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शुक्रवार, जुलाई 15, 2011

आरुणि की गुरुभक्ति

गुरु प्रार्थना (गुरु पुर्णिमा, Guru Purnima-2011), 15-July -2011,  15-जूलाई-2011
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आरुणि की गुरुभक्ति
गुरुमंत्रगुरुमन्त्रગુરુમંત્રગુરુમન્ત્રಗುರುಮಂತ್ರಗುರುಮನ್ತ್ರகுருமம்த்ர, ருமந்த்ரగురుమంత్రగురుమన్త్రഗുരുമംത്രഗുരുമന്ത്രਗੁਰੁਮਂਤ੍ਰਗੁਰੁਮਨ੍ਤ੍ਰগুরুমংত্রগুরুমন্ত্রଗୁରୁମଂତ୍ରଗୁରୁମନ୍ତ୍ରgurumanra, gurumantra,
लेख साभार: गुरुत्व ज्योतिष पत्रिका (जुलाई-2011)

पौराणिक कथा के अनुशार महर्षि आयोदधौम्य के आश्रम में बहुत से शिष्य थे। सभी शिष्य गुरुदेव महर्षि आयोदधौम्य की बड़े प्रेम से सेवा करते थे। एक दिन संध्या के समय वर्षा होने लगी। मौसम को देखते हुएं अंदाजा लगना मुश्किल था की अगले कुछ समय तक वर्षा होगी या नहीं, इसका कुछ ठीक-ठिकाना नहीं था। वर्षा बहुत जोरसे हो रही थी। महर्षिने सोचा कि कहीं अपने धान के खेत की मेड़ अधिक पानी भरने से टूट जायगी तो खेतमें से सब पानी बह जायगा। पीछे फिर वर्षा न हो तो धान बिना पानी के सूख जायेगा। हर्षिने आरुणि से कहा—‘बेटा आरुणि ! तुम खेत पर जाकर देखो, की कही मेड़ टूटनेसे खेत का पानी बह न जाय।
आरुणि अपने गुरुदेव की आज्ञा पाकर वर्षा में भीगते हुए खेतपर चले गये। वहाँ जाकर उन्हेंने देखा कि खेतकी मेड़ एक स्थान पर टूट गयी है और वहाँ से बड़े जोरसे पानी बाहर निकल रहा है। आरुणि ने टूटे हुए स्थान पर मिट्टी रखकर मेड़ बाँधना चाहा। पानी वेग से निकल रहा था और वर्षा से मिट्टी भी गीली हो गयी थी, इस लिये आरुणि जितनी मिट्टी मेड़ बाँधने के लिये रखते थे, उसे पानी बहा ले जाता था। बहुत देर परिश्रम करके भी जब आरुणि मेड़ न बाँध सके तो वे उस टूटी मेड़के पास स्वयं लेट गये। उनके शरीरसे पानीका बहाव रुक गया।
उस दिन पूरी रात आरुणि पानीभरे खेतमें मेड़से सटे पड़े रहे। सर्दी से उनका सारा शरीर भी अकड़ गया, लेकिन गुरुदेव के खेतका पानी बहने न पाये, इस विचार से वे न तो तनिक भी हिले और न उन्होंने करवट बदली। इस कारण आरुणि के शरीरमें भयंकर पीड़ा होते रहने पर भी वे चुपचाप पड़े रहे। सबेरा होने पर पूजा और हवन करके सब शिष्य गुरुदेव को प्रणाम करते थे। महर्षि आयोदधौम्यने देखा कि आज सबेरे आरुणि प्रणाम करने नहीं आया।
महर्षिने दूसरे विद्यार्थियोंसे पूछा:‘आरुणि कहाँ है?’
