Diwali me lakshmi Ganesh pooja, Dipawali or Ganesh lakshami pojan,
दीपावली में लक्ष्मी के साथ गणेश आराधना क्यों ?
भारतीय धार्मिक एवं संस्कृतिक मान्यता के अनुशार लक्ष्मीजी के साथ श्री विष्णु कि पूजा होनी चाहिए। किन्तुं दीपावली पूजन में मां लक्ष्मी के साथ गणेशजी कि पूजा क्यों कि जाती हैं।
धन कि देवी लक्ष्मी हैं जो धन, समृद्धि एवं ऐश्वर्य प्रदान करती हैं। लेकिन बिना बुद्धि के धन, समृद्धि एवं ऐश्वर्य व्यर्थ हैं। इसके पीछे मुख्य कारण हैं की भगवान श्री गणेश समस्त विघ्नों को टालने वाले हैं, दया एवं कृपा के महासागर हैं, एवं तीनो लोक के कल्याण हेतु भगवान गणपति सब प्रकार से योग्य हैं। समस्त विघ्न बाधाओं को दूर करने वाले गणेश विनायक हैं। अतः बुद्धि कि प्राप्ति के लिये बुद्धि और विवेक के अधिपति देवता गणेश का पूजन करने का विधान हैं। गणेशजी समस्त सिद्धियों को देने वाले देवता माना गया है। क्योकि समस्त सिद्धियाँ भगवान गणेश में वास करती हैं। इस लिये लक्ष्मी जी के साथ में श्री गणेश जी कि आराधना आवश्यक हैं।
ब्रह्मवैवर्तपुराण में उल्लेख हैं
भगवान् विष्णु ने स्वयं गणेश जी को वरदान दिया कि
सर्वाग्रे तव पूजा च मया दत्ता सुरोत्तम।
सर्वपूज्यश्च योगीन्द्रो भव वत्सेत्युवाच तम्।।
(गणपतिखं. 13। 2)
भावार्थ: ‘सुरश्रेष्ठ! मैंने सबसे पहले तुम्हारी पूजा कि है, अतः वत्स! तुम सर्वपूज्य तथा योगीन्द्र हो जाओ।’
ब्रह्मवैवर्त पुराण में ही एक अन्य प्रसंगान्तर्गत माता पार्वती ने गणेश महिमा का बखान करते हुए परशुराम से कहा –
त्वद्विधं लक्षकोटिं च हन्तुं शक्तो गणेश्वरः।
जितेन्द्रियाणां प्रवरो नहि हन्ति च मक्षिकाम्।।
तेजसा कृष्णतुल्योऽयं कृष्णांश्च गणेश्वरः।
देवाश्चान्ये कृष्णकलाः पूजास्य पुरतस्ततः।।
(ब्रह्मवैवर्तपु., गणपतिख., 44। 26-27)
भावार्थ: जितेन्द्रिय पुरूषों में श्रेष्ठ गणेश तुममें जैसे लाखों-करोड़ों जन्तुओं को मार डालने की शक्ति है; परन्तु तुमने मक्खी पर भी हाथ नहीं उठाया। श्रीकृष्ण के अंश से उत्पन्न हुआ वह गणेश तेज में श्रीकृष्ण के ही समान है। अन्य देवता श्रीकृष्ण की कलाएँ हैं। इसीसे इसकी अग्रपूजा होती है।
लिंगपुराण के अनुसार (105। 15-27)
शिव ने अपने पुत्र को आशीर्वाद दिया कि जो तुम्हारी पूजा किये बिना पूजा पाठ, अनुष्ठान इत्यादि शुभ कर्मों का अनुष्ठान करेगा, उसका मंगल भी अमंगल में परिणत हो जायेगा। जो लोग फल की कामना से ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्र अथवा अन्य देवताओं की भी पूजा करेंगे, किन्तु तुम्हारी पूजा नहीं करेंगे, उन्हें तुम विघ्नों द्वारा बाधा पहुँचाओगे।
इस सभी कारण से मां लक्ष्मी के साथ में गणेशजी का पूजन करने का विधान हैं। लक्ष्मी प्राप्ति के बाद में उसे स्थिर करने हेतु बुद्धि कि आवश्यकता होती हैं। लक्ष्मी के साथ गणेश के पूजन से संबंध में अनेकों कथाएं प्रचलित हैं। कुछ लोकप्रिय कथाएं यहा प्रस्तुत हैं।
