राखी पूर्णिमा
रक्षाबंधन- रक्षाबंधन अर्थात् प्रेम का बंधन। रक्षाबंधन के दिन बहन भाई के हाथ पर राखी बाँधती हैं। रक्षाबंधन के साथ हि भाई को अपने निःस्वार्थ प्रेम से बाँधती है।
भौतिकता युक्त भोग और स्वार्थ में लिप्त विश्व के सभी संबंधों में निःस्वार्थ और पवित्र होता हैं।
भारतीय संस्कृति समग्र मानव जीवन को महानता के दर्शन कराने वाली संस्कृति हैं। भारतीय संस्कृति में स्त्री को केवल मात्र भोगदासी न समझकर उसका पूजन करने वाली महान संस्कृति हैं।
किन्तु आजका पढा लिखा आधुनिक व्यक्ति अपने आपको सुधरा हुवा मानने वाले तथा पाश्चात्य संस्कृति
का अंधा अनुकरण करके, स्त्री को समानता दिलाने वाली खोखली भाषा बोलने वालों को पेहल भारत की पारंपरिक संस्कृति को पूर्ण समझ लेना चाहि की पाश्चात्य संस्कृति संस्कृति से तो केवल समानता दिलाई हो परंतु भारतीय संस्कृति ने तो स्त्री का पूजन किया हैं।
एसे हि नहीं कहाजाता हैं।
'यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः।
भावार्थ: जहाँ स्त्री पूजी जाती है, उसका सम्मान होता है, वहाँ देव रमते हैं- वहाँ देवों का निवास होता है।' ऐसा भगवान मनु का वचन है।
भारतीय संस्कृति स्त्री की ओर भोग की दृष्टि से न देखकर पवित्र दृष्टि से, माँ की भावना से देखने का आदेश देने वाली सर्व श्रेष्ठ भारतीय संस्कृति ही हैं।
हजारो वर्ष पूर्व हमारे पूर्वजो नें भारतीय संस्कृति में रक्षाबंधन का उत्सव शायद इस लिये शामिल किया क्योकि रक्षाबंधन के तौहार को दृष्टि परिवर्तन के उद्देश्य से बनाया गया हो?
बहन द्वारा राखी हाथ पर बंधते ही भाई की दृष्टि बदल जाए। राखी बाँधने वाली बहन की ओर वह विकृत दृष्टि न देखे, एवं अपनी बहन का रक्षण भी वह स्वयं करे। जिस्से बहन समाज में निर्भय होकर घूम सके। विकृत दृष्टि एवं मानसिकता वाले लोग उसका मजाक उड़ाकर नीच वृत्ति वाले लोगो को दंड देकर सबक सिखा सके हैं।
भाई को राखी बाँधने से पहले बहन उसके मस्तिष्क पर तिलक करती हैं। उस समय बहन भाई के मस्तिष्क की पूजा नहीं अपितु भाई के शुद्ध विचार और बुद्धि को निर्मल करने हेतु किया जाता हैं, तिलक लगाने से दृष्टि परिवर्तन की अद्भुत प्रक्रिया समाई हुई होती हैं।
भाई के हाथ पर राखी बाँधकर बहन उससे केवल अपना रक्षण ही नहीं चाहती, अपने साथ-साथ समस्त स्त्री जाति के रक्षण की कामना रखती हैं, इस के साथ हिं अपना भाई बाह्य शत्रुओं और अंतर्विकारों पर विजय प्राप्त करे और सभी संकटो से उससे सुरक्षित रहे, यह भावना भी उसमें छिपी होती हैं।
वेदों में उल्लेख है कि देव और असुर संग्राम में देवों की विजय प्राप्ति कि कामना के निमित्त देवि इंद्राणी ने हिम्मत हारे हुए इंद्र के हाथ में हिम्मत बंधाने हेतु राखी बाँधी थी। एवं देवताओं की विजय से रक्षाबंधन का त्योहार शुरू हुआ।
अभिमन्यु की रक्षा के निमित्त कुंतामाता ने उसे राखी बाँधी थी।
इसी संबंध में एक और किंवदंती प्रसिद्ध है कि देवताओं और असुरों के युद्ध में देवताओं की विजय को लेकर कुछ संदेह होने लगा। तब देवराज इंद्र ने इस युद्ध में प्रमुखता से भाग लिया था। देवराज इंद्र की पत्नी इंद्राणी श्रावण पूर्णिमा के दिन गुरु बृहस्पति के पास गई थी तब उन्होंने विजय के लिए रक्षाबंधन बाँधने का सुझाव दिया था। जब देवराज इंद्र राक्षसों से युद्ध करने चले तब उनकी पत्नी इंद्राणी ने इंद्र के हाथ में रक्षाबंधन बाँधा था, जिससे इंद्र विजयी हुए थे।
अनेक पुराणों में श्रावणी पूर्णिमा को पुरोहितों द्वारा किया जाने वाला आशीर्वाद कर्म भी माना जाता है। ये ब्राह्मणों द्वारा यजमान के दाहिने हाथ में बाँधा जाता है।
पुराणों में ऐसी भी मान्यता है कि महर्षि दुर्वासा ने ग्रहों के प्रकोप से बचने हेतु रक्षाबंधन की व्यवस्था दी थी। महाभारत युग में भगवान श्रीकृष्ण ने भी ऋषियों को पूज्य मानकर उनसे रक्षा-सूत्र बँधवाने को आवश्यक माना था ताकि ऋषियों के तप बल से भक्तों की रक्षा की जा सके।
ऐतिहासिक कारणों से मध्ययुगीन भारत में रक्षाबंधन का पर्व मनाया जाता था। शायद हमलावरों की वजह से महिलाओं के शील की रक्षा हेतु इस पर्व की महत्ता में इजाफा हुआ हो। तभी महिलाएँ सगे भाइयों या मुँहबोले भाइयों को रक्षासूत्र बाँधने लगीं। यह एक धर्म-बंधन था।
रक्षाबंधन पर्व पुरोहितों द्वारा किया जाने वाला आशीर्वाद कर्म भी माना जाता है। ये ब्राह्मणों द्वारा यजमान के दाहिने हाथ में बाँधा जाता है।
रक्षाबंधन का एक मंत्र भी है, जो पंडित रक्षा-सूत्र बाँधते समय पढ़ते हैं :
येन बद्धो बली राजा दानवेन्द्रो महाबलः।
तेन त्वां प्रतिबध्नामि रक्षे माचल माचलः॥
भविष्योत्तर पुराण में राजा बलि (श्रीरामचरित मानस के बालि नहीं) जिस रक्षाबंधन में बाँधे गए थे, उसकी कथा अक्सर उद्धृत की जाती है। बलि के संबंध में विष्णु के पाँचवें अवतार (पहला अवतार मानवों में राम थे) वामन की कथा है कि बलि से संकल्प लेकर उन्होंने तीन कदमों में तीनों लोकों में सबकुछ नाप लिया था। वस्तुतः दो ही कदमों में वामन रूपी विष्णु ने सबकुछ नाप लिया था और फिर तीसरे कदम,जो बलि के सिर पर रखा था, उससे उसे पाताल लोक पहुँचा दिया था। लगता है रक्षाबंधन की परंपरा तब से किसी न किसी रूप में विद्यमान थी।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें