, जानियत सबही की रीति राम रावरे ॥३७॥

पाँय पीर पेट पीर बाँह पीर मुंह पीर, जर जर सकल पीर मई है ।
देव भूत पितर करम खल काल ग्रह, मोहि पर दवरि दमानक सी दई है ॥
हौं तो बिनु मोल के बिकानो बलि बारे हीतें, ओट राम नाम की ललाट लिखि लई है ।
कुँभज के किंकर बिकल बूढ़े गोखुरनि, हाय राम राय ऐसी हाल कहूँ भई है ॥३८॥

बाहुक सुबाहु नीच लीचर मरीच मिलि, मुँह पीर केतुजा कुरोग जातुधान है ।
राम नाम जप जाग कियो चहों सानुराग, काल कैसे दूत भूत कहा मेरे मान है ॥
सुमिरे सहाय राम लखन आखर दौऊ, जिनके समूह साके जागत जहान है ।
तुलसी सँभारि ताडका सँहारि भारि भट, बेधे बरगद से बनाई बानवान है ॥३९॥

बालपने सूधे मन राम सनमुख भयो, राम नाम लेत माँगि खात टूक टाक हौं ।
परयो लोक रीति में पुनीत प्रीति राम राय, मोह बस बैठो तोरि तरकि तराक हौं ॥
खोटे खोटे आचरन आचरत अपनायो, अंजनी कुमार सोध्यो रामपानि पाक हौं ।
तुलसी गुसाँई भयो भोंडे दिन भूल गयो, ताको फल पावत निदान परिपाक हौं ॥४०॥

असन बसन हीन बिषम बिषाद लीन, देखि दीन दूबरो करै न हाय हाय को ।
तुलसी अनाथ सो सनाथ रघुनाथ कियो, दियो फल सील सिंधु आपने सुभाय को ॥
नीच यहि बीच पति पाइ भरु हाईगो, बिहाइ प्रभु भजन बचन मन काय को ।
ता तें तनु पेषियत घोर बरतोर मिस, फूटि फूटि निकसत लोन राम राय को ॥४१॥

जीओ जग जानकी जीवन को कहाइ जन, मरिबे को बारानसी बारि सुर सरि को ।
तुलसी के दोहूँ हाथ मोदक हैं ऐसे ठाँऊ, जाके जिये मुये सोच करिहैं न लरि को ॥
मो को झूँटो साँचो लोग राम कौ कहत सब, मेरे मन मान है न हर को न हरि को ।
भारी पीर दुसह सरीर तें बिहाल होत, सोऊ रघुबीर बिनु सकै दूर करि को ॥४२॥

सीतापति साहेब सहाय हनुमान नित, हित उपदेश को महेस मानो गुरु कै ।
मानस बचन काय सरन तिहारे पाँय, तुम्हरे भरोसे सुर मैं न जाने सुर कै ॥
ब्याधि भूत जनित उपाधि काहु खल की, समाधि की जै तुलसी को जानि जन फुर कै ।
कपिनाथ रघुनाथ भोलानाथ भूतनाथ, रोग सिंधु क्यों न डारियत गाय खुर कै ॥४३॥

कहों हनुमान सों सुजान राम राय सों, कृपानिधान संकर सों सावधान सुनिये ।
हरष विषाद राग रोष गुन दोष मई, बिरची बिरञ्ची सब देखियत दुनिये ॥
माया जीव काल के करम के सुभाय के, करैया राम बेद कहें साँची मन गुनिये ।
तुम्ह तें कहा न होय हा हा सो बुझैये मोहिं, हौं हूँ रहों मौनही वयो सो जानि लुनिये ॥४४॥

हनुमान बाहुक क पाठ रोग व कष्ट दूर करता हैं

Hanuman Bahuk
हनुमान बाहुक क पाठ रोग व कष्ट दूर करता हैं

हनुमान बाहुक की रचना संत गोस्वामी तुलसीदासजी ने अपीन दाहिनी बाहु में हुई असह्य पीड़ा के निवारण के लिए की थी। हनुमान बाहुक में तुलसीदासजी ने हनुमानजी की महिमा का चिंतन व तुलसीदासजी के सर्वअंगो में हो रही पीड़ा की निवृति की प्रार्थना है।

हनुमान बाहुक सिद्ध संत गोस्वामी तुलसीदासजी के द्वारा विरचित सिद्ध स्तोत्र है।

हनुमान बाहुक का पाठ किसी भी प्रकार की आधि–व्याधि जेसी पीड़ा, भूत, पेत, पिशाच, जेसी उपाधि तथा किसी भी प्रकार के शत्रु द्वारा किये हुए दुष्ट भिचार कर्म की निवृति के लिए हनुमान बाहुक का नियमित पाठ तथा अनुष्ठान श्रेष्ठ उपाय हैं। अनुष्ठान के समय एकाहार अथवा फलाहार करे। पूर्ण ब्रह्मचर्य आदि का पालन और भूमि शयन करें।

हनुमानजी का पूजन और हनुमान बाहुक के पाठ का अनुष्ठान 40 दिन तक करने से अभीष्ट फल की सिद्धि अथवा रोग, कष्ट इत्यादि का निवारण हो जाता है।

नोट: जो व्यक्ति अनुष्ठान करने में असमर्थ हो वह प्रतिदिन हनुमान बाहुक का श्रद्धा अनुशार पाठ करके भी लाभ प्राप्त कर सकते हैं।

सरल विधि-विधान से हनुमानजी की पूजा

 हनुमान जयंती 18 अप्रैल 2011 (Hanuman Jayanti puja, pooja 18-April-2011)

सरल विधि-विधान से हनुमानजी की पूजा

इस कलयुग में सर्वाधिक देवता के रुप में श्री रामभक्त हनुमानजी की ही पूजा की जाती हैं क्योंकि हनुमानजी को कलयुग का जीवंत अर्थात साक्षात देवता माना गया हैं। धर्म शास्त्रों के अनुसार हनुमानजी का जन्म चैत्र मास की पूर्णिमा के दिन हुआ था। इस लिये प्रतिवर्ष चैत्र मास की पूर्णिमा का पर्व हनुमान जयंती के रूप में मनाया जाता है। वर्ष 2011 में हनुमान जयंती 18 अप्रैल, सोमवार को हैं।

वैसे तो हनुमानजी की पूजा हेतु अनेको विधि-विधान प्रचलन में हैं पर यहा साधारण व्यक्ति जो संपूर्ण विधि-विधान से हनुमानजी का पूजन नहीं कर सकते वह व्यक्ति यदि इस विधि-विधान से पूजन करे तो उन्हें भी पूर्ण फल प्राप्त हो सकता हैं।

श्रीहनुमान पूजन विधि

हनुमानजी का पूजन करते समय सबसे पहले ऊन के आसन पर पूर्व दिशा की ओर मुख करके बैठ जाएं। हनुमानजी की छोटी प्रतिमा अथवा चित्र स्थापित करें।

इसके पश्चात हाथ में अक्षत (अर्थात बिना टूटे चावल) एवं फूल लेकर इस मंत्र से हनुमानजी का

ध्यान:

अतुलितबलधामम् हेमशैलाभदेहम्
दनुजवनकृशानुम् ज्ञानिनामग्रगण्यम्।
सकलगुणनिधानम् वानराणामधीशम्
रघुपतिप्रियभक्तम् वातजातम् नमामि॥

ॐ हनुमते नम: ध्यानार्थे पुष्पाणि सर्मपयामि॥

इसके पश्चयात चावल और फूल हनुमानजी को अर्पित कर दें।


आवाह्न:
हाथ में फूल लेकर इस मंत्र का उच्चारण करते हुए श्री हनुमानजी का आवाह्न करें।

उद्यत्कोट्यर्कसंकाशम् जगत्प्रक्षोभकारकम्।
श्रीरामड्घ्रिध्याननिष्ठम् सुग्रीवप्रमुखार्चितम्॥
विन्नासयन्तम् नादेन राक्षसान् मारुतिम् भजेत्॥

