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पुत्रदा (पवित्रा) एकादशी व्रत की पौराणिक
कथा
लेख साभार: गुरुत्व ज्योतिष मासिक ई-पत्रिका (अगस्त-2014)
श्रावण : शुक्ल पक्ष
एक बार युधिष्ठिर भगवान श्रीकृष्ण से पूछते हैं, हे
भगवान! श्रावण शुक्ल एकादशी का क्या नाम है? इसमें किस देवता की पूजा की जाती है और इसका व्रत करने से क्या फल मिलता
है ?" व्रत करने की विधि तथा इसका माहात्म्य कृपा करके
कहिए। भगवान श्रीकृष्ण कहने लगे कि इस एकादशी का नाम पुत्रदा एकादशी है। अब
आप शांतिपूर्वक इस व्रतकी कथा सुनिए। इसके सुनने मात्र से ही वाजपेयी यज्ञ /
अनन्त यज्ञ का फल मिलता है।
द्वापर युग के आरंभ में महिष्मति नाम की एक नगरी थी, जिसमें
महिष्मती नाम का राजा राज्य करता था, लेकिन पुत्रहीन होने के
कारण राजा को राज्य सुखदायक नहीं लगता था। उसका मानना था कि जिसके संतान न हो,
उसके लिए यह लोक और परलोक दोनों ही दु:खदायक
होते हैं। पुत्र सुख की प्राप्ति के लिए राजा ने अनेक उपाय किए परंतु राजा को
पुत्र की प्राप्ति नहीं हुई।
वृद्धावस्था आती देखकर राजा ने प्रजा के प्रतिनिधियों को
बुलाया और कहा- हे प्रजाजनों! मेरे खजाने में अन्याय से
उपार्जन किया हुआ धन नहीं है। न मैंने कभी देवताओं तथा ब्राह्मणों का धन छीना है।
किसी दूसरे की धरोहर भी मैंने नहीं ली, प्रजा को पुत्र के
समान पालता रहा। मैं अपराधियों को पुत्र तथा बाँधवों की तरह दंड देता रहा। कभी
किसी से घृणा नहीं की। सबको समान माना है। सज्जनों की सदा पूजा करता हूँ। इस
प्रकार धर्मयुक्त राज्य करते हुए भी मेरे पुत्र नहीं है। सो मैं अत्यंत दु:ख पा रहा हूँ, इसका क्या कारण है?
राजा महिष्मती की इस बात को विचारने के लिए मंत्री तथा
प्रजा के प्रतिनिधि वन को गए। वहाँ बड़े-बड़े ऋषि-मुनियों के
दर्शन किए। राजा की उत्तम कामना की पूर्ति के लिए किसी श्रेष्ठ तपस्वी मुनि को
खोजते-फिरते रहे। एक आश्रम में उन्होंने एक अत्यंत वयोवृद्ध
धर्म के ज्ञाता, बड़े तपस्वी, परमात्मा
में मन लगाए हुए निराहार, जितेंद्रीय, जितात्मा,
जितक्रोध, सनातन धर्म के गूढ़ तत्वों को जानने
वाले, समस्त शास्त्रों के ज्ञाता महात्मा लोमश मुनि को देखा,
जिनका कल्प के व्यतीत होने पर एक रोम गिरता था।
सबने जाकर ऋषि को प्रणाम किया। उन लोगों को देखकर मुनि ने
पूछा कि आप लोग किस कारण से आए हैं? नि:संदेह मैं आप
लोगों का हित करूँगा। मेरा जन्म केवल दूसरों के उपकार के लिए हुआ है, इसमें संदेह मत करो।
लोमश ऋषि के ऐसे वचन सुनकर सब लोग बोले- हे
महर्षे! आप हमारी बात जानने में ब्रह्मा से भी अधिक समर्थ
हैं। अत: आप हमारे इस संदेह को दूर कीजिए। महिष्मति पुरी का
धर्मात्मा राजा महिष्मती प्रजा का पुत्र के समान पालन करता है। फिर भी वह पुत्रहीन
होने के कारण दु:खी है।
उन लोगों ने आगे कहा कि हम लोग उसकी प्रजा हैं। अत: उसके
दु:ख से हम भी दु:खी हैं। आपके दर्शन
से हमें पूर्ण विश्वास है कि हमारा यह संकट अवश्य दूर हो जाएगा क्योंकि महान
