यज्ञोपवीत संस्कार (भाग:१)
यज्ञोपवीत को ब्रहासूत्र, जनेऊ, उपवीत, यज्ञसूत्र भी कहा जाता हैं।
यज्ञोपवीत का अर्थ है
यज्ञ + उपवती अर्थात जिसे व्यक्ति को यज्ञ कराने का पूर्ण अधिकार प्राप्त हो वह व्यक्ति यज्ञोपवीत धारण कर बीना किसी को यज्ञ या किसी भी प्रकार के मंत्र या वेद का पाठ नहीं करवा सकता क्योकि ऎसा करना हिन्दू संस्कृति में वर्जित माना गया हैं।
यज्ञोपवीत धारण करने बाले व्यक्ति को नियमों का पालन करना परम आवस्यक होता हैं
जो व्यक्ति ब्रह्मचारी हो उसे तीन धागों वाली यज्ञोपवीत धारण करनी चाहिये।
शेष सभी को छे या नौ धागों वाली यज्ञोपवीत धारण करनी चाहिये ।
यज्ञोपवीत के धागों में नीति का सार समाहित कर दिया गया हैं। शास्त्रोक्त उल्लेख हैं कि सूत के नौ धागों में मनुष्य के जीवन में सुघड विकास का सुगम मार्गदर्शन समाहित कर दिया गया हैं। यज्ञोपवीत के धागों को कन्धों पर, हृदय पर, कलेजे पर, पीठ पर प्रतिष्ठापित करने से शिक्षा एवं दिक्षा के समय यज्ञोपवीत के ये धागे हर समय धारण करता को जीवन के सूत्र स्मरण करायें जिस्से वह उन्हीं सिद्धांतो के आधार पर अपनी रीति एवं नीति का निर्धारण कर सके शायद इस लिये यज्ञोपवीत धारण करने का प्रयोजन यह हैं।
उपनयन संस्कार जिसमें बच्चेका मुंडन और पवित्र जल में स्नान कराकर जनेऊ पहनाई जाती हैं उसके पश्च्यात विद्यारंभ किया जाता हैं।
यज्ञोपवीत को यज्ञ द्वारा संस्कारीत किया जाता हैं यदि किसी कारण वश यज्ञ द्वारा संस्कार किया गया जनेऊ अपवित्र होने पर यज्ञोपवीत को बदल ना आवश्यक होता हैं।
शास्त्रोंक्त वचन
मातुरग्रेऽधिजननम् द्वितीयम् मौञ्जि बन्धनम्।
अर्थात:- व्यक्तिका पहला जन्म माता के गर्भ से और दूसरा यज्ञोपवीत धारण से होता हैं।
आचार्य उपनयमानो ब्रह्मचारिणम् कृणुते गर्भमन्त:।
त रात्रीस्तिस्र उदरे विभत्ति तं जातंद्रष्टुमभि संयन्ति देवा:।। (अथर्व)
अर्थात:- गर्भ में रहकर माता और पिता के संबंध से मनुष्य का पहला जन्म होता हैं। दूसरा जन्म विद्या रूपी माता और आचार्य रूप पिता द्वारा गुरुकुल में उपनयन और विद्याभ्यास द्वारा होता हैं।
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