ॐ हनुमते नम: आवाहनार्थे पुष्पाणि समर्पयामि॥
इसके पश्चयात फूलों को हनुमानजी को अर्पित कर दें।

आसन:
इस मंत्र से हनुमानजी का आसन अर्पित करें। आसन हेतु कमल अथवा गुलाब का फूल अर्पित करें।

तप्तकांचनवर्णाभम् मुक्तामणिविराजितम्।

अमलम् कमलम् दिव्यमासनम् प्रतिगृह्यताम्॥


आचमनी:
इसके पश्चयात इन मंत्रों का उच्चारण करते हुए हनुमानजी के सम्मुख भूमि पर अथवा किसी बर्तन में तीन बार जल छोड़ें।

ॐ हनुमते नम:, पाद्यम् समर्पयामि॥

अध्र्यम् समर्पयामि। आचमनीयम् समर्पयामि॥

स्नान:
इसके पश्चयात हनुमानजी की मूर्ति को गंगाजल अथवा शुद्ध जल से स्नान करवाएं तत्पश्चात पंचामृत (घी, शहद, शक्कर, दूध व दही ) से स्नान करवाएं। पुन: एक बार शुद्ध जल से स्नान करवाएं।

वस्त्र:
इसके पश्चयात अब इस मंत्र से हनुमानजी को वस्त्र अर्पित करें व वस्त्र के निमित्त मौली भी चढ़ाएं-

शीतवातोष्णसंत्राणं लज्जाया रक्षणम् परम्।
देहालकरणम् वस्त्रमत: शांति प्रयच्छ मे॥

ॐ हनुमते नम:, वस्त्रोपवस्त्रं समर्पयामि॥

पुष्प:
इसके पश्चयात हनुमानजी को अष्ट गंध, सिंदूर, कुंकुम, चावल, फूल व हार अर्पित करें।

धुप-दिप:
इसके पश्चयात इस मंत्र के साथ हनुमानजी को धूप-दीप दिखाएं-

साज्यम् च वर्तिसंयुक्तम् वह्निना योजितम् मया।
दीपम् गृहाण देवेश त्रैलोक्यतिमिरापहम्॥

भक्त्या दीपम् प्रयच्छामि देवाय परमात्मने।
त्राहि माम् निरयाद् घोराद् दीपज्योतिर्नमोस्तु ते॥

ॐ हनुमते नम:, दीपं दर्शयामि॥

नैवेद्य (प्रसाद):
इसके पश्चयात केले के पत्ते पर या किसी कटोरी में पान के पत्ते पर प्रसाद रखें और हनुमानजी को अर्पित कर दें तत्पश्चात ऋतुफल इत्यादि अर्पित करें। (प्रसाद में चूरमा, बुंदी अथवा बेसन के लडडू या गुड़ चढ़ाना उत्तम रहता है।)
इसके पश्चयात मुखशुद्धि हेतु लौंग-इलाइचीयुक्त पान चढ़ाएं।

दक्षिणा:
पूजा का पूर्ण फल प्राप्त करने के लिए इस मंत्र को बोलते हुए हनुमानजी को दक्षिणा अर्पित करें-

ॐ हिरण्यगर्भगर्भस्थम् देवबीजम् विभावसों:।
अनन्तपुण्यफलदमत: शांति प्रयच्छ मे॥

ॐ हनुमते नम:, पूजा साफल्यार्थं द्रव्य दक्षिणां समर्पयामि॥


आरति:
इसके बाद एक थाली में कर्पूर एवं घी का दीपक जलाकर हनुमानजी की आरती करें।

इस प्रकार के पूजन करने से भी हनुमानजी अति प्रसन्न होते हैं।
इस विधि-विधान से किये गये पूजन से भी भक्तगण हनुमाजी की पूर्ण कृपा प्रप्त कर अपनी मनोकामना पूरी कर सकते हैं। इस में लेस मात्र भी संसय नहीं हैं।
साधक की हर मनोकामना पूरी करते हैं।

हनुमानजी के पूजन से कार्यसिद्धि भाग : 2

Hanuman worshiping for achievement, Hanuman puja for achievement, Hanuman veneration for achievement, Hanuman Pooja for achievement, fainance, money, health, peace, हनुमान पूजन कार्यसिद्धि, पुजन कामना पूर्ति, હનુમાન પૂજન કાર્યસિદ્ધિ, પુજન કામના પૂર્તિ, ಹನುಮಾನ ಪೂಜನ ಕಾರ್ಯಸಿದ್ಧಿ, ಪುಜನ ಕಾಮನಾ ಪೂರ್ತಿ, హనుమాన పూజన కార్యసిద్ధి, పుజన కామనా పూర్తి, ஹநுமாந பூஜந கார்யஸித்தி, புஜந காமநா பூர்தி, ഹനുമാന പൂജന കാര്യസിദ്ധി, പുജന കാമനാ പൂര്തി, ਹਨੁਮਾਨ ਪੂਜਨ ਕਾਰ੍ਯਸਿੱਧਿ, ਪੁਜਨ ਕਾਮਨਾ ਪੂਰ੍ਤਿ, হনুমান পূজন কার্যসিদ্ধি, পুজন কামনা পূর্তি, ହନୁମାନ ପୂଜନ କାର୍ଯସିଦ୍ଧି, ପୁଜନ କାମନା ପୂର୍ତି, hanuman pujan karya siddhi, poojan kamana purti,

हनुमानजी के पूजन से कार्यसिद्धि भाग : 2

वीरहनुमान स्वरुप:
वीरहनुमान स्वरुप में हनुमानजी योद्धा मुद्रामें होते हैं । उनकी पूंछ उत्थित (उपर उठिउई) रहती है व दाहिना हाथ मस्तककी ओर मुडा रहता है । कभी-कभी उनके पैरों के नीचे राक्षसकी मूर्ति भी होती है । वीरहनुमान का पूजन भूता-प्रेत, जादू-टोना इत्यादि आसुरी शक्तियो से प्राप्त होने वाले कष्टो को दूर करने वाला हैं।

राम सेवक हनुमान स्वरुप:
हनुमानजी की श्री रामजी की सेवामें लीन हनुमानजी की उपासना करने से व्यक्ति के भितर सेवा और समर्पण के भाव की वृद्धि होती हैं। व्यक्ति के भितर धर्म, कर्म इत्यादि के प्रति समर्पण और सेवा की भावना निर्माण करने हेतु व व्यक्ति के भितर से क्रोघ, इर्षा अहंकार इत्यादि भाव के नाश हेतु राम सेवक हनुमान स्वरुप उत्तम माना गया हैं।

हनुमानजी का उत्तरामुखी स्वरुप:
उत्तरामुखी हनुमानजी की उपासना करने से सभी प्रकार के सुख प्राप्त होकर जीवन धन, संपत्ति से युक्त हो जाता हैं। क्योकि शास्त्रो के अनुशार उत्तर दिशा में देवी देवताओं का वास होता हैं, अतः उत्तरमुखी देव प्रतिमा शुभ फलदायक व मंगलमय, सकल सम्पत्ति प्राप्त होती हैं। सकल सम्पत्ति की प्राप्ति होती है।

हनुमानजी का दक्षिणमुखी स्वरुप:
दक्षिणमुखी हनुमानजी की उपासना करने से व्यक्ति को भय, संकट, मानसिक चिंता इत्यादी का नाश होता हैं। क्योकि शास्त्रो के अनुशार दक्षिण दिशा में काल का निवास होता हैं। शिवजी काल को नियंत्रण करने वाले देव हैं हनुमानजी भगवान शिव के अवतार हैं अतः हनुमानजी की पूजा-अर्चना करने से लाभ प्राप्त होता हैं। जादू-टोना, मंत्र-तंत्र इत्यादि प्रयोग दक्षिणमुखी हनुमान की प्रतिमा के समुख करना विशेष लाभप्रद होता हैं। दक्षिणमुखी हनुमान का चित्र दक्षिण मुखी भवन के मुख्य द्वार पर लगाने से वास्तु दोष दुर होते देखे गये हैं। जादू-टोना, मंत्र-तंत्र इत्यादि प्रयोग प्रमुखत: ऐसी मूर्तिके

हनुमानजी का पूर्वमुखी स्वरुप:
पूर्वमुखी हनुमानजी का पूजन करने से व्यक्ति के समस्त भय, शोक, शत्रुओं का नाश हो जाता है।

(क्रमश....)

