वास्तु एवं वेध दोष (भाग:१)
वास्तु ग्रंथों में अनेक प्रकार के वेध दोष बताए गए हैं। जिसमें से कुछ वेध दोष तो प्रत्यक्ष होते हैं, जो सरलता से दिखाई देते हैं। और कुछ सरलता से नहीं दिखते। दिखाई देने वाले वेधों की पहचान कर उसका निदान तो आसानी से किया जासकता हैं। लेकिन नहीं दिखाई देने वाले वेधों के दोषो कि पहचान कुशल वास्तु विशेषज्ञ हि कर सकते हैं।
वास्तु सिद्धान्त में वेध दोष एक महत्वपूर्ण दोष मानागया हैं, जिसकी उचित एवं शास्त्रीय जानकारी अति महत्वपूर्ण हैं।
भवन कि दिवारों के कोण एक समान होतो शुभ माना जाता हैं और यदि चारों कोनो में से एक भी छोडा या बडा होतो तो वेध दोष माना जाता हैं।
भवन कि दिवार के कोने चार से ज्यादा होना वेध दोष माना जाता हैं। इस प्रकार के वेध दोष वाले भवन मे निवास कर्ता को आकस्मीक दुर्घटना एवं शस्त्र पीड़ा होने कि संभावना अधिक होती हैं।
मार्ग वेध
यदि सड़क का रास्ता ठीक आपके मुख्या द्वार पर आकर समाप्त होता हओतो मार्ग वेध माना जाता हैं। क्योकि सड़क पर वाहन एवं अन्य जीव के गति करने से अक्सर ऊर्जा का क्षेत्र गतिशील रहता हैं, एवं उस मार्ग की गतिशीलता से उतपन्न होने वाली उर्जा मार्ग से गति करने वाले जीव एवं वाहन कि संख्या और सफ्तार पर निर्भर करती हैं। यदि उर्जा कि गति तिव्र हैं तो निवास स्थान पर उर्जा का आगमन होकर वहा कि सकारात्मक तरंगों को बाधित कर नकारात्मक प्रभाव उतपन्न करती हैं, जिस्से भवन में अशांति और बेचैनी हर समय बनी रहती हैं।
वेध दोष का प्रभाव भवन के मुख्य द्वार के खुले रहने के समय पर निर्भर करता हैं। यदि द्वार अधिक समय तक खुला रहता हैं, तो अधिक नकारात्मक उर्जा प्रवेश करेगे और कम समय के लिये खुल ने से वेह दोष का प्रभाव कम रहता हैं।
भवन के मुख्य द्वार एसा बनाये जिस्से द्वार बंध होने से वायु का आवागम न हो, द्वार बंध होने से वायु का आवागम होने से दोष का प्रभाव तीव्र होते देखे गये हैं।
द्वार दोष कम करने हेतु मुख्य द्वार पर शुभ चिन्ह वाले तोरण या कलश, स्वास्तिक इत्यादि बनवाने से भी यह द्वार दोष कम होता हैं, द्वार के चारों ओर चांदी का अखंडित तार बांध ने से भी मार्ग वेध का प्रभाव कम हो जाता हैं।
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