शास्त्रोक्त कथा:
विष्णु धाम में भगवान विष्णु एवं माता लक्ष्मी विराजमान होकर आपस में वार्तालाप कर रहे थे, बात-बात में अहं के कारण लक्ष्मी जी बोल उठे कि मैं सभी लोक में सब से अधिक पूजनीय एवं सबसे श्रेष्ठ हुं। लक्ष्मी जी को इस प्रकार अपनी अहं से स्वयं कि प्रशंसा करते देख भगवान विष्णु जी को अच्छा नहीं लगा। उनका अहं दूर करने के लिए उन्होंने कहा तुम सर्व संपन होते हुए भी आज तक माँ का सुख प्राप्त नहीं कर पाई। इस बात को सुन कर लक्ष्मीजी को बहुत दुःखी होगई और वो अपनी पीड़ा सुनांने के लिये माता पार्वती के पास गयीं और उनसे विनती कि वो अपने पुत्र कार्तिकेय और गणेशजी में से किसे एक पुत्र को उनहें दत्तक पुत्र के रूप में प्रदान कर दें। लक्ष्मीजी कि पीडा देख कर पार्वतीजी ने गणेश जी को लक्ष्मीजी को दत्तक पुत्र के रूप में देने का स्वीकार कर लिया। पार्वतीजी से गणेश जी को पुत्र के रूप पाकर लक्ष्मीजी नें हर्षित होते हुवे कहां मैं अपनी सभी सिद्धियां, सुख अपने पुत्र गणेश जी को प्रदान करती हूँ। इस के साथ साथ में मेरी पुत्री के समान प्रिय रिध्धि और सिध्धि जो के ब्रह्मा जी कि पुत्रियाँ हैं , उनसे गणेशजी का विवाह करने का वचन देती हूँ । यदि सम्पूर्ण त्रिलोकों में जो व्यक्ति , श्री गणेश जी कि पूजा नहीं करेगा वरन उनकी निंदा करेगा मैं उनसे कोसों दूर रहूँगी । जब भी मेरी पूजा होगी उसके साथ हिं गणेश कि भी पूजा अवश्य होगी।
अन्य कथा:
प्राचिन काल में एक संन्यासी ने देवी लक्ष्मी को कड़ी तपस्या द्वारा प्रसन्न कर के समस्त सुख सुविधा से जीवन व्यतीत करने का वरदान मांगा। लक्ष्मी तथास्तु कह कर अंतर्ध्यान हो गयीं। वरदान प्राप्ति के बाद संन्यासी वहां के राजदरबार में जाकर राजा के पास पहुंच कर एक झटके में राजमुकुट को नीचे गिरा दिया। संन्यासी का यह कार्य देख कर राजा का चेहरा गुस्से से लाल हो उठा। उसी क्षण राजा ने देखा कि राजमुकुट से एक बिच्छू बाहर निकल रहा हैं। यह देख राजा के मन में संन्यासी के प्रति श्रद्धा भाव जाग गया, राजाने संन्यासी को अपना मंत्री बनने के लिए आग्रह किया। संन्यासी तो यही चाहते थे। संन्यासी ने तुरंत राजा का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। संन्यासी के परामर्श से राज कार्य सुचारु रुप से चलने लगा।
एक दिन संन्यासी ने राजदरबार में उपस्थित सबको बाहर निकल जाने को कहा। संन्यासी पर विश्वास रखते हुए राजा एवं अन्य सब दरबारी वहां से निकल कर एक मैदान में पहुंच गये और तब राजमहल कि दीवारें ढह गयीं। यह द्रश्य देख कर राजा कि आस्था संन्यासी पर ऐसी जमी, कि समस्त राजकार्य उस संन्यासी के आदेश पर होने लगा। समय के साथ संन्यासी को स्वयं पर घमंड होने लगा। राजमहल के भीतर भगवान गणेश कि एक मूर्ति स्थापित थी। घमंड में चूर संन्यासी ने सेवकों को गणेश मूर्ति वहां से हटाने का आदेश दिया, क्योंकि उसके विचार में वह मूर्ति राजपरिसर कि शोभा बिगाड़ रही थी।