रविवार, अप्रैल 17, 2011

हनुमान मंत्र से भय निवारण

हनुमान मंत्र भय विनाशक, Hanuman Mantra for fear Prevention, Hanuman Mantra for fear deterrent, Hanuman Mantra for fear Destroyer, Hanuman Mantra fear Destructor,


हनुमान मंत्र से भय निवारण

जो लोगो को किसी अज्ञात भय से परेशान रहते हो। हर समय किसी ना किसी तरह के डर के कारण मानसिक रहता हो, तो भय के निवारण के लिये संपूर्ण प्राण प्रतिष्ठित हनुमान यंत्र के सम्मुख हनुमान मंत्र का विधि-विधान से जप करना लाभप्रद होता हैं।

अनजाने भय के निवारण हेतु इस मंत्र का 7 दिनो तक प्रतिदिन निश्चित समय पर रुद्राक्ष की माला से एक माल जप करना लाभप्रद होता हैं।

मंत्र:
अंजनीर्ग संभूत कपीन्द्रसचिवोत्तम।
राम प्रिय नमस्तुभ्यं हनुमते रक्ष सर्वदा॥

समस्या के समाधान के पश्चात हनुमान यंत्र को बहते जल में विसर्जित कर दे या किसी हनुमान मंदिर में अर्पित कर दें।

पंचमुखी हनुमान का पूजन उत्तम फलदायी हैं

पंचमुखी हनुमान-पूजन, પંચમુખી હનુમાન-પૂજન, ಪಂಚಮುಖೀ ಹನುಮಾನ-ಪೂಜನ, பம்சமுகீ ஹநுமாந-பூஜந, పంచముఖీ హనుమాన-పూజన, പംചമുഖീ ഹനുമാന-പൂജന, ਪਂਚਮੁਖੀ ਹਨੁਮਾਨ-ਪੂਜਨ, পংচমুখী হনুমান-পূজন, ପଂଚମୁଖୀ ହନୁମାନ-ପୂଜନ, ପଂଚ୍ଚମୁଖୀ, paMcamuKI hanumAna-pUjana,  
the Panchamukhi Hanuman worship are Excellent, Panchamukhi Hanuman worship Are beneficial, Greata, Panchamukhi Hanuman worship are wonderful, fantastic, terrific


पंचमुखी हनुमान का पूजन उत्तम फलदायी हैं

शास्त्रो विधान से हनुमानजी का पूजन और साधना विभिन्न रुप से किये जा सकते हैं।

हनुमानजी का एकमुखी,पंचमुखीऔर एकादश मुखीस्वरूप के साथ हनुमानजी का बाल हनुमान, भक्त हनुमान, वीर हनुमान, दास हनुमान, योगी हनुमान आदि प्रसिद्ध है। किंतु शास्त्रों में श्री हनुमान के ऐसे चमत्कारिक स्वरूप और चरित्र की भक्ति का महत्व बताया गया है, जिससे भक्त को बेजोड़ शक्तियां प्राप्त होती है। श्री हनुमान का यह रूप है - पंचमुखी हनुमान।

मान्यता के अनुशार पंचमुखीहनुमान का अवतार भक्तों का कल्याण करने के लिए हुवा हैं। हनुमान के पांच मुख क्रमश:पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण और ऊ‌र्ध्व दिशा में प्रतिष्ठित हैं।

पंचमुखीहनुमानजी का अवतार मार्गशीर्ष कृष्णाष्टमी को माना जाता हैं। रुद्र के अवतार हनुमान ऊर्जा के प्रतीक माने जाते हैं। इसकी आराधना से बल, कीर्ति, आरोग्य और निर्भीकता बढती है।

रामायण के अनुसार श्री हनुमान का विराट स्वरूप पांच मुख पांच दिशाओं में हैं। हर रूप एक मुख वाला, त्रिनेत्रधारी यानि तीन आंखों और दो भुजाओं वाला है। यह पांच मुख नरसिंह, गरुड, अश्व, वानर और वराह रूप है। हनुमान के पांच मुख क्रमश:पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण और ऊ‌र्ध्व दिशा में प्रतिष्ठित माने गएं हैं।

पंचमुख हनुमान के पूर्व की ओर का मुख वानर का हैं। जिसकी प्रभा करोडों सूर्यो के तेज समान हैं। पूर्व मुख वाले हनुमान का पूजन करने से समस्त शत्रुओं का नाश हो जाता है।

पश्चिम दिशा वाला मुख गरुड का हैं। जो भक्तिप्रद, संकट, विघ्न-बाधा निवारक माने जाते हैं। गरुड की तरह हनुमानजी भी अजर-अमर माने जाते हैं।

हनुमानजी का उत्तर की ओर मुख शूकर का है। इनकी आराधना करने से अपार धन-सम्पत्ति,ऐश्वर्य, यश, दिर्धायु प्रदान करने वाल व उत्तम स्वास्थ्य देने में समर्थ हैं। है।

हनुमानजी का दक्षिणमुखी स्वरूप भगवान नृसिंह का है। जो भक्तों के भय, चिंता, परेशानी को दूर करता हैं।

श्री हनुमान का ऊ‌र्ध्वमुख घोडे के समान हैं। हनुमानजी का यह स्वरुप ब्रह्मा जी की प्रार्थना पर प्रकट हुआ था। मान्यता है कि हयग्रीवदैत्य का संहार करने के लिए वे अवतरित हुए। कष्ट में पडे भक्तों को वे शरण देते हैं। ऐसे पांच मुंह वाले रुद्र कहलाने वाले हनुमान बडे कृपालु और दयालु हैं।

हनुमतमहाकाव्य में पंचमुखीहनुमान के बारे में एक कथा हैं।
एक बार पांच मुंह वाला एक भयानक राक्षस प्रकट हुआ। उसने तपस्या करके ब्रह्माजीसे वरदान पाया कि मेरे रूप जैसा ही कोई व्यक्ति मुझे मार सके। ऐसा वरदान प्राप्त करके वह समग्र लोक में भयंकर उत्पात मचाने लगा। सभी देवताओं ने भगवान से इस कष्ट से छुटकारा मिलने की प्रार्थना की। तब प्रभु की आज्ञा पाकर हनुमानजी ने वानर, नरसिंह, गरुड, अश्व और शूकर का पंचमुख स्वरूप धारण किया। इस लिये एसी मान्यता है कि पंचमुखीहनुमान की पूजा-अर्चना से सभी देवताओं की उपासना के समान फल मिलता है। हनुमान के पांचों मुखों में तीन-तीन सुंदर आंखें आध्यात्मिक, आधिदैविक तथा आधिभौतिक तीनों तापों को छुडाने वाली हैं। ये मनुष्य के सभी विकारों को दूर करने वाले माने जाते हैं।

भक्त को शत्रुओं का नाश करने वाले हनुमानजी का हमेशा स्मरण करना चाहिए।

विद्वानो के मत से पंचमुखी हनुमानजी की उपासना से जाने-अनजाने किए गए सभी बुरे कर्म एवं चिंतन के दोषों से मुक्ति प्रदान करने वाला हैं।
पांच मुख वाले हनुमानजी की प्रतिमा धार्मिक और तंत्र शास्त्रों में भी बहुत ही चमत्कारिक फलदायी मानी गई है।

हनुमानजी के पूजन से कार्यसिद्धि भाग : 1

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हनुमानजी के पूजन से कार्यसिद्धि भाग : 1

