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सोमवार, अगस्त 23, 2010

राखी पूर्णिमा

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राखी पूर्णिमा


रक्षाबंधन- रक्षाबंधन अर्थात्‌ प्रेम का बंधन। रक्षाबंधन के दिन बहन भाई के हाथ पर राखी बाँधती हैं। रक्षाबंधन के साथ हि भाई को अपने निःस्वार्थ प्रेम से बाँधती है।

भौतिकता युक्त भोग और स्वार्थ में लिप्त विश्व के सभी संबंधों में निःस्वार्थ और पवित्र होता हैं।

भारतीय संस्कृति समग्र मानव जीवन को महानता के दर्शन कराने वाली संस्कृति हैं। भारतीय संस्कृति में स्त्री को केवल मात्र भोगदासी न समझकर उसका पूजन करने वाली महान संस्कृति हैं।

किन्तु आजका पढा लिखा आधुनिक व्यक्ति अपने आपको सुधरा हुवा मानने वाले तथा पाश्चात्य संस्कृति

का अंधा अनुकरण करके, स्त्री को समानता दिलाने वाली खोखली भाषा बोलने वालों को पेहल भारत की पारंपरिक संस्कृति को पूर्ण समझ लेना चाहि की पाश्चात्य संस्कृति संस्कृति से तो केवल समानता दिलाई हो परंतु भारतीय संस्कृति ने तो स्त्री का पूजन किया हैं।

एसे हि नहीं कहाजाता हैं।

'यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः।

भावार्थ: जहाँ स्त्री पूजी जाती है, उसका सम्मान होता है, वहाँ देव रमते हैं- वहाँ देवों का निवास होता है।' ऐसा भगवान मनु का वचन है।

भारतीय संस्कृति स्त्री की ओर भोग की दृष्टि से न देखकर पवित्र दृष्टि से, माँ की भावना से देखने का आदेश देने वाली सर्व श्रेष्ठ भारतीय संस्कृति ही हैं।

हजारो वर्ष पूर्व हमारे पूर्वजो नें भारतीय संस्कृति में रक्षाबंधन का उत्सव शायद इस लिये शामिल किया क्योकि रक्षाबंधन के तौहार को दृष्टि परिवर्तन के उद्देश्य से बनाया गया हो?

बहन द्वारा राखी हाथ पर बंधते ही भाई की दृष्टि बदल जाए। राखी बाँधने वाली बहन की ओर वह विकृत दृष्टि न देखे, एवं अपनी बहन का रक्षण भी वह स्वयं करे। जिस्से बहन समाज में निर्भय होकर घूम सके। विकृत दृष्टि एवं मानसिकता वाले लोग उसका मजाक उड़ाकर नीच वृत्ति वाले लोगो को दंड देकर सबक सिखा सके हैं।

भाई को राखी बाँधने से पहले बहन उसके मस्तिष्क पर तिलक करती हैं। उस समय बहन भाई के मस्तिष्क की पूजा नहीं अपितु भाई के शुद्ध विचार और बुद्धि को निर्मल करने हेतु किया जाता हैं, तिलक लगाने से दृष्टि परिवर्तन की अद्भुत प्रक्रिया समाई हुई होती हैं।

भाई के हाथ पर राखी बाँधकर बहन उससे केवल अपना रक्षण ही नहीं चाहती, अपने साथ-साथ समस्त स्त्री जाति के रक्षण की कामना रखती हैं, इस के साथ हिं अपना भाई बाह्य शत्रुओं और अंतर्विकारों पर विजय प्राप्त करे और सभी संकटो से उससे सुरक्षित रहे, यह भावना भी उसमें छिपी होती हैं।

वेदों में उल्लेख है कि देव और असुर संग्राम में देवों की विजय प्राप्ति कि कामना के निमित्त देवि इंद्राणी ने हिम्मत हारे हुए इंद्र के हाथ में हिम्मत बंधाने हेतु राखी बाँधी थी। एवं देवताओं की विजय से रक्षाबंधन का त्योहार शुरू हुआ।

