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मंगलवार, नवंबर 06, 2018

महालक्ष्मी की उत्पत्ति कैसे हुई? | How did Goddess Lakshmi originate?

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महालक्ष्मी की उत्पत्ति कैसे हुई? | How did Goddess Lakshmi originate?

Article courtesy: GURUTVA JYOTISH Monthly E-Magazine November-2018

लेख सौजन्यगुरुत्व ज्योतिष मासिक ई-पत्रिका (नवम्बर-2018) 

माहालक्ष्मी कि उत्पत्ति

धर्म शास्त्रो के मत अनुशार लक्ष्मी कि उत्पत्ति के विषय में अनेक कथाएं प्रचलित हैं। उन प्राचीन कथाओं में समुद्र मंथन के दौरान मां महालक्ष्मी कि उत्पत्ति मानी जाती हैं। विभिन्न ग्रंथो में लक्ष्मी समुद्र मंथन कि कथाओं में अंतर देखने को मिलता हैं। परंतु मूलतः सब कथाओं में अंतर होने के उपरांत भी अधिकतर समान हैं।

प्रजापत्य कल्प के अनुशार:

भगवान ब्रह्मा ने रुद्र रूप को ही स्वयंभु मनु और स्त्री रूप में सतरूपा को प्रकट किया और उसके बाद प्रियव्रत उत्तानपाद, प्रसूति और आकूति नाम कि संतानों को जन्म दिया। फिर आकूति का विवाह रुचि से और प्रसूति का विवाह दक्ष से किया गया। दक्ष ने प्रसूति से 24 कन्याओं को जन्म दिया। इसके नाम श्रद्धा, लक्ष्मी, पुष्टि, धुति, तुष्टि, मेधा, क्रिया, बुद्धि, लज्जा, वपु, शान्ति, ऋद्धि, और कीर्ति इत्यादी हैं।

विष्णु पुराण के अनुशार:

एक बार घूमते हुए दुर्वासा ने अपरूपा विद्याधरी के पास एक बहुत सुन्दर माला देखी। वह गन्धित माला थी। ऋषि ने उस माला को अपने जटाओं पर धारण करने के लिए मांगा और प्राप्त कर लिया। दुर्वासा ने सोचा कि यह माला प्रेम के कारण प्राप्त कर वे कामातुर हो उठे। अपने काम के आवेग को रोकने के लिए इधर-उधर घूमते-घूमते स्वर्ग लोक पहुंचे। वहां उन्होंने अपने सिर से माला हटाकर इन्द्र को दे दी। इन्द्र ने उस माला को ऐरावत के गले में डाल दिया और ऐरावत से वह माला धरती पर गिर गई और पैरों से कुचली गई। दुर्वासा ने जब यह देखा कि उसकी माला की यह दुर्गति हुई तो वह क्रोधित हुए और उन्होंने इन्द्र को श्रीहीन होने का शाप दिया। जब इन्द्र ने यह सुना तो भयभीत होकर ऋषि के पास आये पर उनका शाप लौट नहीं सकता था। इसी शाप के कारण असुरों ने इन्द्र और देवताओं को स्वर्ग से बाहर निकाल दिया। देवता ब्रह्मा जी की शरण में गये और उनसे अपने कष्ट के विषय में कहा।

ब्रह्मा जी देवताओं को लेकर विष्णु के पास गये और उनसे सारी बात कही तब विष्णु ने देवताओं को दानव से सुलह करके समुद्र मंथन करने की सलाह दी और स्वयं भी सहायता का आश्वासन दिया। उन्होंने बताया कि समुद्र मंथन से उन्हें लक्ķ्मी और अमृत पुनः प्राप्त होगा। अमृत पीकर वे अजर और अमर हो जाएंगे। देवताओं ने भगवान विष्णु की बात सुनकर समुद्र मंथन का आयोजन किया। उन्होंने अनेक औषधियां एकत्रित की और समुद्र में डाली। फिर मंथन किया गया।