हिन्दू धर्म में श्री हनुमानजी प्रमुख देवी-देवताओ में से एक प्रमुख देव हैं। शास्त्रोक्त मत के अनुशार हनुमानजी को रूद्र (शिव) अवतार हैं। हनुमानजी का पूजन युगो-युगो से अनंत काल से होता आया हैं। हनुमानजी को कलियुग में प्रत्यक्ष देव मानागया हैं। जो थोडे से पूजन-अर्चन से अपने भक्त पर प्रसन्न हो जाते हैं और अपने भक्त की सभी प्रकार के दुःख, कष्ट, संकटो इत्यादी का नाश हो कर उसकी रक्षा करते हैं।

हनुमानजी का दिव्य चरित्र बल, बुद्धि कर्म, समर्पण, भक्ति, निष्ठा, कर्तव्य शील जैसे आदर्श गुणो से युक्त हैं। अतः श्री हनुमानजी के पूजन से व्यक्ति में भक्ति, धर्म, गुण, शुद्ध विचार, मर्यादा, बल , बुद्धि, साहस इत्यादी गुणो का भी विकास हो जाता हैं।

विद्वानो के मतानुशार हनुमानजी के प्रति द्दढ आस्था और अटूट विश्वास के साथ पूर्ण भक्ति एवं समर्पण की भावना से हनुमानजी के विभिन्न स्वरूपका अपनी आवश्यकता के अनुशार पूजन-अर्चन कर व्यक्ति अपनी समस्याओं से मुक्त होकर जीवन में सभी प्रकार के सुख प्राप्त कर सकता हैं।

चैत्र शुक्ल पूर्णिमा की हनुमान जयंती के शुभ अवसर पर अपनी मनोकामना की पूर्ति हेतु कौन सी हनुमान प्रतिमा का पूजल करना लाभप्रद रहेगा। इस जानकारी से आपको अवगत कराने का प्रयास किया जारहा हैं।

हनुमानजी के प्रमुख स्वरुप इस प्रकार हैं।

राम भक्त हनुमान स्वरुप:
राम भक्ति में मग्न हनुमानजी की उपासना करने से जीवन के महत्व पूर्ण कार्यो में आ रहे संकटो एवं बाधाओं को दूर करती हैं एवं अपने लक्ष्य को प्राप्त करने हेतु आवश्यक एकाग्रता व अटूट लगन प्रदान करने वाली होती है।

संजीवनी पहाड़ लिये हनुमान स्वरुप:
संजीवनी पहाड़ उठाये हुए हनुमानजी की उपासना करने से व्यक्ति को प्राणभय, संकट, रोग इत्यादी हेतु लाभप्रद मानी गई हैं। विद्वानो के मत से जिस प्रकार हनुमानजी ने लक्षमणजी के प्राण बचाये थे उसी प्रकार हनुमानजी अपने भक्तो के प्राण की रक्षा करते हैं एवं अपने भक्त के बडे से बडे संकटो को संजिवनी पहाड़ की तरह उठाने में समर्थ हैं।

ध्यान मग्न हनुमान स्वरुप:
हनुमानजी का ध्यान मग्न स्वरुप व्यक्ति को साधना में सफलता प्रदान करने वाला, योग सिद्धि या प्रदान करने वाला मानागया हैं।

रामायणी हनुमान स्वरुप:
रामायणी हनुमानजी का स्वरुप विद्यार्थीयो के लिये विशेष लाभ प्रद होता हैं। जिस प्रकार रामायण एक आदर्श ग्रंथ हैं उसी प्रकार हनुमानजी के रामायणी स्वरुप का पूजन विद्या अध्यन से जुडे लोगो के लिये लाभप्रद होता हैं।

हनुमानजी का पवन पुत्र स्वरुप:
हनुमानजी का पवन पुत्र स्वरुप के पूजन से आकस्मिक दुर्घटना, वाहन इत्यादि की सुरक्षा हेतु उत्तम माना गया हैं। हनुमानजी के उस स्वरुप का पूजन करने से

(क्रमश....)

मंगलवार, अप्रैल 12, 2011

जब श्रीराम ने किय विजया एकादशी व्रत?

जब श्रीराम ने किय विजया एकादशी व्रत?

एक बार युधिष्ठिर ने श्री कृष्ण से पूछा हे प्रभु फाल्गुन (गुजरात-महाराष्ट्र में माघ) के कृष्णपक्ष को किस नाम की एकादशी होती हैं और उसका व्रत करने की विधि क्या हैं? कृपा करके बताइये ।
फाल्गुन के कृष्णपक्ष की एकादशी को ‘विजया एकादशी’ के नाम से जाना जाता हैं।

भगवान श्रीकृष्ण पुनः बोले: युधिष्ठिर ! एक बार नारदजी ने ब्रह्माजी से फाल्गुन के कृष्णपक्ष की ‘विजया एकादशी’ के व्रत से होनेवाले पुण्य के बारे में पूछा था तथा ब्रह्माजी ने इस व्रत के बारे में नारदजी को जो कथा और विधि बतायी थी, उसे सुनो :

ब्रह्माजी ने कहा : नारद ! यह व्रत बहुत ही प्राचीन, पवित्र और पाप नाशक हैं । यह एकादशी राजाओं को विजय प्रदान करती हैं, इसमें तनिक भी संदेह नहीं हैं ।

त्रेतायुग में मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीरामचन्द्रजी जब लंका पर चढ़ाई करने के लिए समुद्र के किनारे पहुँचे, तब उन्हें समुद्र को पार करने का कोई उपाय नहीं सूझ रहा था ।

उन्होंने लक्ष्मणजी से पूछा : ‘सुमित्रानन्दन ! किस उपाय से इस समुद्र को पार किया जा सकता है ? यह अत्यन्त अगाध और भयंकर जल जन्तुओं से भरा हुआ है । मुझे ऐसा कोई उपाय नहीं दिखायी देता, जिससे इसको सुगमता से पार किया जा सके ।

लक्ष्मणजी बोले : हे प्रभु ! आप ही आदिदेव और पुराण पुरुष पुरुषोत्तम हैं । आपसे क्या छिपा हैं? यहाँ से आधे योजन की दूरी पर कुमारी द्वीप में बकदाल्भ्य नामक मुनि रहते हैं । आप उन विद्वान मुनीश्वर के पास जाकर उन्हींसे इसका उपाय पूछिये ।

श्रीरामचन्द्रजी महामुनि बकदाल्भ्य के आश्रम पहुँचे और उन्होंने मुनि को प्रणाम किया ।
महर्षि ने प्रसन्न होकर श्रीरामजी के आगमन का कारण पूछा ।

श्रीरामचन्द्रजी बोले : ब्रह्मन् ! मैं लंका पर चढ़ाई करने के उद्धेश्य से अपनी सेनासहित यहाँ आया हूँ ।
मुने ! अब जिस प्रकार समुद्र पार किया जा सके, कृपा करके वह उपाय बताइये ।

बकदाल्भय मुनि ने कहा : हे श्रीरामजी ! फाल्गुन के कृष्णपक्ष में जो ‘विजया’ नाम की एकादशी होती है, उसका व्रत करने से आपकी विजय होगी। निश्चय ही आप अपनी वानर सेना के साथ समुद्र को पार कर लेंगे । राजन् ! अब इस व्रत की फलदायक विधि सुनिये :

एकादशी के एक दिन पूर्व दशमी के दिन सोने, चाँदी, ताँबे अथवा मिट्टी का एक कलश स्थापित कर उस कलश को जल से भरकर उसमें पल्लव डाल दें । उस कलश के ऊपर भगवान नारायण के सुवर्णमय विग्रह की स्थापना करें । फिर एकादशी के दिन प्रात: काल स्नान करें । कलश को पुन: स्थापित करें । माला, चन्दन, सुपारी तथा नारियल आदि के द्वारा विशेष रुप से उसका पूजन करें ।

