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रोग शान्ति के उपाय
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ज्योतिष द्वारा रोग निदान
लेख साभार: गुरुत्व ज्योतिष पत्रिका (मई-2011)
मत्स्य पुराण के अनुशार देवताओं और राक्षसों ने जब समुद्र मंथन किया था धन तेरस के दिन धनवंतरी नामक देवता अमृत कलश के साथ सागर मंथन से उत्पन्न हुए थे। धनवंतरी धन, स्वास्थय व आयु के अधिपति देवता हैं। धनवंतरी को देवों के वैध व चिकित्सक के रुप में जाना जाता हैं।
धनवंतरी ही सृष्टी के सर्व प्रथम चिकित्सक माने जाते हैं। श्री धनवंतरी ने ही आयुर्वेद को प्रतिष्ठित किया था। उनके बाद में ऋषि चरक जैसे अनेक आयुर्वेदाचार्य हो, गये। जिन्हों ने मनुष्य मात्र के स्वास्थ्य की देखरेख के लिए कार्य किये। इसी कारण प्राचीन काल में अधितर व्यक्ति का स्वस्थ उत्तम रहता था।
क्योकि प्राचिन कालमें प्रायः सभी चिकित्सक आयुर्वेद के साथ-साथ ज्योतिष का भी विशेष ज्ञान रखते थे। इसी लिए चिकित्सक बीमारी का परीक्षण ग्रहों की शुभ-अशुभ स्थिति के अनुसार सरलता से कर लेते थे। आज के आधुनिक युग के चिकित्सक को भी ज्योतिष विद्या का ज्ञान रखना चाहिए जिससे वे सरलता से प्रायः सभी रोगो का निदान करके रोगी की उपयुक्त चिकित्सा करने में पूर्णतः सक्षम हों सके।
ज्योतिष के अनुशार हर ग्रह और राशि मानव शरीर पर अपना विशेष प्रभाव रखते हैं, इस लिए उसे जानना भी अति आवश्यक हैं। सामान्यतः जन्म कुंडली में जो राशि अथवा जो ग्रह छठे, आठवें, या बारहवें स्थान से पीड़ित हो अथवा छठे, आठवें, या बारहवें स्थानों के स्वामी हो कर पीड़ित होरहे हो, तो उनसे संबंधित बीमारी की संभावना अधिक रहती हैं। जन्म कुंडली के अनुसार प्रत्येक स्थान और राशि से मानव शरीर के कौन-कौन से अंग प्रभावित होते हैं, उनसे संबंधित जानकारी दी जा रही हैं।
जन्मकुंडली से रोग निदान
ज्योतिष शास्त्र एवं आयुर्वेद के अनुसार मनुष्य द्वारा पूर्वकाल में किये गयें कर्मो का फल ही व्यक्ति के शरीर में विभिन्न रोगों के रूप में प्रगट होतें हैं।
हरित सहिंता के अनुशार:
जन्मान्तर कृतम् पापम् व्याधिरुपेण बाधते।
तच्छान्तिरौषधैर्दानर्जपहोमसुरार्चनैः॥
अर्थातः पूर्व जन्म में किया गये पाप कर्म ही व्याधि के रूप में हमारे शरीर में उत्पन्न हो कर कष्टकारी हो जाता हैं। तथा औषध, दान, जप, होम व देवपूजा से रोग की शांति होती हैं।
आयुर्वेद के जानकारो की माने तो कर्मदोष को ही रोग की उत्पत्ति का कारण माना गया हैं।
आयुर्वेद में कर्म के मुख्य तीन भेद माने गए हैं:
• एक हैं सन्चित कर्म
• दूसरा हैं प्रारब्ध कर्म
• तीसरा हैं क्रियमाण
आयुर्वेद के अनुसार मनुष्य के संचित कर्म ही कर्म जनित रोगों के प्रमुख कारण होते हैं
जिसे व्यक्ति प्रारब्ध के रूप में भोगता हैं।
वर्तमान समय में मनुष्य के द्वारा किये जाने वाला कर्म ही क्रियमाण होता हैं।
वर्तमान काल में अनुचित आहार-विहार के कारण भी शरीर में रोग उत्पन्न हो जाते हैं।
आयुर्वेद आचार्य सुश्रुत, चरक व त्रिष्ठाचार्य के मतानुसार ……………..>>
जन्म कुंडली से रोग व रोगके समय का ज्ञान
भारतीय ज्योतिषाचार्य हजारो वर्ष पूर्व ही जन्म कुंडली के माध्यम से यह ज्ञात करने में पूर्णताः सक्षम थे कि किसी व्यक्ति को कब तथा क्या बीमारी हो सकती हैं।
ज्योतिषशास्त्रो से प्राप्त ज्ञान एवं अभीतक हुएं ……………..>>
ग्रहों से सम्बंधित शरीर के अंग और रोग
यदि नवग्रह में से कोई ग्रह शत्रु राशि-नीच राशिः नवांश में, षड्बलहींन, पापयुक्त, पाप ग्रह से दृष्ट, त्रिकभाव में स्थित हों, तो संबंधित ग्रह अपने कारकत्व से सम्बंधित रोग उत्पन्न करते हैं। नव ग्रहों से सम्बंधित अंग, धातु और रोग इस प्रकार हैं।
रोग के प्रभाव का समय
पीड़ा कारक ग्रह अपनी ऋतू में, अपने वार में, मासेश होने पर अपने मास में, वर्षेश होने पर अपने वर्ष में, अपनी महादशा, अन्तर्दशा, प्रत्यंतर दशा एवं सूक्षम दशा में रोग कारक होते हैं। गोचर में पीड़ित ……………..>>
रोग शान्ति के उपाय
ग्रहों की विंशोत्तरी दशा तथा गोचर स्थिति से वर्तमान या भविष्य में होने वाले रोग को समय से पूर्व अनुमान लगा कर पीडाकारक ग्रहों से संबंधित दान, जप, हवन, यंत्र, कवच, व रत्न ……………..>>
संपूर्ण लेख पढने के लिये कृप्या गुरुत्व ज्योतिष ई-पत्रिका मई-2011 का अंक पढें।
इस लेख को प्रतिलिपि संरक्षण (Copy Protection) के कारणो से यहां संक्षिप्त में प्रकाशित किया गया हैं।
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