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शनिवार, मार्च 19, 2011

होलिका उत्सव का महत्व

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होलिका उत्सव का महत्व

भारतीय संस्कृती में होलिका दहन का उत्सव फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा को मनाया जाता हैं। होलिका का व्रत रखने वाले श्रद्धालु दिन भर उपवास कर के संध्या-रात्री के समय होलीका के दहन के समय होलीका का पूजन कर भोजन करते हैं।

होली का उत्सव से अनेको काथाएं एवं रहस्य जुडे हुएं हैं। पौराणिक काल में होलीका दहन के लिये माघी पूर्णिमा के दिन नगर के शूर, सामंत और गणमान्य लोग गाजे-बाजे के साथ नगर से बाहर जाकर शाखा युक्त वृक्ष ले आते थे और गंधादि से विधि-वत पूजन करके नगर या गांव से बाहर पश्चिम की और वृक्षको खडा कर देते थे। पुरातन काल में यह होली, होली का डांडा और प्रहलाद, नवान्नेष्टि का यज्ञ स्तम्भ के नाम से प्रसिद्ध थी। होलीका व्रत में व्रती अपना व्रत संकल्प करके साथा धारण करते थे।

होलिका दहन से पूर्व दहन वाले स्थान को शुद्ध जल से पवित्र किया जाता था और पूर्ण विघिवत पूजन के साथा में होलीका दहन किया जाता था। होलिका की परिक्रमा भी की जाती थी। होलीका दहन के बाद डांडा रुपी प्रह्लाद को बाहर निकालकर शीतल जल से पवित्र किया जाता था।

इसके बाद लोग घर से लाए हुए खेडा, खांडा और बडकूलों को होली में डालकर गेहूं, जौ, गेहूं की बाली और हरे चने के झाड को सेंका जाता था। इसके पीछे भक्त प्रह्लाद की कथा भी आती है। उसी के स्मरण में होलिका दहन होता है। इसके पीछे यह भी भाव बताया जाता है कि इस समय नवीन धान्य जौ, गेंहू और चने की खेती पककर तैयार हो जाती है। इसलिए यज्ञ राज को नया धान अर्पण करके उनकी पूजा की जाती हैं। यज्ञ विघि से इसे अर्पित करके नवानेष्टि यज्ञ किया जाता है।
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