कलश के ऊपर सप्तधान्य और जौ रखें । गन्ध, धूप, दीप और भाँति-भाँति के नैवेघ से भगवान नारायण का पूजन करें । कलश के सामने बैठकर उत्तम कथा वार्ता आदि के द्वारा सारा दिन व्यतीत करें और रात में भी वहाँ जागरण करें । अखण्ड व्रत की सिद्धि के लिए घी का दीपक जलायें ।

फिर द्वादशी के दिन सूर्योदय होने पर उस कलश को किसी जलाशय के समीप स्थापित करें और उसकी विधिवत् पूजा करके देव प्रतिमासहित उस कलश को वेदवेत्ता ब्राह्मण के लिए दान कर दें । कलश के साथ ही और भी बड़े बड़े दान देने चाहिए । श्रीराम ! आप अपने सेनापतियों के साथ इसी विधि से प्रयत्नपूर्वक ‘विजया एकादशी’ का व्रत कीजिये । इससे आपकी विजय होगी ।

ब्रह्माजी कहते हैं : नारद ! यह सुनकर श्रीरामचन्द्रजी ने मुनि के कथनानुसार उस समय ‘विजया एकादशी’ का व्रत किया । उस व्रत के करने से श्रीरामचन्द्रजी विजयी हुए । उन्होंने संग्राम में रावण को मारा, लंका पर विजय पायी और सीता को प्राप्त किया । बेटा ! जो मनुष्य इस विधि से व्रत करते हैं, उन्हें इस लोक में विजय प्राप्त होती है और उनका परलोक भी अक्षय बना रहता हैं।

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं : युधिष्ठिर ! इस कारण ‘विजया’ का व्रत करना चाहिए । इस प्रसंग को पढ़ने और सुनने से वाजपेय यज्ञ के समान फल मिलता हैं।

जब कबीरजी को मिली राम-राम मंत्र दीक्षा?

जब कबीरजी को मिली राम-राम मंत्र दीक्षा?

संत कबीर किसी पहुचे हुए गुरु से मंत्रदीक्षा प्राप्त करना चाहते थे। उस समय काशी में रामानंद स्वामी बड़े उच्च कोटि के महापुरुष माने जाते थे। कबीर जी ने उनके आश्रम के मुख्य द्वार पर आकर द्वारपाल से विनती कीः मुझे गुरुजी के दर्शन करा दो। उस समय जात-पाँत का बड़ा बोलबाला था। और फिर काशी जैसी पावन नगरी में पंडितों और पंडे लोगों का अधिक प्रभाव था। कबीरजी किसके घर पैदा हुए थे – हिंदू के या मुसलिम के? कुछ पता नहीं था। कबीर जी एक जुलाहे को तालाब के किनारे मिले थे। उसने कबीर जी का पालन-पोषण करके उन्हें बड़ा किया था। जुलाहे के घर बड़े हुए तो जुलाहे का धंधा करने लगे। लोग मानते थे कि कबीर जी मुसलमान की संतान हैं।

द्वारपालों ने कबीरजी को आश्रम में नहीं जाने दिया। कबीर जी ने सोचा कि अगर पहुँचे हुए महात्मा से गुरुमंत्र नहीं मिला तो मनमानी साधना से हरि के दास बन सकते हैं पर हरिमय नहीं बन सकते। कैसे भी करके मुझे रामानंद जी महाराज से ही मंत्रदीक्षा लेनी है।

कबीरजी ने देखा कि स्वामी रामानंदजी हररोज सुबह 3-4 बजे खड़ाऊँ पहन कर टप...टप आवाज करते हुए गंगा में स्नान करने जाते हैं। कबीर जी ने गंगा के घाट पर उनके जाने के रास्ते में सब जगह बाड़ कर दी और आने-जाने का एक ही मार्ग रखा। उस मार्ग में सुबह के अँधेरे में कबीर जी सो गये। गुरु महाराज आये तो अँधेरे के कारण स्वामी रामानंदजी का कबीरजी पर पैर पड़ गया। उनके मुख से स्वतः उदगार निकल पड़ेः राम..... राम...!

कबीरजी का तो काम बन गया। गुरुजी के दर्शन भी हो गये, उनकी पादुकाओं का स्पर्श तथा गुरुमुख से राम मंत्र भी मिल गया। गुरुदीक्षा के बाद अब दीक्षा में बाकी ही क्या रहा? कबीर जी नाचते, गुनगुनाते घर वापस आये। राम नाम की और गुरुदेव के नाम की रट लगा दी। अत्यंत स्नेहपूर्ण हृदय से गुरुमंत्र का जप करते, गुरुनाम का कीर्तन करते हुए साधना करने लगे। दिनोंदिन कबीर जी मस्ती बढ़ने लगी। काशी के पंडितों ने देखा कि यवन का पुत्र कबीर राम नाम जपता हैं, स्वामी रामानंद के नाम का कीर्तन करता हैं। उस यवन को राम नाम की दीक्षा किसने दी? क्यों दी? उसने मंत्र को भ्रष्ट कर दिया !

पंडितों ने कबीर जी से पूछाः तुमको रामनाम की दीक्षा किसने दी? कबीरजी बोले, स्वामी रामानंदजी महाराज के श्रीमुख से मिली। पंडितों ने फिर पूछाः कहाँ दी दीक्षा?, कबीरजी बोले, गंगा के घाट पर।
पंडित पहुँचे रामानंदजी के पासः आपने यवन को राममंत्र की दीक्षा देकर मंत्र को भ्रष्ट कर दिया, सम्प्रदाय को भ्रष्ट कर दिया। गुरु महाराज ! यह आपने क्या किया? गुरु महाराज ने कहाः मैंने तो किसी को दीक्षा नहीं दी।

वह यवन जुलाहा तो रामानंद..... रामानंद..... मेरे गुरुदेव रामानंद...की रट लगाकर नाचता हैं, आपका नाम बदनाम करता हैं। रामानंदजी बोले भाई ! मैंने तो उसको कुछ नहीं कहा। उसको बुला कर पूछा जाय। पता चल जायगा।

काशी के पंडित इकट्ठे हो गये। जुलाहा सच्चा कि रामानंदजी सच्चे यह देखने के लिए भीड़ इक्कठी हो गयी। कबीर जी को बुलाया गया। गुरु महाराज मंच पर विराजमान हैं। सामने विद्वान पंडितों की सभा हैं।

रामानंदजी ने कबीर से पूछाः मैंने तुम्हें कब दीक्षा दी? मैं कब तेरा गुरु बना? कबीरजी बोलेः महाराज ! उस दिन प्रभात को आपने मुझे पादुका-स्पर्श कराया और राममंत्र भी दिया, वहाँ गंगा के घाट पर।

रामानंद स्वामी ने कबीरजी के सिर पर धीरे से खड़ाऊँ मारते हुए कहाः राम... राम.. राम.... मुझे झूठा बनाता है? गंगा के घाट पर मैंने तुझे कब दीक्षा दी थी ?

कबीरजी बोल उठेः गुरु महाराज ! तब की दीक्षा झूठी तो अब की तो सच्ची....! मुख से राम नाम का मंत्र भी मिल गया और सिर पर आपकी पावन पादुका का स्पर्श भी हो गया। स्वामी रामानंदजी उच्च कोटि के संत महात्मा थे। उन्होंने पंडितों से कहाः चलो, यवन हो या कुछ भी हो, मेरा पहले नंबर का शिष्य यही है।

