गुर्वष्टकम्
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courtesy: GURUTVA
JYOTISH Monthly E-Magazine July-2018
लेख सौजन्य: गुरुत्व ज्योतिष मासिक ई-पत्रिका (जुलाई-2018)
शरीरं सुरूपं तथा वा कलत्रं,
यशश्चारु चित्रं धनं मेरु तुल्यम्।
मनश्चेन लग्नं गुरोरघ्रिपद्मे,
ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम्॥१॥
कलत्रं धनं पुत्र पौत्रादिसर्वं,
गृहो बान्धवाः सर्वमेतद्धि जातम्।
मनश्चेन लग्नं गुरोरघ्रिपद्मे,
ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम्॥२॥
षड़ंगादिवेदो
मुखे शास्त्रविद्या,
कवित्वादि गद्यं सुपद्यं करोति।
मनश्चेन लग्नं गुरोरघ्रिपद्मे,
ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम्॥३॥
विदेशेषु मान्यः स्वदेशेषु धन्यः,
सदाचारवृत्तेषु मत्तो न चान्यः।
मनश्चेन लग्नं गुरोरघ्रिपद्मे,
ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम्॥४॥
क्षमामण्डले
भूपभूपलबृब्दैः,
सदा सेवितं यस्य पादारविन्दम्।
मनश्चेन लग्नं गुरोरघ्रिपद्मे,
ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम्॥५॥
यशो मे गतं दिक्षु दानप्रतापात्,
जगद्वस्तु सर्वं करे यत्प्रसादात्।
मनश्चेन लग्नं गुरोरघ्रिपद्मे,
ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम्॥६॥
न भोगे न योगे न वा वाजिराजौ,
न कन्तामुखे नैव वित्तेषु चित्तम्।
मनश्चेन लग्नं गुरोरघ्रिपद्मे,
ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम्॥७॥
अरण्ये न वा स्वस्य गेहे न कार्ये,
न देहे मनो वर्तते मे त्वनर्ध्ये।
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मनश्चेन लग्नं गुरोरघ्रिपद्मे,
ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम्॥८॥
गुरोरष्टकं यः पठेत्पुरायदेही,
यतिर्भूपतिर्ब्रह्मचारी च गेही।
लमेद्वाच्छिताथं पदं ब्रह्मसंज्ञं,
गुरोरुक्तवाक्ये मनो यस्य लग्नम्॥९॥
॥इति श्रीमद आद्य शंकराचार्यविरचितम्
गुर्वष्टकम् संपूर्णम्॥
भावार्थ: (१) यदि शरीर रूपवान हो, पत्नी भी रूपसी हो और सत्कीर्ति चारों दिशाओं में विस्तरित हो, सुमेरु पर्वत के तुल्य अपार धन हो, किंतु गुरु के श्रीचरणों में यदि मन आसक्त न हो तो इन सारी उपलब्धियों से क्या लाभ?
(२) यदि पत्नी, धन, पुत्र-पौत्र, कुटुंब, गृह एवं स्वजन, आदि प्रारब्ध से सर्व सुलभ हो किंतु गुरु के श्रीचरणों में यदि मन आसक्त न हो तो इस प्रारब्ध-सुख से क्या लाभ?
(३) यदि वेद एवं ६ वेदांगादि शास्त्र जिन्हें कंठस्थ हों, जिनमें सुन्दर काव्य निर्माण की प्रतिभा हो, किंतु उनका मन यदि गुरु के श्रीचरणों के प्रति आसक्त न हो तो इन सदगुणों से क्या लाभ?
(४) जिन्हें विदेशों में समान आदर मिलता हो, अपने देश में जिनका नित्य जय-जयकार से स्वागत किया जाता हो और जिसके समान दूसरा कोई सदाचारी भक्त
नहीं, यदि उनका भी मन गुरु के श्रीचरणों के प्रति आसक्त न हो तो सदगुणों से क्या लाभ?
(५) जिन महानुभाव के चरण कमल भूमण्डल के राजा-महाराजाओं से नित्य पूजित रहते हों, किंतु उनका मन यदि गुरु
के श्रीचरणों के प्रति आसक्त न हो तो इस
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सदभाग्य से क्या लाभ?
(६) दानवृत्ति के प्रताप से जिनकी कीर्ति चारो दिशा में व्याप्त हो, अति उदार गुरु की सहज कृपा दृष्टि से जिन्हें संसार के सारे सुख-एश्वर्य हस्तगत हों, किंतु उनका मन यदि गुरु के श्रीचरणों में आसक्तभाव न रखता हो तो इन सारे एशवर्यों से क्या लाभ?
(७) जिनका मन भोग, योग, अश्व, राज्य, स्त्री-सुख और धन भोग से कभी विचलित न होता हो, फिर भी गुरु के श्रीचरणों के प्रति आसक्त न बन पाया हो तो मन की इस अटलता से क्या लाभ?
(८) जिनका मन वन या अपने विशाल भवन में, अपने कार्य या शरीर में तथा अमूल्य भण्डार में आसक्त न हो, पर गुरु के श्रीचरणों में भी वह मन आसक्त न हो पाये तो इन सारी अनासक्त्तियों का क्या लाभ?
(९) जो यति, राजा, ब्रह्मचारी एवं गृहस्थ इस गुरु अष्टक का पठन-पाठन करता है और जिसका मन गुरु के वचन में आसक्त है, वह पुण्यशाली शरीरधारी अपने इच्छितार्थ एवं ब्रह्मपद इन दोनों को संप्राप्त कर लेता है यह निश्चित है।
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