विद्यार्थियों ने कहा: कल शामको आपने आरुणि को खेतकी मेड़ बाँधनेको भेजा था, तबसे वह लौटकर नहीं आया।
महर्षि उसी समय दूसरे विद्यर्थियों को साथ लेकर आरुणि को ढूँढ़ने निकल पड़े। महर्षि ने खेत पर जाकर आरुणि को पुकारा। आरुणि से ठण्ड के मारे बोला तक नहीं जाता था। उन्होंने किसी प्रकार अपने गुरुदेवकी को उत्तर दिया। महर्षि ने वहाँ पहुँच कर अपने आज्ञाकारी शिष्यको उठाकर हृदय से लगा लिया, आशीर्वाद दिया:‘पुत्र आरुणि ! तुम्हें सब विद्याएँ अपने-आप ही आ जायँ।अपने गुरुदेव के आशीर्वाद से आरुणि बड़े भारी विद्वान हो गए।

गुरुमंत्र के जप से अलौकिक सिद्धिया प्राप्त होती हैं

गुरु प्रार्थना (गुरु पुर्णिमा, Guru Purnima-2011), 15-July -2011,  15-जूलाई-2011
guru poornima-2011, guru purnima-2011, shravan mas-2011, srawan masha, गुरु पुर्णिमागुरु पूर्णीमा,  गुरु पूर्णीमाचातुर्मास व्रत-नियम प्रारंभगुरु पूर्णिमाव्यास पूर्णिमास्नान-दान हेतु उत्तम आषाढ़ी पूर्णिमामुड़िया पूनम-गोवर्धन परिक्रमा (ब्रज)संन्यासियों का चातुर्मास प्रारंभગુરુ પુર્ણિમા, ગુરુ પૂર્ણીમા,  ગુરુ પૂર્ણીમા, ચાતુર્માસ વ્રત-નિયમ પ્રારંભ, ગુરુ પૂર્ણિમા, વ્યાસ પૂર્ણિમા, સ્નાન-દાન હેતુ ઉત્તમ આષાઢ઼્ઈ પૂર્ણિમા, મુડ઼્ઇયા પૂનમ-ગોવર્ધન પરિક્રમા (બ્રજ), સંન્યાસિયોં કા ચાતુર્માસ પ્રારંભ, ಗುರು ಪುರ್ಣಿಮಾ, ಗುರು ಪೂರ್ಣೀಮಾ,  ಗುರು ಪೂರ್ಣೀಮಾ, ಚಾತುರ್ಮಾಸ ವ್ರತ-ನಿಯಮ ಪ್ರಾರಂಭ, ಗುರು ಪೂರ್ಣಿಮಾ, ವ್ಯಾಸ ಪೂರ್ಣಿಮಾ, ಸ್ನಾನ-ದಾನ ಹೇತು ಉತ್ತಮ ಆಷಾಢ಼್ಈ ಪೂರ್ಣಿಮಾ, ಮುಡ಼್ಇಯಾ ಪೂನಮ-ಗೋವರ್ಧನ ಪರಿಕ್ರಮಾ (ಬ್ರಜ), ಸಂನ್ಯಾಸಿಯೋಂ ಕಾ ಚಾತುರ್ಮಾಸ ಪ್ರಾರಂಭ, குரு புர்ணிமா, குரு பூர்ணீமா,  குரு பூர்ணீமா, சாதுர்மாஸ வ்ரத-நியம ப்ராரம்ப, குரு பூர்ணிமா, வ்யாஸ பூர்ணிமா, ஸ்நாந-தாந ஹேது உத்தம ஆஷாடீ பூர்ணிமா, முடியா பூநம-கோவர்தந பரிக்ரமா (ப்ரஜ), ஸம்ந்யாஸியோம் கா சாதுர்மாஸ ப்ராரம்ப, గురు పుర్ణిమా, గురు పూర్ణీమా,  గురు పూర్ణీమా, చాతుర్మాస వ్రత-నియమ ప్రారంభ, గురు పూర్ణిమా, వ్యాస పూర్ణిమా, స్నాన-దాన హేతు ఉత్తమ ఆషాఢీ పూర్ణిమా, ముడియా పూనమ-గోవర్ధన పరిక్రమా (బ్రజ), సంన్యాసియోం కా చాతుర్మాస ప్రారంభ, ഗുരു പുര്ണിമാ, ഗുരു പൂര്ണീമാ,  