सोमवार, अप्रैल 11, 2011

राम एवं हनुमान मंत्र

राम मंत्र-हनुमान मंत्र, राम मन्त्र- हनुमान मन्त्र, રામ મંત્ર-હનુમાન મંત્ર, રામ મન્ત્ર- હનુમાન મન્ત્ર,  ರಾಮ ಮಂತ್ರ-ಹನುಮಾನ ಮಂತ್ರ, ರಾಮ ಮನ್ತ್ರ- ಹನುಮಾನ ಮನ್ತ್ರ, ராம மம்த்ர-ஹநுமாந மம்த்ர, ராம மந்த்ர- ஹநுமாந மந்த்ர, రామ మంత్ర-హనుమాన మంత్ర, రామ మన్త్ర- హనుమాన మన్త్ర, രാമ മംത്ര-ഹനുമാന മംത്ര, രാമ മന്ത്ര- ഹനുമാന മന്ത്ര, ਰਾਮ ਮਂਤ੍ਰ-ਹਨੁਮਾਨ ਮਂਤ੍ਰ, ਰਾਮ ਮਨ੍ਤ੍ਰ- ਹਨੁਮਾਨ ਮਨ੍ਤ੍ਰ, রাম মংত্র-হনুমান মংত্র, রাম মন্ত্র- হনুমান মন্ত্র, ରାମ ମଂତ୍ର-ହନୁମାନ ମଂତ୍ର, ରାମ ମନ୍ତ୍ର- ହନୁମାନ ମନ୍ତ୍ର, Ram Mantra- Hanuman Mantra, Ram mantram,
राम एवं हनुमान मंत्र

राम गायत्री मंत्र:
ॐ दाशरथये विद्महे जानकी वल्लभाय धी महि॥
तन्नो रामः प्रचोदयात्॥

श्री राम मूल मंत्र:
ॐ ह्रां ह्रीं रां रामाय नमः॥

श्री राम तारक मंत्र:
ॐ जानकीकांत तारक रां रामाय नमः॥

राम मंत्र
रां रामय नमः।

फल: छः लाख मंत्र जप करने से यह मंत्र सिद्धि होता हैं और इस्से साधक की राम में भक्ति दृढ़ होती हैं।

भगवान राम का मंत्र:
ॐ रामाय नमः।
दशाक्षर राम मंत्र:
हुं जानकी वल्लभाय स्वाहा।

फल: यह मंत्र दस लाख जपने से सिद्ध होत हैं और यह मंत्र सभी प्रकार से साधक को सफलता एवं मोक्ष प्रदान करने में सहायक हैं।

हरे कृष्ण हरे कृष्ण, कृष्ण-कृष्ण हरे हरे।
हरे राम हरे राम, राम-राम हरे हरे।

इस मंत्र को नियमित स्नान इत्यादि से निवृत होकर स्वच्छ कपडे पहन कर 108 बार जाप करने से व्यक्ति को जीवन मे समस्त भौतिक सुखो एवं मोक्ष प्राप्ति होती हैं।

हनुमत् गायत्री मंत्र:
ॐ अंजनीजाय विद्महे वायुपुत्राय धी महि॥
तन्नो हनुमान प्रचोदयात्॥

श्री हनुमान मूल मंत्र:
ॐ ह्रां ह्रीं ह्रं ह्रैं ह्रौं ह्रः॥

द्वादशाक्षर हनुमान मंत्र:
हं हनुमते रुद्रात्मकाय हुं फट्।

फल: से इस मंत्र के बारे शास्त्रो में वर्णित हैं की यह मंत्र स्वतंत शिवजी ने श्रीकृष्ण को बताया और श्रीकृष्ण नें यह मंत्र अर्जुन को सिद्ध करवाया था जिस्से अर्जुन ने चर-अचर जगत् को जीत लिया था।

क्या श्राप के कारण मिला राम अवतार?

Ram Avatar curse was the reason?, Ram incarnation was due to curse?,

क्या श्राप के कारण मिला राम अवतार?

एक बार शिव जी कैलास पर्वत पर एक विशाल बरगद के वृक्ष के नीचे बाघ चर्म बिछाकर आनन्द पूर्वक बैठे थे। उचित अवसर जानकर माता पार्वती भी वहाँ आकर उनके पास बैठ गईं। पार्वती जी ने शिव जी से कहा, हे नाथ! पूर्व जन्म में मुझे एसा मोह हो गया था और मैंने श्री राम की परीक्षा ली थी। मेरा वह मोह अब समाप्त हो चुका है किन्तु मैं अभी भी भ्रमित हूँ कि यदि श्री राम राजपुत्र हैं तो ब्रह्म कैसे हो सकते हैं? आप कृपा करके मुझे श्री राम की कथा सुनाएँ और मेरे भ्रम को दूर करें।

पार्वती जी के प्रश्न से प्रसन्न होकर शिव जी बोले, हे पार्वती! श्री रामचन्द्र जी की कथा कामधेनु के समान सभी सुखों को प्रदान करने वाली हैं। अतः मैं उस कथा को, जिसे काकभुशुण्डि जी ने गरुड़ को सुनाया था, उस कथा को मैं तुम्हें सुनाता हूँ।

हे सुमुखि! जब-जब धर्म का ह्रास होता है और देवताओं, ब्राह्मणों पर अत्याचार करने वाले दुष्ट व नीच अभिमानी राक्षसों की वृद्धि हो जाती है तब-तब कृपा के सागर भगवान श्री विष्णु भाँति-भाँति के अवतार धारण कर सज्जनों की पीड़ा को हरते हैं। वे असुरों को मार कर देवताओं की सत्ता को स्थापित करते हैं।

भगवान श्री विष्णु का श्री रामचन्द्र जी के रुप में अवतार लेने का भी यही कारण हैं। उनकी कथा अत्यन्त विचित्र है। मैं उनके जन्मों की कहानी तुम्हें सुनाता हूँ। श्री हरि के जय और विजय नामक दो प्रिय द्वारपाल हैं। एक बार सनकादि ऋषियों ने उन्हें मृत्युलोक में चले जाने के लिये शाप दे दिया। शापवश उन्हें मृत्युलोक में तीन बार राक्षस के रूप में जन्म लेना पड़ा। पहली बार उनका जन्म हिरण्यकश्यपु और हिरण्याक्ष के रूप में हुआ। उन दोनों के अत्याचार बहुत अधिक बढ़ जाने के कारण श्री हरि ने वराह का शरीर धारण करके हिरण्याक्ष का वध किया और नरसिंह रूप धारण कर के हिरण्यकश्यपु को मारा।

उन्हीं दोनों ने रावण और कुम्भकर्ण के रूप में फिर से जन्म लिया और अत्यन्त पराक्रमी राक्षस बने। तब कश्यप मुनि और अदिति, जो के दशरथ और कौशल्या के रूप में अवतरित हुए थे, का पुत्र बनकर श्री हरि ने उनका वध किया।

एक कल्प में जलन्धर नामक दैत्य ने समस्त देवतागण को परास्त कर दिया तब शिव जी ने जलन्धर से युद्ध किया। उस दैत्य की स्त्री परम पतिव्रता थी अतः शिव जी भी उस दैत्य से नहीं जीत सके।

तब श्री विष्णु ने छलपूर्वक उस स्त्री का व्रत भंग कर देवताओं का कार्य किया। तब उस स्त्री ने श्री विष्णु को मनुष्य देह धारण करने का शाप दिया था।

श्री विष्णु के श्री राम के रूप में अवतरित होने का एक कारण यह भी था। वही जलन्धर दैत्य अगले जन्म में रावण के रुप में अवतरित हुआ जिसे श्री राम ने युद्ध में मार कर परमपद प्रदान किया।

अन्य एक कथा के अनुसार एक बार नारद ने श्री विष्णु को मनुष्यदेह धारण करने का शाप दिया था जिसके कारण श्री राम का अवतार हुआ।”

मंत्र जप क्या हैं?

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मंत्र जप क्या हैं?

