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बुधवार, मार्च 03, 2010

अर्गलास्तोत्रम्

Algarlastotram, durga saptshati, durga shaptashatee, arglasottram

अथ श्री अर्गलास्तोत्रम्
अस्य श्रीअर्गलास्तोत्रमन्त्रस्य विष्णुर्ऋषि:, अनुष्टुप् छन्द:, श्रीमहालक्ष्मीर्देवता,
श्री जगदम्बाप्रितये सप्तशतीपाठाङ्गत्वेन जपे विनियोग:॥
नमश्चण्डिकायै॥ मार्कण्डेय उवाच
जयन्ती मङ्गला काली भद्रकाली कपालिनी।
दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोऽस्तु ते॥१॥

जय त्वं देवि चामुण्डे जय भूतार्तिहारिणि।
जय सर्वगते देवि कालरात्रि नमोऽस्तु ते॥२॥

मधुकैटभविद्राविविधातृवरदे नम:।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥३॥

महिषासुरनिर्णाशि भक्तानां सुखदे नम:।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥४॥

रक्त बीजवधे देवि चण्डमुण्डविनाशिनि।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥५॥

शुम्भस्यैव निशुम्भस्य धूम्राक्षस्य च मर्दिनि।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥६॥

वन्दिताड्घ्रियुगे देवि सर्वसौभाग्यदायिनि।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥७॥

अचिन्त्यरूपचरिते सर्वशत्रुविनाशिनि।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥८॥

नतेभ्य: सर्वदा भक्त्या चण्डिके दुरितापहे।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥९॥

स्तुवद्भ्यो भक्ति पूर्व त्वां चण्डिके व्याधिनाशिनि।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥१०॥

चण्डिके सततं ये त्वामर्चयन्तीह भक्ति त:।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥११॥

देहि सौभाग्यमारोग्यं देहि मे परमं सुखम्।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥१२॥

विधेहि द्विषतां नाशं विधेहि बलमुच्चकै:।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥१३॥

विधेहि देवि कल्याणं विधेहि परमां श्रियम्।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥१४॥

सुरासुरशिरोरत्‍‌ननिघृष्टचरणेऽम्बिके।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥१५॥

विद्यावन्तं यशस्वन्तं लक्ष्मीवन्तं जनं कुरु।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥१६॥

प्रचण्डदैत्यदर्पघन्े चण्डिके प्रणताय मे।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥१७॥

चतुर्भुजे चतुर्वक्त्रसंस्तुते परमेश्वरि।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥१८॥

कृष्णेन संस्तुते देवि शश्वद्भक्त्या सदाम्बिके।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥१९॥

हिमाचलसुतानाथसंस्तुते परमेश्वरि।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥२०॥

इन्द्राणीपतिसद्भावपूजिते परमेश्वरि।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥२१॥

देवि प्रचण्डदोर्दण्डदैत्यदर्पविनाशिनि।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥२२॥

देवि भक्त जनोद्दामदत्तानन्दोदयेऽम्बिके।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥२३॥

पत्‍‌नीं मनोरमां देहि मनोवृत्तानुसारिणीम्।
तारिणीं दुर्गसंसारसागरस्य कुलोद्भवाम्॥२४॥

इदं स्तोत्रं पठित्वा तु महास्तोत्रं पठेन्नर:।
स तु सप्तशतीसंख्यावरमापनेति सम्पदाम्॥25॥

  • इस स्तोत्र का नियमितपाठ करने वाले व्यक्ति को धन-संपत्ति एवं वैभव कि प्राप्ति होती हैं।

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