ज्योतिष एवं रोग
ज्योतिष द्रष्टि कोण के अनुसार व्यक्ति को अपने पूर्व जन्म में अर्जित किये गये पाप कर्मों के आधार पर उसे फल प्राप्त होता हैं, जो उसे समय समय पर विभिन्न रोगों के रूप में व्यक्ति के शरीर में उत्पन्न होतें हैं ।
जन्मान्तर कृतम् पापम् व्याधिरुपेण बाधते
तच्छान्तिरौष धैर्दानर्जपहोम सुरार्चनै :
(हरित सहिंता )
भावार्थ:- व्यक्ति को अपने पूर्व जन्म में किया गया पाप कर्म ही व्याधि के रूप में उसके शरीर में उत्पन्न हो कर उसके लिय६ए कष्ट कारक होता हैं और औषध, दान ,जप ,होम व देवपूजा से रोग की शांति होती हैं
ज्योतिष के साथ हि आयुर्वेद में भी कर्मदोष को ही रोग की उत्पत्ति का कारण माना गया हैं
भारतिय परंपरा में व्यक्ति कि द्वारा किये गये कर्म के तीन भेद माने गए हैं ;
संचित कर्म
प्रारब्ध कर्म
क्रियमाण कर्म
आयुर्वेद के मत से संचित कर्म ही कर्म जन्य रोगों के कारण होते हैं जिसके एक हिस्से को व्यक्ति प्रारब्ध के रूप में भोगता हैं।
वर्तमान समय में किए जाने वाला कर्म ही क्रियमाण कर्म हैं । वर्तमान काल में अन-उचित आहार विहार के कारण भी मानवशरीर में रोग उत्पन्न होते हैं ।
हमारे यहा तो प्राचिन काल से हि विद्वान ऋषि मुनि एवं आचार्यो का मत हैं कि कुष्ठ रोग, उदर रोग गुदा रोग, पागलपन, पंगुता, भगन्दर, प्रमेह, द्रष्टि हिनता, अर्श, देह में कंपन, श्रवण व वाणी दोष के रोग व्यक्ति द्वारा किये गये परस्त्री गमन, ब्रह्म हत्या, दूसरे के धन का हरण, बालक-स्त्री-निर्दोष एवं असहाय व्यक्ति की हत्या आदि दुष्कर्मों के प्रभाव से उत्पन्न होते हैं। इसलिये मानव द्वारा इस जन्म या पूर्व जन्म में किया गया पापकर्म ही रोगों का कारण होता है । तभी तो ऐसे मनुष्य भी कभी-कभी असाध्य रोगों का शिकार हो कर जीवन भर कष्ट भोगतें रहते हैं।
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