राम चरित मानस के अनुशार:
कलियुग केवल नाम आधारा, जपत नर उतरे सिंधु पारा।
इस कलयुग में भगवान का नाम ही एक मात्र आधार हैं। जो लोग भगवान के नाम का जप करते हैं, वे इस संसार सागर से तर जाते हैं।

जप अर्थात क्या हैं?
ज+प= जप
ज = जन्म का नाश,
प = पापों का नाश।

जन्मों जन्म के पापो का जो नाश करता हैं उसे जप कहते हैं।
उसे जप कहते हैं, जो पापों का नाश करके जन्म-मरण करके चक्कर से छुड़ा दे ।
जप परमात्मा के साथ सीधा संबंध जोड़ने की एक कला का नाम हैं ।
इसीलिए कहा जाता हैः
अधिकम् जपं अधिकं फलम्।

तुलसीदास जी ने मंत्र जप की महिमा में कहा हैं।
मंत्रजाप मम दृढ़ बिस्वासा।
पंचम भजन सो वेद प्रकासा।।
(श्रीरामचरित. अर. कां. 35-1)

मंत्र का अर्थ ही हैः
मननात् त्रायते इति मंत्रः।
अर्थात: जिसका मनन करने से जो त्राण करे, रक्षा करे उसे मंत्र कहते हैं।

राम नाम की महिमा

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राम नाम की महिमा

एक कथा के अनुशार:
एक संत महात्मा श्यामदासजी रात्रि के समय में 'श्रीराम' नाम का अजपाजाप करते हुए अपनी मस्ती में चले जा रहे थे। जाप करते हुए वे एक गहन जंगल से गुजर रहे थे।

विरक्त होने के कारण वे महात्मा बार-बार देशाटन करते रहते थे। वे किसी एक स्थान में अधिक समय नहीं रहते थे। वे इश्वर नाम प्रेमी थे। इस लिये दिन-रात उनके मुख से राम नाम जप चलता रहता था। स्वयं राम नाम का अजपाजाप करते तथा औरों को भी उसी मार्ग पर चलाते।

श्यामदासजी गहन जंगल में मार्ग भूल गये थे पर अपनी मस्ती में चले जा रहे थे कि जहाँ राम ले चले वहाँ....। दूर अँधेरे के बिच में बहुत सी दीपमालाएँ प्रकाशित थीं। महात्मा जी उसी दिशा की ओर चलने लगे।

निकट पहुँचते ही देखा कि वटवृक्ष के पास अनेक प्रकार के वाद्ययंत्र बज रहे हैं, नाच -गान और शराब की महफिल जमी है। कई स्त्री पुरुष साथ में नाचते-कूदते-हँसते तथा औरों को हँसा रहे हैं। उन्हें महसूस हुआ कि वे मनुष्य नहीं प्रेतात्मा हैं। श्यामदासजी को देखकर एक प्रेत ने उनका हाथ पकड़कर कहाः ओ मनुष्य ! हमारे राजा तुझे बुलाते हैं, चल। वे मस्तभाव से राजा के पास गये जो सिंहासन पर बैठा था। वहाँ राजा के इर्द-गिर्द कुछ प्रेत खड़े थे। प्रेतराज ने कहाः तुम इस ओर क्यों आये? हमारी मंडली आज मदमस्त हुई है, इस बात का तुमने विचार नहीं किया? तुम्हें मौत का डर नहीं है?

अट्टहास करते हुए महात्मा श्यामदासजी बोलेः मौत का डर? और मुझे? राजन् ! जिसे जीने का मोह हो उसे मौत का डर होता हैं। हम साधु लोग तो मौत को आनंद का विषय मानते हैं। यह तो देहपरिवर्तन हैं जो प्रारब्धकर्म के बिना किसी से हो नहीं सकता।
प्रेतराजः तुम जानते हो हम कौन हैं?

महात्माजीः मैं अनुमान करता हूँ कि आप प्रेतात्मा हो।
प्रेतराजः तुम जानते हो, लोग समाज हमारे नाम से काँपता हैं।
महात्माजीः प्रेतराज ! मुझे मनुष्य में गिनने की गलती मत करना। हम जिंदा दिखते हुए भी जीने की इच्छा से रहित, मृततुल्य हैं। यदि जिंदा मानों तो भी आप हमें मार नहीं सकते। जीवन-मरण कर्माधीन हैं। मैं एक प्रश्न पूछ सकता हूँ?

महात्मा की निर्भयता देखकर प्रेतों के राजा को आश्चर्य हुआ कि प्रेत का नाम सुनते ही मर जाने वाले मनुष्यों में एक इतनी निर्भयता से बात कर रहा हैं। सचमुच, ऐसे मनुष्य से बात करने में कोई हरकत नहीं। प्रेतराज बोलाः पूछो, क्या प्रश्न है?
महात्माजीः प्रेतराज ! आज यहाँ आनंदोत्सव क्यों मनाया जा रहा है?

प्रेतराजः मेरी इकलौती कन्या, योग्य पति न मिलने के कारण अब तक कुआँरी हैं। लेकिन अब योग्य जमाई मिलने की संभावना हैं। कल उसकी शादी हैं इसलिए यह उत्सव मनाया जा रहा हैं।
महात्मा ने हँसते हुए कहाः तुम्हारा जमाई कहाँ हैं? मैं उसे देखना चाहता हूँ।"

प्रेतराजः जीने की इच्छा के मोह के त्याग करने वाले महात्मा ! अभी तो वह हमारे पद (प्रेतयोनी) को प्राप्त नहीं हुआ हैं।
वह इस जंगल के किनारे एक गाँव के श्रीमंत (धनवान) का पुत्र हैं। महादुराचारी होने के कारण वह इसवक्त भयानक रोग से पीड़ित हैं।

कल संध्या के पहले उसकी मौत होगी। फिर उसकी शादी मेरी कन्या से होगी। इस लिये रात भर गीत-नृत्य और मद्यपान करके हम आनंदोत्सव मनायेंगे।
श्यामदासजी वहाँ से विदा होकर श्रीराम नाम का अजपाजाप करते हुए जंगल के किनारे के गाँव में पहुँचे। उस समय सुबह हो चुकी थी।

एक ग्रामीण से महात्मा नें पूछाः इस गाँव में कोई श्रीमान् का बेटा बीमार हैं?
ग्रामीणः हाँ, महाराज ! नवलशा सेठ का बेटा सांकलचंद एक वर्ष से रोगग्रस्त हैं। बहुत उपचार किये पर उसका रोग ठीक नहीं होता।
महात्माः क्या वे जैन धर्म पालते हैं?
ग्रामीणः उनके पूर्वज जैन थे किंतु भाटिया के साथ व्यापार करते हुए अब वे वैष्णव हुए हैं।
महात्मा नवलशा सेठ के घर पहुंचे सांकलचंद की हालत गंभीर थी। अन्तिम घड़ियाँ थीं फिर भी महात्मा को देखकर माता-पिता को आशा की किरण दिखी। उन्होंने महात्मा का स्वागत किया। सेठपुत्र के पलंग के निकट आकर महात्मा रामनाम की माला जपने लगे। दोपहर होते-होते लोगों का आना-जाना बढ़ने लगा। महात्मा ने पूछाः क्यों, सांकलचंद ! अब तो ठीक हो?

सांकलचंद ने आँखें खोलते ही अपने सामने एक प्रतापी संत को देखा तो रो पड़ा। बोलाः बापजी ! आप मेरा अंत सुधारने के लिए पधारे हो। मैंने बहुत पाप किये हैं। भगवान के दरबार में क्या मुँह दिखाऊँगा? फिर भी आप जैसे संत के दर्शन हुए हैं, यह मेरे लिए शुभ संकेत हैं। इतना बोलते ही उसकी साँस फूलने लगी, वह खाँसने लगा।

बेटा ! निराश न हो भगवान राम पतित पावन है। तेरी यह अन्तिम घड़ी हैं। अब काल से डरने का कोई कारण नहीं। खूब शांति से चित्तवृत्ति के तमाम वेग को रोककर श्रीराम नाम के जप में मन को लगा दे। अजपाजाप में लग जा।

शास्त्र कहते हैं-
चरितम् रघुनाथस्य शतकोटिम् प्रविस्तरम्।
एकैकम् अक्षरम् पूण्या महापातक नाशनम्।।

अर्थातः सौ करोड़ शब्दों में भगवान राम के गुण गाये गये हैं। उसका एक-एक अक्षर ब्रह्महत्या आदि महापापों का नाश करने में समर्थ हैं।

