देव पूजन मे कुछ वास्तुशास्त्री घर मे पत्थरकी मूर्ति का अथवा मन्दिर का निषेध करते है।
वास्तवमे मूर्ति का निषेध नही है, पर एक बितेसे/१२ अंगुल अधिक ऊंची मूर्ति का निषेध है।*
अगुड्ष्ठपर्वादारभ्य वितस्तिर्यावदेव तु।
गृहेषु प्रतिमा कार्या नाधिका शस्यते बुधैः॥
(मत्स्यपुराण २५८।५२)
अर्थान्त
"घरमे अंगूठके पर्वसे लेकर एक बित्ता परिमाणकी ही मूर्ति होनी चाहिये। इस्से बडी मूर्ति को विद्वानलोग घर मे शुभ नही बताते।"
शैलीं दरुमयीं हैमीं धात्वाघाकारसम्भवाम।
प्रतिष्ठां वै पकुर्वीत प्रसादे वा गृहे नृप॥
(वृद्धपाराशर)
अर्थान्त:
"पत्थर, काष्ठ, सोना या अन्य धातुओंकी मूर्तिकी प्रतिष्ठा घर या घर मन्दिर में करनी चाहिये।"
घर या घर मन्दिर में एक बित्ते से अधिक बडी पत्थर की मूर्तिकी स्थापना से गृहस्वामीकी सन्तान नहीं होती। उसकी स्थापना देव मन्दिर मे ही करनी चाहिये।
गृहे लिंगद्वयं नाच्यं गणेशत्रितयं तथा।
शंखद्वयं तथा सूर्यो नाच्यौं शक्तित्रयं तथा।।
द्वे चक्रे द्वारकायास्तु शालग्रामशिलाद्वयम।
तषां तु पूजनेनैव उद्वेगं प्राप्तुयाद गृही॥
(आचारप्रकाश:आचारेन्दु)अर्थान्त:
"घर मे दो शिव लिंग, तीन गणेश, दो शंख, दो सूर्य-प्रतिमा, तीन देवी प्रतिमा, दो द्वारकाकेचक्र (गोमति चक्र) और दो शालग्रामका पूजन करनेसे गृहस्वामीको उद्वेग (अशांति) प्राप्त होती है।"
*अंगूठेके सिरे से लेकर कनिष्ठा के छोरतक एक बित्ता होता है। एवं एक बित्तेमें १२ अंगुल होते है।
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