ഗുരു പൂര്ണീമാ, ചാതുര്മാസ വ്രത-നിയമ പ്രാരംഭ, ഗുരു പൂര്ണിമാ, വ്യാസ പൂര്ണിമാ, സ്നാന-ദാന ഹേതു ഉത്തമ ആഷാഢീ പൂര്ണിമാ, മുഡിയാ പൂനമ-ഗോവര്ധന പരിക്രമാ (ബ്രജ), സംന്യാസിയോം കാ ചാതുര്മാസ പ്രാരംഭ, ਗੁਰੁ ਪੁਰ੍ਣਿਮਾ, ਗੁਰੁ ਪੂਰ੍ਣੀਮਾ,  ਗੁਰੁ ਪੂਰ੍ਣੀਮਾ, ਚਾਤੁਰ੍ਮਾਸ ਵ੍ਰਤ-ਨਿਯਮ ਪ੍ਰਾਰਂਭ, ਗੁਰੁ ਪੂਰ੍ਣਿਮਾ, ਵ੍ਯਾਸ ਪੂਰ੍ਣਿਮਾ, ਸ੍ਨਾਨ-ਦਾਨ ਹੇਤੁ ਉੱਤਮ ਆਸ਼ਾਢ਼੍ਈ ਪੂਰ੍ਣਿਮਾ, ਮੁਡ਼੍ਇਯਾ ਪੂਨਮ-ਗੋਵਰ੍ਧਨ ਪਰਿਕ੍ਰਮਾ (ਬ੍ਰਜ), ਸਂਨ੍ਯਾਸਿਯੋਂ ਕਾ ਚਾਤੁਰ੍ਮਾਸ ਪ੍ਰਾਰਂਭ,  রু পুর্ণিমা, গুরু পূর্ণীমা,  গুরু পূর্ণীমা, চাতুর্মাস ৱ্রত-নিযম প্রারংভ, গুরু পূর্ণিমা, ৱ্যাস পূর্ণিমা, স্নান-দান হেতু উত্তম আষাঢ়ী পূর্ণিমা, মুড়িযা পূনম-গোৱর্ধন পরিক্রমা (ব্রজ), সংন্যাসিযোং কা চাতুর্মাস প্রারংভ, ଗୁରୁ ପୁର୍ଣିମା, ଗୁରୁ ପୂର୍ଣୀମା,  ଗୁରୁ ପୂର୍ଣୀମା, ଚାତୁର୍ମାସ ବ୍ରତ-ନିଯମ ପ୍ରାରଂଭ, ଗୁରୁ ପୂର୍ଣିମା, ବ୍ଯାସ ପୂର୍ଣିମା, ସ୍ନାନ-ଦାନ ହେତୁ ଉତ୍ତମ ଆଷାଢ଼ୀ ପୂର୍ଣିମା, ମୁଡ଼ିଯା ପୂନମ-ଗୋବର୍ଧନ ପରିକ୍ରମା (ବ୍ରଜ), ସଂନ୍ଯାସିଯୋଂ କା ଚାତୁର୍ମାସ ପ୍ରାରଂଭ, ଗୁରୁ ପୁର୍ଣିମା, ଗୁରୁ ପୂର୍ଣୀମା,  ଗୁରୁ ପୂର୍ଣୀମା, ବ୍ଯାସ ପୂର୍ଣିମା, guru purnima, guru purnima,  guru purnima, chaturmasa vrata-niyama prarambha, guru purnima, vyasa purnima, snana-dana hetu uttama Ashadhi purnima, mudiya punama-govardhana parikrama (braja), sanyasiyon ka chaturmasa prambha, guru purnima, guru purnima,
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लेख साभार: गुरुत्व ज्योतिष पत्रिका (जुलाई-2011)
कौंडिण्यपुर में शशांगर नाम के राजा राज्य करते थे। वे प्रजापालक थे। उनकी रानी मंदाकिनी भी पतिव्रता, धर्मपरायण थी। लेकिन संतान न होने के कारण दोनों दुःखी रहते थे। उन्होंने रामेश्वर जाकर संतान प्राप्ति के लिए शिवजी की पूजा, तपस्या का विचार किया। पत्नी को लेकर राजा रामेश्वर की ओर चल पड़े। मार्ग में कृष्णा-तुंगभद्रा नदी के संगम-स्थल पर दोनों ने स्नान किया और वहीं निवास करते हुए वे शिवजी की आराधना करने लगे।
एक दिन स्नान करके दोनों लौट रहे थे कि राजा को मित्रि सरोवर में एक शिवलिंग दिखाई पड़ा। उन्होंने वह शिवलिंग उठा लिया और अत्यंत श्रद्धा से उसकी प्राण-प्रतिष्ठा की। राजा रानी पूर्ण निष्ठा से शिवजी की पूजा-अर्चना करने लगे। संगम में स्नान करके शिवलिंग की पूजा करना उनका नित्यक्रम बन गया।