दिन ढलते ही सांकलचंद की बीमारी बढ़ने लगी। वैद्य-हकीम बुलाये गये। हीरा भस्म आदि कीमती औषधियाँ दी गयीं। किंतु अंतिम समय आ गया यह जानकर महात्माजी ने थोड़ा नीचे झुककर उसके कान में रामनाम लेने की याद दिलायी। राम बोलते ही उसके प्राण पखेरू उड़ गये। लोगों ने रोना शुरु कर दिया। श्मशान यात्रा की तैयारियाँ होने लगीं। मौका पाकर महात्माजी वहाँ से चल दिये।

नदी तट पर आकर स्नान करके नामस्मरण करते हुए वहाँ से रवाना हुए। शाम ढल चुकी थी। फिर वे मध्यरात्रि के समय जंगल में उसी वटवृक्ष के पास पहुँचे। प्रेत समाज उपस्थित था। प्रेतराज सिंहासन पर हताश होकर बैठे थे। आज गीत, नृत्य, हास्य कुछ न था। चारों ओर करुण आक्रंद हो रहा था, सब प्रेत रो रहे थे। हास्य कुछ न था। चारों ओर करुण आक्रंद हो रहा था, सब प्रेत रो रहे थे।

महात्मा ने पूछाः प्रेतराज ! कल तो यहाँ आनंदोत्सव था, आज शोक-समुद्र लहरा रहा हैं। क्या कुछ अहित हुआ हैं?
प्रेतराजः हाँ भाई ! इसीलिए रो रहे हैं। हमारा सत्यानाश हो गया। मेरी बेटी की आज शादी होने वाली थी। अब वह कुँआरी रह जायेगी
महात्मा ने पूछाः प्रेतराज ! तुम्हारा जमाई तो आज मर गया हैं। फिर तुम्हारी बेटी कुँआरी क्यों रही?
प्रेतराज ने चिढ़कर कहाः तेरे पाप से। मैं ही मूर्ख हूँ कि मैंने कल तुझे सब बता दिया। तूने हमारा सत्यानाश कर दिया।

महात्मा ने नम्रभाव से कहाः मैंने आपका अहित किया यह मुझे समझ में नहीं आता। क्षमा करना, मुझे मेरी भूल बताओगे तो मैं दुबारा नहीं करूँगा।
प्रेतराज ने जलते हृदय से कहाः यहाँ से जाकर तूने मरने वाले को नाम स्मरण का मार्ग बताया और अंत समय भी राम नाम कहलवाया। इससे उसका उद्धार हो गया और मेरी बेटी कुँआरी रह गयी।

महात्माजीः क्या? सिर्फ एक बार नाम जप लेने से वह प्रेतयोनि से छूट गया? आप सच कहते हो?
प्रेतराजः हाँ भाई ! जो मनुष्य राम नामजप करता हैं वह राम नामजप के प्रताप से कभी हमारी योनि को प्राप्त नहीं होता। भगवन्नाम जप में नरकोद्धारिणी शक्ति हैं। प्रेत के द्वारा रामनाम का यह प्रताप सुनकर महात्माजी प्रेमाश्रु बहाते हुए भाव समाधि में लीन हो गये। उनकी आँखे खुलीं तब वहाँ प्रेत-समाज नहीं था, बाल सूर्य की सुनहरी किरणें वटवृक्ष को शोभायमान कर रही थीं।

कबीर पुत्र कमाल की एक कथा हैं।
एक बार राम नाम के प्रभाव से कमाल द्वारा एक कोढ़ी का कोढ़ दूर हो गया। कमाल समझते हैं कि रामनाम की महिमा मैं जान गया हूँ। कमाल के इस कार्य से किंतु कबीर जी प्रसन्न नहीं हुए। कबीरजी ने कमाल को तुलसीदास जी के पास भेजा।

तुलसीदासजी ने तुलसी के पत्र पर रामनाम लिखकर वह तुलसी पत्र जल में डाला और उस जल से 500 कोढ़ियों को ठीक कर दिया।

कमान समझ ने लगा कि तुलसीपत्र पर एक बार रामनाम लिखकर उसके जल से 500 कोढ़ियों को ठीक किया जा सकता है, रामनाम की इतनी महिमा हैं। किंतु कबीर जी इससे भी संतुष्ट नहीं हुए और उन्होंने कमाल को भेजा संत सूरदास जी के पास।

संत सूरदास जी ने गंगा में बहते हुए एक शव के कान में राम शब्द का केवल र कार कहा और शव जीवित हो गया। तब कमाल ने सोचा कि राम शब्द के र कार से मुर्दा जीवित हो सकता हैं। यह राम शब्द की महिमा हैं।

तब कबीर जी ने कहाः यह भी नहीं। इतनी सी महिमा नहीं है राम शब्द की।

भृकुटि विलास सृष्टि लय होई।

जिसके भृकुटि विलास मात्र से प्रलय हो सकता है, उसके नाम की महिमा का वर्णन तुम क्या कर सकोगे?

राम नाम महिमा में एक अन्य कथा:
समुद्रतट पर एक व्यक्ति चिंतातुर बैठा था, इतने में उधर से विभीषण निकले। उन्होंने उस चिंतातुर व्यक्ति से पूछाः क्यों भाई ! तुम किस बात की चिंता में पड़े हो?

मुझे समुद्र के उस पार जाना हैं परंतु मेरें पास समुद्र पार करने का कोई साधन नहीं हैं। अब क्या करूँ मुझे इस बात की चिंता हैं। अरे भाई, इसमें इतने अधिक उदास क्यों होते हो?

ऐसा कहकर विभीषण ने एक पत्ते पर एक नाम लिखा तथा उसकी धोती के पल्लू से बाँधते हुए कहाः इसमें मेनें तारक मंत्र बाँधा हैं। तू इश्वर पर श्रद्धा रखकर तनिक भी घबराये बिना पानी पर चलते आना। अवश्य पार लग जायेगा।

विभीषण के वचनों पर विश्वास रखकर वह व्यक्ति समुद्र की ओर आगे बढ़ने लगा। वहं व्यक्ति सागर के सीने पर नाचता-नाचता पानी पर चलने लगा। वह व्यक्ति जब समुद्र के बीचमें आया तब उसके मन में संदेह हुआ कि विभीषण ने ऐसा कौन सा तारक मंत्र लिखकर मेरे पल्लू से बाँधा हैं कि मैं समुद्र पर सरलता से चल सकता हूँ। इस मुझे जरा देखना चाहिए।

उस व्यक्ति ने अपने पल्लू में बँधा हुआ पत्ता खोला और पढ़ा तो उस पर दो अक्षर में केवल राम नाम लिखा हुआ था। राम नाम पढ़ते ही उसकी श्रद्धा तुरंत ही अश्रद्धा में बदल गयीः अरे ! यह कोई तारक मंत्र हैं ! यह तो सबसे सीधा सादा राम नाम हैं ! मन में इस प्रकार की अश्रद्धा उपजते ही वह व्यक्ति डूब कर मरगया।

कथा सार: इस लिये विद्वानो ने कहां हैं श्रद्धा और विश्वास के मार्ग में संदेह नहीं करना चाहिए क्योकि अविश्वास एवं अश्रद्धा ऐसी विकट परिस्थितियाँ निर्मित हो जाती हैं कि मंत्र जप से काफी ऊँचाई तक पहुँचा हुआ साधक भी विवेक के अभाव में संदेहरूपी षड्यंत्र का शिकार होकर अपना अति सरलता से पतन कर बैठता हैं। इस लिये साधारण मनुष्य को तो संदेह की आँच ही गिराने के लिए पर्याप्त हैं। हजारों-लाखों-करोडों मंत्रो की साधना जन्मों-जन्म की साधना अपने सदगुरु पर संदेह करने मात्र से नष्ट हो जाती है।

तुलसीदास जी कहते हैं-
राम ब्रह्म परमारथ रूपा।

अर्थात्: ब्रह्म ने ही परमार्थ के लिए राम रूप धारण किया था।

रामनाम की औषधि खरी नियत से खाय।
अंगरोग व्यापे नहीं महारोग मिट जाय।।