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शनिवार, अप्रैल 24, 2010

यज्ञोपवीत संस्कार (भाग:2)

Yagyopavita Sanskar Part:2, janev, upaveeta yagyan sutra bhaga:2

यज्ञोपवीत संस्कार (भाग:2) 

 सामवेदीय छान्दोग्य सूत्र में लिखा है कि यज्ञोपवीत के नौ धागों में नौ देवता निवास करते हैं।
  • ॐ कार
  • अग्नि
  • अनन्त
  • चन्द्र
  • पितृ
  • प्रजापति
  • वायु
  • सूर्य
  • रिक्त सभी देवताओं का समूह।
वेद मंत्रों से अभिमंत्रित एवं संस्कारपूर्वक कराये यज्ञोपवीत में 9 शक्तियों का निवास होता हैं। जिस व्यक्ति के शरीर पर ऐसी समस्त देवों की सम्मिलित प्रतिमा की स्थापना हैं, उस शरीर रूपी देवालय को परम श्रेष्ठ साधना ही समझना चाहिए।

सामवेदीय छान्दोग्य सूत्र में यज्ञोपवीत के संबंध में एक और महत्वपूर्ण उल्लेख है-

ब्रह्मणोत्पादितं सूत्रं विष्णुना त्रिगुणी कृतम्।
कृतो ग्रन्थिस्त्रनेत्रेण गायत्र्याचाभि मन्त्रितम्।।

 अर्थात:- ब्रह्माजी ने तीन वेदों से तीन धागे का सूत्र बनाया। विष्णु ने ज्ञान, कर्म, उपासना इन तीनों काण्डों से तिगुना किया और शिवजी ने गायत्री से अभिमंत्रित कर उसे मे ब्रह्म गाँठ लगा दी। इस प्रकार यज्ञोपवीत नौ तार और ग्रंथियों समेत बनकर तैयार हुआ।


यज्ञोपवीत के लाभों का वर्णन शास्त्रों में इस प्रकार मिलता है-
 

येनेन्द्राय वृहस्पतिवृर्व्यस्त: पर्यद धाद मृतं नेनत्वा।
परिदधाम्यायुष्ये दीर्घायुत्वाय वलायि वर्चसे।। (पारस्कर गृह सूत्र)

 अर्थात:- जिस प्रकार इन्द्र को वृहस्पति ने यज्ञोपवीत दिया था उसी तरह आयु, बल, बुद्धि और सम्पत्ति की वृद्धि के लिए यज्ञोपवीत पहना जाय।


देवा एतस्यामवदन्त पूर्वे सप्तत्रपृषयस्तपसे ये निषेदु:।
भीमा जन्या ब्राह्मणस्योपनीता दुर्धां दधति परमे व्योमन्।। (ऋग्वेद)

अर्थात:- तपस्वी ऋषि और देवता गणों ने कहा कि यज्ञोपवीत की शक्ति महान हैं। यह शक्ति शुद्ध चरित्र और कठिन कर्त्तव्य पालन की प्रेरणा देती हैं। इस यज्ञोपवीत को धारण करने से जीव परम पद को पहुँच जाते हैं।



  
यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं प्रजापतेर्यत्सहजं पुरस्तात्।
आयुष्यमग्रयं प्रति मुञ्च शुभ्रं यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेज:।। (ब्रह्मोपनिषद्)

 अर्थात:- यज्ञोपवीत परम पवित्र है, प्रजापति ईश्वर ने इसे सबके लिए सहज बनाया है। यह आयु वर्धक, स्फूर्तिदायक, बन्धनों से छुड़ाने वाला एवं पवित्रता, बल और तेज देता है।
त्रिरस्यता परमा सन्ति सत्या स्यार्हा देवस्य जनि मान्यग्ने:।
अनन्ते अन्त: परिवीत आगाच्छुचि: शुक्रो अर्थो रोरुचान:।।

 अर्थात:- इस यज्ञोपवीत के परम श्रेष्ठ तीन लक्षण हैं। सत्य व्यवहार की आकांक्षा, अग्नि जैसी तेजस्विता, दिव्य गुणों से युक्त प्रसन्नता इसके द्वारा भली प्रकार प्राप्त होती हैं।

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