एक दिन कृष्णा नदी में स्नान करके राजा सूर्यदेवता को अर्घ्य देने के लिए अंजलि में जल ले रहे थे, तभी उन्हें एक शिशु दिखाई दिया। उन्हें आसपास दूर-दूर तक कोई नजर नहीं आया। तब राजा ने सोचा कि 'जरूर भगवान शिवजी की कृपा से ही मुझे इस शिशु की प्राप्ति हुई है !' वे अत्यंत हर्षित हुए और अपनी पत्नी के पास जाकर उसको सब वृत्तांत सुनाया।
वह बालक गोद में रखते ही मंदाकिनी के आचल से दूध की धारा बहने लगी। रानी मंदाकिनी बालक को स्तनपान कराने लगी। धीरे-धीरे बालक बड़ा होने लगा। वह बालक कृष्णा नदी के संगम-स्थान पर प्राप्त होने के कारण उसका नाम 'कृष्णागर' रखा गया।
राजा-रानी कृष्णागर को लेकर अपनी राजधानी कौंडिण्युपर में वापस लौट आये। ऐसे अलौकिक बालक को देखने के लिए सभी राज्यवासी राजभवन में आये। बड़े उत्साह के साथ समारोहपूर्वक उत्सव मनाया गया।
जब कृष्णागर 17 वर्ष का युवक हुआ तब राजा ने अपने मंत्रियों को कृष्णागर के लिए उत्तम कन्या ढूँढने की आज्ञा दी। परंतु कृष्णागर के योग्य कन्या उन्हें कहीं भी न मिली। उसके बाद कुछ ही दिनों में रानी मंदाकिनी की मृत्यु हो गयी। अपनी प्रिय रानी के मर जाने का राजा को बहुत दुःख हुआ। उन्होंने वर्षभर श्राद्धादि सभी कार्य पूरे किये और अपनी मदन-पीड़ा के कारण चित्रकूट के राजा भुजध्वज की नवयौवना कन्या भुजावंती के साथ दूसरा विवाह किया। उस समय भुजावंती की उम्र 13 वर्ष की थी और राजा शशांगर का पुत्र कृष्णागर की उम्र 17 वर्ष की थी।
एक दिन राजा शिकार खेलने राजधानी से बाहर गये हुए थे। कृष्णागर महल के प्रांगण में खड़े होकर खेल रहा था। उसका शरीर अत्यंत सुंदर व आकर्षक होने के कारण भुजावंती उस पर आसक्त हो गयी। उसने एक दासी के द्वारा कृष्णागर को अपने पास बुलवाया और उसका हाथ पकड़कर कामेच्छा पूरण करने की माँग की।
तब कृष्णागर न कहाः "हे माते ! मैं तो आपका पुत्र हूँ और आप मेरी माता हैं। अतः आपको यह शोभा नहीं देता। आप माता होकर भी पुत्र से ऐसा पापकर्म करवाना चाहती हो !'