अगले दिन संन्यासी ने राजा से कहा कि वह फौरन अपनी पोशाक उतार दें, क्योंकि उसमें नाग है। राजा को संन्यासी पर अगाध विश्वास था। इसलिए, दरबारियों कि परवाह न करते हुए, उन्होनें अपनी पोशाक उतार दी, परंतु उसमें से कोई नाग नहीं निकला। यह देख कर राजा को संन्यासी पर बहुत गुस्सा आया और उसे कैद में रखने का आदेश दे दिया।
कैदियों कि भांति कुछ दिन गुजारने पर संन्यासी का घमंड उतर गया। संन्यासीने पुनः देवी लक्ष्मी कि आराधना शुरू कर दी। लक्ष्मी ने स्वप्न में उसे दर्शन देते हुए बताया, कि तुम्हारी एसी दुर्दशा गणेश जी का अपमान करने कि वजह से हुई हैं। गणेश बुद्धि के देवता हैं, अतः उनको नाराज करने से तुम्हारी बुद्धि भ्रष्ट हो गयी हैं। अब संन्यासी ने पश्चाताप करते हुए गणेश भगवान से क्षमा मांगी। अगले दिन राजा ने स्वयं वहां पहुंच कर उसे मुक्त कर दिया और पुनः मंत्री पद पर बहाल कर दिया। संन्यासी ने गणेश कि मूर्ति को पूर्व स्थान पर स्थापित करवा दिया तथा उनके साथ-साथ लक्ष्मी कि पूजा शुरू कि, ताकि धन एवं बुद्धि दोनों साथ-साथ रहें। माना जाता हैं, तभी से दीवाली पर देवी लक्ष्मी के साथ गणेश जी का पूजन करने कि प्रथा आरंभ हुई।
धन कि देवी लक्ष्मी हैं जो धन, समृद्धि एवं ऐश्वर्य प्रदान करती हैं। लेकिन बिना बुद्धि के धन, समृद्धि एवं ऐश्वर्य व्यर्थ हैं। इसके पीछे मुख्य कारण हैं की भगवान श्री गणेश समस्त विघ्नों को टालने वाले हैं, दया एवं कृपा के महासागर हैं, एवं तीनो लोक के कल्याण हेतु भगवान गणपति सब प्रकार से योग्य हैं। समस्त विघ्न बाधाओं को दूर करने वाले गणेश विनायक हैं। अतः बुद्धि कि प्राप्ति के लिये बुद्धि और विवेक के अधिपति देवता गणेश का पूजन करने का विधान हैं। गणेशजी समस्त सिद्धियों को देने वाले देवता माना गया है। क्योकि समस्त सिद्धियाँ भगवान गणेश में वास करती हैं। इस लिये लक्ष्मी जी के साथ में श्री गणेश जी कि आराधना आवश्यक हैं।
ब्रह्मवैवर्तपुराण में उल्लेख हैं
भगवान् विष्णु ने स्वयं गणेश जी को वरदान दिया कि
सर्वाग्रे तव पूजा च मया दत्ता सुरोत्तम।
सर्वपूज्यश्च योगीन्द्रो भव वत्सेत्युवाच तम्।।
(गणपतिखं. 13। 2)
भावार्थ: ‘सुरश्रेष्ठ! मैंने सबसे पहले तुम्हारी पूजा कि है, अतः वत्स! तुम सर्वपूज्य तथा योगीन्द्र हो जाओ।’
ब्रह्मवैवर्त पुराण में ही एक अन्य प्रसंगान्तर्गत माता पार्वती ने गणेश महिमा का बखान करते हुए परशुराम से कहा –
त्वद्विधं लक्षकोटिं च हन्तुं शक्तो गणेश्वरः।
जितेन्द्रियाणां प्रवरो नहि हन्ति च मक्षिकाम्।।