पुरुषों के दर्शन मात्र से अनेक कष्ट दूर हो जाते हैं। अब आप कृपा करके राजा के
पुत्र होने का उपाय बतलाएँ।
यह वार्ता सुनकर ऐसी करुण प्रार्थना सुनकर लोमश ऋषि नेत्र
बन्द करके राजा के पूर्व जन्मों पर विचार करने लगे और राजा के पूर्व जन्म का
वृत्तांत जानकर कहने लगे कि यह राजा पूर्व जन्म में एक निर्धन वैश्य था। निर्धन
होने के कारण इसने कई बुरे कर्म किए। यह एक गाँव से दूसरे गाँव व्यापार करने जाया
करता था। ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी के दिन वह दो दिन से भूखा-प्यासा
था मध्याह्न के समय, एक जलाशय पर जल पीने गया। उसी स्थान पर
एक तत्काल की प्रसूता हुई प्यासी गौ जल पी रही थी।
राजा ने उस प्यासी गाय को जलाशय से जल पीते हुए हटा दिया और
स्वयं जल पीने लगा, इसीलिए राजा को यह दु:ख सहना पड़ा।
एकादशी के दिन भूखा रहने से वह राजा हुआ और प्यासी गौ को जल पीते हुए हटाने के
कारण पुत्र वियोग का दु:ख सहना पड़ रहा है। ऐसा सुनकर सब लोग
कहने लगे कि हे ऋषि! शास्त्रों में पापों का प्रायश्चित भी
लिखा है। अत: जिस प्रकार राजा का यह पाप नष्ट हो जाए,
आप ऐसा उपाय बताइए।
लोमश मुनि कहने लगे कि श्रावण शुक्ल पक्ष की एकादशी को जिसे
पुत्रदा एकादशी भी कहते हैं, तुम सब लोग व्रत करो और रात्रि को जागरण
करो तो इससे राजा का यह पूर्व जन्म का पाप नष्ट हो जाएगा, साथ
ही राजा को पुत्र की अवश्य प्राप्ति होगी। राजा के समस्त दुःख नष्ट हो जायेंगे। "लोमश ऋषि के ऐसे वचन सुनकर मंत्रियों सहित सारी प्रजा नगर को वापस लौट आई
और जब श्रावण शुक्ल एकादशी आई तो ऋषि की आज्ञानुसार सबने पुत्रदा एकादशी का व्रत
और जागरण किया।
इसके पश्चात द्वादशी के दिन इसके पुण्य का फल राजा को मिल
गया। उस पुण्य के प्रभाव से रानी ने गर्भ धारण किया और नौ महीने के पश्चात् ही
उसके एक अत्यन्त तेजस्वी पुत्ररत्न पैदा हुआ ।
इसलिए हे राजन! इस श्रावण शुक्ल एकादशी का नाम पुत्रदा
पड़ा। अत: संतान सुख की इच्छा रखने वाले मनुष्य को चाहिए के
वे विधिपूर्वक श्रावण मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी का व्रत करें। इसके माहात्म्य
को सुनने से मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाता है और इस लोक में संतान सुख भोगकर परलोक में स्वर्ग को प्राप्त होता है।
कथा का उद्देश्य : पाप करते समय हम यह नहीं सोचते कि हम क्या कर रहे है, लेकिन शास्त्रों से विदित होता है कि हमारे द्वारा किया गये गये छोटे या बडे
पाप से हमें कष्ट भोगना पड़ता है, अतः हमें पाप से बचना चाहिए।
क्योंकि पाप के कारण पीछले जन्म में किया गया कर्म का फल दूसरे जन्म में भी भोगना पड़
सकता हैं। इस लिए हमें चाहिए कि सत्यव्रत का पालन कर ईश्वरमें पूर्ण आस्था एवं निष्ठा
रखे और यह बात सदैव ध्यान रखे कि किसी की भी आत्मा को गल्ती से भी कष्ट ना हो।
लेख साभार: गुरुत्व ज्योतिष मासिक ई-पत्रिका (अगस्त-2014)
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