ऐसा कहकर गुस्से से कृष्णागर वहाँ से चला गया। कृष्णागर के वहां से चले जाने के बाद में भुजावंती को अपने पापकर्म पर पश्चाताप होने लगा। राजा को इस बात का पता चल जायेगा, इस भय के कारण वह आत्महत्या करने के लिए प्रेरित हुई। परंतु उसकी दासी ने उसे समझायाः 'राजा के आने के बाद तुम ही कृष्णागर के खिलाफ बोलना शुरु कर दो कि उसने मेरा सतीत्व लूटने की कोशिश की। यहाँ मेरे सतीत्व की रक्षा नहीं हो सकती। कृष्णागर बुरी नियत का है, अब आपको जो करना है सो करो, मेरी तो जीने की इच्छा नहीं।'
राजा के आने के बाद रानी ने सब वृत्तान्त इसी प्रकार राजा को बताया जिस प्रकार से दासी ने बताया। राजा ने कृष्णागर की ऐसी हरकत सुनकर क्रोध के आवेश में अपने मंत्रियों को उसके हाथ-पैर तोड़ने की आज्ञा दे दी।  
आज्ञानुसार वे कृष्णागर को ले गये। परंतु राजसेवकों को लगा कि राजा ने आवेश में आकर आज्ञा दी है। कहीं अनर्थ न हो जाय ! इसलिए कुछ सेवक पुनः राजा के पास आये। राजा का मन परिवर्तन करने की अभिलाषा से वापस आये हुए कुछ राजसेवक और अन्य नगर निवासी अपनी आज्ञा वापस लेने के राजा से अनुनय-विनय करने लगे। परंतु राजा का आवेश शांत नहीं हुआ और फिर से वही आज्ञा दी।
फिर राजसेवक कृष्णागर को चौराहे पर ले आये। सोने के चौरंग (चौकी) पर बिठाया और उसके हाथ पैर बाँध दिये। यह दृश्य देखकर नगरवासियों की आँखों मे दयावश आँसू बह रहे थे। आखिर सेवकों ने आज्ञाधीन होकर कृष्णागर के हाथ-पैर तोड़ दिये। कृष्णागर वहीं चौराहे पर पड़ा रहा।
कुछ समय बाद दैवयोग से नाथ पंथ के योगी मछेंद्रनाथ अपने शिष्य गोरखनाथ के साथ उसी राज्य में आये। वहाँ लोगों के द्वारा कृष्णागर के विषय में चर्चा सुनी। परंतु ध्यान करके उन्होंने वास्तविक रहस्य का पता लगाया। दोनों ने कृष्णागर को चौरंग पर देखा,  इसलिए उसका नाम 'चौरंगीनाथ' रख दिया। फिर राजा से स्वीकृति लेकर चौरंगीनाथ को गोद में उठा लिया और बदरिकाश्रम गये। मछेन्द्रनाथ ने गोरखनाथ से कहाः "तुम चौरंगी को नाथ पंथ की दीक्षा दो और सर्व विद्याओं में इसे पारंगत करके इसके द्वारा राजा को योग सामर्थ्य दिखाकर रानी को दंड दिलवाओ।"
गोरखनाथ ने कहाः "पहले मैं चौरंगी का तप सामर्थ्य देखूँगा।" गोरखनाथ के इस विचार को मछेंद्रनाथ ने स्वीकृति दी।
चौरंगीनाथ को पर्वत की गुफा में बिठाकर गोरखनाथ ने कहाः 'तुम्हारे मस्तक के ऊपर जो शिला है, उस पर दृष्टि टिकाये रखना और मैं जो मंत्र देता हूँ उसी का जप चालू रखना। अगर दृष्टि वहाँ से हटी तो शिला तुम पर गिर जायेगी और तुम्हारी मृत्यु हो जायेगी। इसलिए शिला पर ही दृष्टि टिका कर रखना।' ऐसा कहकर गोरखनाथ ने उसे मंत्रोपदेश दिया और गुफा का द्वार इस तरह से बंद किया कि अंदर कोई वन्य पशु प्रवेश न कर सके। फिर अपने योगबल से चामुण्डा देवी को प्रकट करके आज्ञा दी कि इसके लिए रोज फल लाकर रखना ताकि ……………..>>
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