तेजसा कृष्णतुल्योऽयं कृष्णांश्च गणेश्वरः।
देवाश्चान्ये कृष्णकलाः पूजास्य पुरतस्ततः।।
(ब्रह्मवैवर्तपु., गणपतिख., 44। 26-27)
भावार्थ: जितेन्द्रिय पुरूषों में श्रेष्ठ गणेश तुममें जैसे लाखों-करोड़ों जन्तुओं को मार डालने की शक्ति है; परन्तु तुमने मक्खी पर भी हाथ नहीं उठाया। श्रीकृष्ण के अंश से उत्पन्न हुआ वह गणेश तेज में श्रीकृष्ण के ही समान है। अन्य देवता श्रीकृष्ण की कलाएँ हैं। इसीसे इसकी अग्रपूजा होती है।
लिंगपुराण के अनुसार (105। 15-27)
शिव ने अपने पुत्र को आशीर्वाद दिया कि जो तुम्हारी पूजा किये बिना पूजा पाठ, अनुष्ठान इत्यादि शुभ कर्मों का अनुष्ठान करेगा, उसका मंगल भी अमंगल में परिणत हो जायेगा। जो लोग फल की कामना से ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्र अथवा अन्य देवताओं की भी पूजा करेंगे, किन्तु तुम्हारी पूजा नहीं करेंगे, उन्हें तुम विघ्नों द्वारा बाधा पहुँचाओगे।
इस सभी कारण से मां लक्ष्मी के साथ में गणेशजी का पूजन करने का विधान हैं। लक्ष्मी प्राप्ति के बाद में उसे स्थिर करने हेतु बुद्धि कि आवश्यकता होती हैं। लक्ष्मी के साथ गणेश के पूजन से संबंध में अनेकों कथाएं प्रचलित हैं। कुछ लोकप्रिय कथाएं यहा प्रस्तुत हैं।
शास्त्रोक्त कथा:
विष्णु धाम में भगवान विष्णु एवं माता लक्ष्मी विराजमान होकर आपस में वार्तालाप कर रहे थे, बात-बात में अहं के कारण लक्ष्मी जी बोल उठे कि मैं सभी लोक में सब से अधिक पूजनीय एवं सबसे श्रेष्ठ हुं। लक्ष्मी जी को इस प्रकार अपनी अहं से स्वयं कि प्रशंसा करते देख भगवान विष्णु जी को अच्छा नहीं लगा। उनका अहं दूर करने के लिए उन्होंने कहा तुम सर्व संपन होते हुए भी आज तक माँ का सुख प्राप्त नहीं कर पाई। इस बात को सुन कर लक्ष्मीजी को बहुत दुःखी होगई और वो अपनी पीड़ा सुनांने के लिये माता पार्वती के पास गयीं और उनसे विनती कि वो अपने पुत्र कार्तिकेय और गणेशजी में से किसे एक पुत्र को उनहें दत्तक पुत्र के रूप में प्रदान कर दें। लक्ष्मीजी कि पीडा देख कर पार्वतीजी ने गणेश जी को लक्ष्मीजी को दत्तक पुत्र के रूप में देने का स्वीकार कर लिया। पार्वतीजी से गणेश जी को पुत्र के रूप पाकर लक्ष्मीजी नें हर्षित होते हुवे कहां मैं अपनी सभी सिद्धियां, सुख अपने पुत्र गणेश जी को प्रदान करती हूँ। इस के साथ साथ में मेरी पुत्री के समान प्रिय रिध्धि और सिध्धि जो के ब्रह्मा जी कि पुत्रियाँ हैं , उनसे गणेशजी का विवाह करने का वचन देती हूँ । यदि सम्पूर्ण त्रिलोकों में जो व्यक्ति , श्री गणेश जी कि पूजा नहीं करेगा वरन उनकी निंदा करेगा मैं उनसे कोसों दूर रहूँगी । जब भी मेरी पूजा होगी उसके साथ हिं गणेश कि भी पूजा अवश्य होगी।
अन्य कथा:
प्राचिन काल में एक संन्यासी ने देवी लक्ष्मी को कड़ी तपस्या द्वारा प्रसन्न कर के समस्त सुख सुविधा से जीवन व्यतीत करने का वरदान मांगा। लक्ष्मी तथास्तु कह कर अंतर्ध्यान हो गयीं। वरदान प्राप्ति के बाद संन्यासी वहां के राजदरबार में जाकर राजा के पास पहुंच कर एक झटके में राजमुकुट को नीचे गिरा दिया। संन्यासी का यह कार्य देख कर राजा का चेहरा गुस्से से लाल हो उठा। उसी क्षण राजा ने देखा कि राजमुकुट से एक बिच्छू बाहर निकल रहा हैं। यह देख राजा के मन में संन्यासी के प्रति श्रद्धा भाव जाग गया, राजाने संन्यासी को अपना मंत्री बनने के लिए आग्रह किया। संन्यासी तो यही चाहते थे। संन्यासी ने तुरंत राजा का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। संन्यासी के परामर्श से राज कार्य सुचारु रुप से चलने लगा।
एक दिन संन्यासी ने राजदरबार में उपस्थित सबको बाहर निकल जाने को कहा। संन्यासी पर विश्वास रखते हुए राजा एवं अन्य सब दरबारी वहां से निकल कर एक मैदान में पहुंच गये और तब राजमहल कि दीवारें ढह गयीं। यह द्रश्य देख कर राजा कि आस्था संन्यासी पर ऐसी जमी, कि समस्त राजकार्य उस संन्यासी के आदेश पर होने लगा। समय के साथ संन्यासी को स्वयं पर घमंड होने लगा। राजमहल के भीतर भगवान गणेश कि एक मूर्ति स्थापित थी। घमंड में चूर संन्यासी ने सेवकों को गणेश मूर्ति वहां से हटाने का आदेश दिया, क्योंकि उसके विचार में वह मूर्ति राजपरिसर कि शोभा बिगाड़ रही थी।
अगले दिन संन्यासी ने राजा से कहा कि वह फौरन अपनी पोशाक उतार दें, क्योंकि उसमें नाग है। राजा को संन्यासी पर अगाध विश्वास था। इसलिए, दरबारियों कि परवाह न करते हुए, उन्होनें अपनी पोशाक उतार दी, परंतु उसमें से कोई नाग नहीं निकला। यह देख कर राजा को संन्यासी पर बहुत गुस्सा आया और उसे कैद में रखने का आदेश दे दिया।
कैदियों कि भांति कुछ दिन गुजारने पर संन्यासी का घमंड उतर गया। संन्यासीने पुनः देवी लक्ष्मी कि आराधना शुरू कर दी। लक्ष्मी ने स्वप्न में उसे दर्शन देते हुए बताया, कि तुम्हारी एसी दुर्दशा गणेश जी का अपमान करने कि वजह से हुई हैं। गणेश बुद्धि के देवता हैं, अतः उनको नाराज करने से तुम्हारी बुद्धि भ्रष्ट हो गयी हैं। अब संन्यासी ने पश्चाताप करते हुए गणेश भगवान से क्षमा मांगी। अगले दिन राजा ने स्वयं वहां पहुंच कर उसे मुक्त कर दिया और पुनः मंत्री पद पर बहाल कर दिया। संन्यासी ने गणेश कि मूर्ति को पूर्व स्थान पर स्थापित करवा दिया तथा उनके साथ-साथ लक्ष्मी कि पूजा शुरू कि, ताकि धन एवं बुद्धि दोनों साथ-साथ रहें। माना जाता हैं, तभी से दीवाली पर देवी लक्ष्मी के साथ गणेश जी का पूजन करने कि प्रथा आरंभ हुई।
Adarniya Pandit ji,
जवाब देंहटाएंPranam! Aapke prayas se mujhe aaj kafi gyan prapt hua. Aapka bahut-2 dhnyawad. Asha h aap aage bhi apni satya kathaon dwara hm sbka gyan badhayenge.
Dhyanwad