षष्ठम् कात्यायनी
लेख साभार: गुरुत्व ज्योतिष पत्रिका (अक्टूबर-2010)
नवरात्र के छठें दिन मां के कात्यायनी स्वरूप का पूजन करने का विधान हैं। महर्षि कात्यायन कि पुत्री होने के कारण उन्हें कात्यायनी के नामसे जाना जाता हैं। कात्यायनी माता का जन्म आश्विन कृष्ण चतुर्दशी को हुवा था, जन्म के पश्चयाता मां कात्यायनी ने शुक्ल सप्तमी, अष्टमी तथा नवमी तक तीन दिन तक कात्यायन ऋषि कि पूजा ग्रहण किथी एवं विजया दशमी को महिषासुर का वध किया था।
देवी कात्यायनी का वर्ण स्वर्ण के समान चमकीला हैं, इस कारण देवी कात्यायनी का स्वरूप अत्यंत ही भव्य एवं दिव्य प्रतित होता हैं। कात्यायनी कि चार भुजाएं हैं। उनेके दाहिनी तरफ का ऊपर वाला हाथ अभय मुद्रामें है, तथा नीचे वाला वरमुद्रामें, बाई तरफ के ऊपर वाले हाथ में कमल पुष्प सुशोभित हैं, नीचे वाले हाथमें तलवार सुशोभित रहती हैं। कात्यायनी देवी अपने वाहन सिंह विराजन होती हैं।
मंत्र:
चंद्रहासोज्जवलकरा शाइलवरवाहना। कात्यायनी शुभं दद्याद्देवी दानवघातिनी।।
ध्यान:-
वन्दे वांछित मनोरथार्थचन्द्रार्घकृतशेखराम्। सिंहारूढचतुर्भुजाकात्यायनी यशस्वनीम्॥
स्वर्णवर्णाआज्ञाचक्रस्थितांषष्ठम्दुर्गा त्रिनेत्राम। वराभीतंकरांषगपदधरांकात्यायनसुतांभजामि॥
पटाम्बरपरिधानांस्मेरमुखींनानालंकारभूषिताम्। मंजीर हार केयुरकिंकिणिरत्नकुण्डलमण्डिताम्।।
प्रसन्नवंदनापज्जवाधरांकातंकपोलातुगकुचाम्। कमनीयांलावण्यांत्रिवलीविभूषितनिम्न नाभिम्॥
स्तोत्र:-
कंचनाभां कराभयंपदमधरामुकुटोज्वलां। स्मेरमुखीशिवपत्नीकात्यायनसुतेनमोअस्तुते॥
पटाम्बरपरिधानांनानालंकारभूषितां। सिंहास्थितांपदमहस्तांकात्यायनसुतेनमोअस्तुते॥
परमदंदमयीदेवि परब्रह्म परमात्मा। परमशक्ति,परमभक्ति्कात्यायनसुतेनमोअस्तुते॥
विश्वकर्ती,विश्वभर्ती,विश्वहर्ती,विश्वप्रीता। विश्वाचितां,विश्वातीताकात्यायनसुतेनमोअस्तुते॥
कां बीजा, कां जपानंदकां बीज जप तोषिते। कां कां बीज जपदासक्ताकां कां सन्तुता॥
कांकारहर्षिणीकां धनदाधनमासना। कां बीज जपकारिणीकां बीज तप मानसा॥
कां कारिणी कां मूत्रपूजिताकां बीज धारिणी। कां कीं कूंकै क:ठ:छ:स्वाहारूपणी॥
कवच:-
कात्यायनौमुख पातुकां कां स्वाहास्वरूपणी। ललाटेविजया पातुपातुमालिनी नित्य संदरी॥ कल्याणी हृदयंपातुजया भगमालिनी॥
मंत्र-ध्यान-कवच- का विधि-विधान से पूजन करने वाले व्यक्ति का आज्ञा चक्र जाग्रत होता हैं। देवी कात्यायनी के पूजन से रोग, शोक, भय से मुक्ति मिलती हैं। कात्यायनी देवी को वैदिक युग में ये ऋषि-मुनियों को कष्ट देने वाले रक्ष-दानव, पापी जीव को अपने तेज से ही नष्ट कर देने वाली माना गया हैं।
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