जब एक राजा ने कुबेर पर आक्रमण कर धन वर्षा कराई !
Article courtesy: GURUTVA JYOTISH Monthly E-Magazine November-2018
लेख सौजन्य: गुरुत्व ज्योतिष मासिक ई-पत्रिका (नवम्बर-2018)
पौराणिक कथा के अनुसार अयोध्या के प्रसिद्ध राजा महाराज रघु राजा दिलीप के पुत्र थे । एसी मान्यता है कि राजा दिलीप को नंदिनी गाय की सेवा के प्रसाद से पुत्र रूप में प्राप्त हुए थे राजा रघु । रघु बचपन से ही अत्यन्त प्रतिभावशाली थे। रघु के बाल्यकाल में ही उनके पिता ने अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा छोड़ दिया था। इन्द्र ने उस घोड़े को पकड़ लिया, परंतु इन्द्र को रघु के हाथों पराजित होना पड़ा था।
रघु बड़े प्रतापी राजा थे, उन्होंने अपने राज्य का चारों दिशाओं में विस्तार किया। एक बार रघु ने अपने गुरु वसिष्ठ की आज्ञा से विश्वजित यज्ञ का आयोजन किया और उस यज्ञ में अपनी संपूर्ण संपत्ति दान कर दी।
एक तरफ विश्वामित्र के शिष्य कौत्स ने 'गुरु-दक्षिणा' देने के लिये बालहठ किया। महर्षि के बार-बार मना करने पर भी शिष्य जब न माना तो उन्होंने कुछ क्रोध में आकर आदेश दिया-वत्स! मैंने तुम्हें १८ प्रकार की विद्याओं से दीक्षित किया है। यद्यपि विद्यादान की कोई कीमत नहीं होती तथापि यदि एक प्रकार की विद्या की कीमत एक करोड़ स्वर्ण मुद्राएँ मानी जाएँ, तो १८ कोटि स्वर्ण-मुद्राएँ तुम गुरु-दक्षिणा' में दोगें, तभी तेरी गुरु दक्षिणा स्वीकार होगी।'' (नोट: कुछ विद्वानों ने चतुर्दश विद्या अर्थात १४ प्रकार की विद्याओं का उल्लेख किया हैं, जिस्से गुरु-दक्षिणा' में १४ कोटि स्वर्ण-मुद्रा मांगने का उल्लेख हैं।)
शिष्य ने विनम्रता पूर्वक गुरुदेव की आज्ञा को शिरोधार्य कर उनसे छ: माह की अवधि माँगी । इसके बाद कौत्स ने अपने नगर के राजा के पास जाकर गुरु-दक्षिणा हेतु धन की मांग की। इस पर नगर के राजा ने नतमस्तक होकर कहा हे द्विज श्रेष्ठ! मेरे राजकोष में इतना धन नहीं है। मैं आपके साथ चलकर प्रदेश के महाराजा के पास आपकी कामना पूर्ति हेतु यथेष्ट धन के प्रबन्ध हेतु प्रार्थना करूंगा। तब दोनों प्रदेश महाराजा के पास गये। इस पर प्रदेश के महाराजा ने अपनी असमर्थता प्रकट की। फिर दोनो राजा और शिष्य तीनो एक साथ महाराजा रघु के पास जाकर गुरु-दक्षिणा की पूर्ति हेतु धन का निवेदन किया।
लेकिन महाराजा रघु ने राजसूय यज्ञ में अपना सर्वस्व दान कर दिया था और निर्विकार जीवन व्यतित कर रहे थे। महाराजा रघु ने ब्राह्मण की कामना पूर्ति हेतु धन की अधिष्ठात्री देवी माँ महालक्ष्मी को प्रसन्न कर कौत्स जी की कामना पूर्ति हेतु आवश्यक धन देने की याचना की। देवी महालक्ष्मी ने राजा पर प्रसन्न होते हुए कहां राजन्, मैं नियमों से बँधी हूँ तथा बिना कर्म या भाग्य के किसी कृपा नहीं करती। फिर कहां राजन् तुम्हारे जैसे वीर क्षत्रिय राजा को इस छोटे से कार्य हेतु याचना करना शोभा नहीं देता। तुम अपने क्षत्रिय धर्म का पालन करो।' इतना कहकर माता लक्ष्मी अन्तर्ध्यान हो गई। महाराजा रघु ने बहुत सोच-विचार कर
धनाधिपति कुबेर पर आक्रमण करके कुबेरजी को ने तत्काल स्वर्ण मुद्राओं की वर्षा करने के लिए बाध्य किया। स्वर्ण मुद्राओं की वर्षा से कौत्सजी ने अपनी गुरु-दक्षिणा देकर गुरु को प्रसन्न किया।
विशेष: विद्वानों का मत हैं की उसी समय से से यह यह बात प्रसिद्ध हो गई है कि जहाँ धन प्राप्ति हेतु सभी प्रकार के प्रयास निष्फल हो जाए तो, कुबेर की उपासना कर उन्हें प्रसन्न कर धन प्राप्ति की कामना शीघ्र फलदाई होती है। एसा माना जाता हैं की रावण ने कुबेरजी को को उपासना से वश में कर रखा था जिस कारण रावण सुवर्ण की लंका और धन-सम्पत्ति का स्वामी हो गया था।