मंथन के लिये जाते हुए समुद्र के चारों ओर बड़े जोर की आवाज उठ रही थी। इस बार के मंथन से देवकार्यों की सिद्धि के लिये साक्षात् सुरभि कामधेनु प्रकट हुईं। उन्हें काले, श्वेत, पीले, हरे तथा लाल रंग की सैकड़ों गौएँ घेरे हुए थीं। उस समय ऋषियों ने बड़े हर्ष में भरकर देवताओं और दैत्यों से कामधेनु के लिये याचन की और कहा आप सब लोग मिलकर भिन्न-भिन्न गोत्रवाले ब्राह्मणों को कामधेनु सहित इन सम्पूर्ण गौओं का दान अवश्य करें। ऋषियों के याचना करने पर देवताओं और दैत्यों ने भगवान् शंकर की प्रसन्नता के लिये वे सब गौएँ दान कर दीं तथा यज्ञ कर्मों में भली-भाँति मन को लगाने वाले उन परम मंगलमय महात्मा ऋषियों ने उन गौओं का दान स्वीकार किया। तत्पश्चात सब लोग बड़े जोश में आकर क्षीरसागर को मथने लगे। तब समुद्र से कल्पवृक्ष, पारिजात, आम का वृक्ष और सन्तान- ये चार दिव्य वृक्ष प्रकट हुए।

उन सबको एकत्र रखकर देवताओं ने पुन: बड़े वेग से समुद्र मंथन आरम्भ किया। इस बार के मंथन से रत्नों में सबसे उत्तम रत्न कौस्तुभ प्रकट हुआ, जो सूर्यमण्डल के समान परम कान्तिमान था। वह अपने प्रकाश से तीनों लोकों को प्रकाशित कर रहा था। देवताओं ने चिंतामणि को आगे रखकर कौस्तुभ का दर्शन किया और उसे भगवान विष्णु की सेवा में भेंट कर दिया। तदनन्तर, चिन्तामणि को मध्य में रखकर देवताओं और दैत्यों ने पुन: समुद्र को मथना आरम्भ किया। वे सभी बल में बढ़े-चढ़े थे और बार-बार गर्जना कर रहे थे। अब की बार उसे मथे जाते हुए समुद्र से उच्चै:श्रवा नामक अश्व प्रकट हुआ। वह समस्त अश्वजाति में एक अद्भुत रत्न था। उसके बाद गज जाति में रत्न भूत ऐरावत प्रकट हुआ। उसके साथ श्वेतवर्ण के चौसठ हाथी और थे। ऐरावत के चार दाँत बाहर निकले हुए थे और मस्तक से मद की धारा बह रही थी। इन सबको भी मध्य में स्थापित करके वे सब पुन: समुद्र मथने लगे। उस समय उस समुद्र से मदिरा, भाँग, काकड़ासिंगी, लहसुन, गाजर, अत्यधिक उन्मादकारक धतूर तथा पुष्कर आदि बहुत-सी वस्तुएँ प्रकट हुईं। इन सबको भी समुद्र के किनारे एक स्थान पर रख दिया गया। तत्पश्चात वे श्रेष्ठ देवता और दानव पुन: पहले की ही भाँति समुद्र-मंथन करने लगे। अब की बार समुद्र से सम्पूर्ण दशों दिशाओं में दिव्य प्रकाश व्याप्त हो गया उस दिव्य प्रकाश से देवी महालक्ष्मी प्रकट हुईं। इसलिए लक्ष्मी को समुद्र की पुत्री के रूप में जाना जाता है।

महालक्ष्मी ने देवता, दानव, मानव सम्पूर्ण प्राणियों की ओर दृष्टिपात किया। माता महालक्ष्मी की कृपा-दृष्टि पाकर सम्पूर्ण देवता उसी समय पुनः श्रीसम्पन्न हो गये। वे तत्काल राज्याधिकारी के शुभ लक्षणों से सम्पन्न दिखायी देने लगे।

लक्ष्मी की उत्पत्ति

सृष्टि रचना के विषय में ज्ञान प्राप्त करते हुवे भीष्म ने पुलस्त्य ऋषि से प्रश्न किया ऋषि श्रेष्ठ, लक्ष्मी की उत्पत्ति के विषय में आप मुझे विस्तार से बताइए। क्योंकि इस विषय में कथा अनेक हैं। यह सुनकर पुलस्त्य ऋषि बोले कि महर्षि भृगु कि पत्नी ख्याति के गर्भ से एक त्रिलोकसुन्दरी कन्या उत्पन्न हुई। वह समस्त शुभ लक्षणों से सुशोभित थी। इसलिए उसका नाम लक्ष्मी रखा गया।


GURUTVA JYOTISH E-MAGAZINE NOVEMBER-2018


(File Size : 7.07 MB)

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Article courtesy: GURUTVA JYOTISH Monthly E-Magazine November-2018

लेख सौजन्यगुरुत्व ज्योतिष मासिक ई-पत्रिका (नवम्बर-2018) 



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