कुबेर चालीसा
॥ दोहा ॥
जैसे अटल हिमालय और
जैसे अडिग सुमेर ।
ऐसे ही स्वर्ग द्वार पै,
अविचल खड़े कुबेर ॥
विघ्न हरण मंगल करण,
सुनो शरणागत की टेर ।
भक्त हेतु वितरण करो,
धन माया के ढ़ेर ॥
॥ चौपाई ॥
जै जै जै श्री कुबेर भण्डारी ।
धन माया के तुम अधिकारी ॥
तप तेज पुंज निर्भय भय हारी । पवन वेग सम सम तनु बलधारी ॥
स्वर्ग द्वार की करें पहरे दारी ।
सेवक इंद्र देव के आज्ञाकारी ॥
यक्ष यक्षणी की है सेना भारी। सेनापति बने युद्ध में धनुधारी ॥
महा योद्धा बन शस्त्र धारैं ।
युद्ध करैं शत्रु को मारैं ॥
सदा विजयी कभी ना हारैं ।
भगत जनों के संकट टारैं ॥
प्रपितामह हैं स्वयं विधाता।
पुलिस्ता वंश के जन्म विख्याता ॥
विश्रवा पिता इडविडा जी माता । विभीषण भगत आपके भ्राता ॥
शिव चरणों में जब ध्यान लगाया । घोर तपस्या करी तन को सुखाया ॥
शिव वरदान मिले देवत्य पाया । अमृत पान करी अमर हुई काया ॥
धर्म ध्वजा सदा लिए हाथ में ।
देवी देवता सब फिरैं साथ में ।
पीताम्बर वस्त्र पहने गात में ॥
बल शक्ति पूरी यक्ष जात में ॥
स्वर्ण सिंहासन आप विराजैं ।
त्रिशूल गदा हाथ में साजैं ॥
शंख मृदंग नगारे बाजैं ।
गंधर्व राग मधुर स्वर गाजैं ॥
चौंसठ योगनी मंगल गावैं ।
ऋद्धि सिद्धि नित भोग लगावैं ॥
दास दासनी सिर छत्र फिरावैं ।
यक्ष यक्षणी मिल चंवर ढूलावैं ॥
ऋषियों में जैसे परशुराम बली हैं । देवन्ह में जैसे हनुमान बली हैं ॥
पुरुषोंमें जैसे भीम बली हैं ।
यक्षों में ऐसे ही कुबेर बली हैं ॥
भगतों में जैसे प्रहलाद बड़े हैं । पक्षियों में जैसे गरुड़ बड़े हैं ॥
नागों में जैसे शेष बड़े हैं ।
वैसे ही भगत कुबेर बड़े हैं ॥
कांधे धनुष हाथ में भाला ।
गले फूलों की पहनी माला ॥
स्वर्ण मुकुट अरु देह विशाला ।
दूर दूर तक होए उजाला ॥
कुबेर देव को जो मन में धारे ।
सदा विजय हो कभी न हारे ।
बिगड़े काम बन जाएं सारे ।
अन्न धन के रहें भरे भण्डारे ॥
कुबेर गरीब को आप उभारैं ।
कुबेर कर्ज को शीघ्र उतारैं ॥
कुबेर भगत के संकट टारैं ।
कुबेर शत्रु को क्षण में मारैं ॥
शीघ्र धनी जो होना चाहे ।
क्युं नहीं यक्ष कुबेर मनाएं ॥
यह पाठ जो पढ़े पढ़ाएं ।
दिन दुगना व्यापार बढ़ाएं ॥
भूत प्रेत को कुबेर भगावैं ।
अड़े काम को कुबेर बनावैं ॥
रोग शोक को कुबेर नशावैं ।
कलंक कोढ़ को कुबेर हटावैं ॥
कुबेर चढ़े को और चढ़ादे ।
कुबेर गिरे को पुन: उठा दे ॥
कुबेर भाग्य को तुरंत जगा दे । कुबेर भूले को राह बता दे ॥
प्यासे की प्यास कुबेर बुझा दे । भूखे की भूख कुबेर मिटा दे ॥
रोगी का रोग कुबेर घटा दे ।
दुखिया का दुख कुबेर छुटा दे ॥
बांझ की गोद कुबेर भरा दे । कारोबार को कुबेर बढ़ा दे ॥
कारागार से कुबेर छुड़ा दे ।
चोर ठगों से कुबेर बचा दे ॥
कोर्ट केस में कुबेर जितावै ।
जो कुबेर को मन में ध्यावै ॥
चुनाव में जीत कुबेर करावैं ।
मंत्री पद पर कुबेर बिठावैं ॥
पाठ करे जो नित मन लाई ।
उसकी कला हो सदा सवाई ॥
जिसपे प्रसन्न कुबेर की माई । उसका जीवन चले सुखदाई ॥
जो कुबेर का पाठ करावै ।
उसका बेड़ा पार लगावै ॥
उजड़े घर को पुन: बसावै ।
शत्रु को भी मित्र बनावै ॥
सहस्त्र पुस्तक जो दान कराई ।
सब सुख भोद पदार्थ पाई ।
प्राण त्याग कर स्वर्ग में जाई । मानस परिवार कुबेर कीर्ति गाई ॥
॥ दोहा ॥
शिव भक्तों में अग्रणी, श्री यक्षराज कुबेर । हृदय में ज्ञान प्रकाश भर, कर दो दूर अंधेर ॥ कर दो दूर अंधेर अब, जरा करो ना देर । शरण पड़ा हूं आपकी, दया की दृष्टि फेर ।
॥ इति श्री कुबेर चालीसा ॥
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