अभिमन्यु की रक्षा के निमित्त कुंतामाता ने उसे राखी बाँधी थी।

इसी संबंध में एक और किंवदंती प्रसिद्ध है कि देवताओं और असुरों के युद्ध में देवताओं की विजय को लेकर कुछ संदेह होने लगा। तब देवराज इंद्र ने इस युद्ध में प्रमुखता से भाग लिया था। देवराज इंद्र की पत्नी इंद्राणी श्रावण पूर्णिमा के दिन गुरु बृहस्पति के पास गई थी तब उन्होंने विजय के लिए रक्षाबंधन बाँधने का सुझाव दिया था। जब देवराज इंद्र राक्षसों से युद्ध करने चले तब उनकी पत्नी इंद्राणी ने इंद्र के हाथ में रक्षाबंधन बाँधा था, जिससे इंद्र विजयी हुए थे।

अनेक पुराणों में श्रावणी पूर्णिमा को पुरोहितों द्वारा किया जाने वाला आशीर्वाद कर्म भी माना जाता है। ये ब्राह्मणों द्वारा यजमान के दाहिने हाथ में बाँधा जाता है।

पुराणों में ऐसी भी मान्यता है कि महर्षि दुर्वासा ने ग्रहों के प्रकोप से बचने हेतु रक्षाबंधन की व्यवस्था दी थी। महाभारत युग में भगवान श्रीकृष्ण ने भी ऋषियों को पूज्य मानकर उनसे रक्षा-सूत्र बँधवाने को आवश्यक माना था ताकि ऋषियों के तप बल से भक्तों की रक्षा की जा सके।

ऐतिहासिक कारणों से मध्ययुगीन भारत में रक्षाबंधन का पर्व मनाया जाता था। शायद हमलावरों की वजह से महिलाओं के शील की रक्षा हेतु इस पर्व की महत्ता में इजाफा हुआ हो। तभी महिलाएँ सगे भाइयों या मुँहबोले भाइयों को रक्षासूत्र बाँधने लगीं। यह एक धर्म-बंधन था।

रक्षाबंधन पर्व पुरोहितों द्वारा किया जाने वाला आशीर्वाद कर्म भी माना जाता है। ये ब्राह्मणों द्वारा यजमान के दाहिने हाथ में बाँधा जाता है।

रक्षाबंधन का एक मंत्र भी है, जो पंडित रक्षा-सूत्र बाँधते समय पढ़ते हैं :

येन बद्धो बली राजा दानवेन्द्रो महाबलः।
तेन त्वां प्रतिबध्नामि रक्षे माचल माचलः॥

भविष्योत्तर पुराण में राजा बलि (श्रीरामचरित मानस के बालि नहीं) जिस रक्षाबंधन में बाँधे गए थे, उसकी कथा अक्सर उद्धृत की जाती है। बलि के संबंध में विष्णु के पाँचवें अवतार (पहला अवतार मानवों में राम थे) वामन की कथा है कि बलि से संकल्प लेकर उन्होंने तीन कदमों में तीनों लोकों में सबकुछ नाप लिया था। वस्तुतः दो ही कदमों में वामन रूपी विष्णु ने सबकुछ नाप लिया था और फिर तीसरे कदम,जो बलि के सिर पर रखा था, उससे उसे पाताल लोक पहुँचा दिया था। लगता है रक्षाबंधन की परंपरा तब से किसी न किसी रूप में विद्यमान थी।

मंगलवार, अगस्त 10, 2010

दरिद्रता से मुक्ति

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निर्धनता से मुक्ति

लेख साभार: गुरुत्व ज्योतिष पत्रिका
http://gurutvajyotish.blogspot.com/

 
अहो दुःखमहो दुःखमहो दुःखं दरिद्रता (दरिद्रता व्यक्ति का सब से बडा दुःख हैं)

 
विश्व के हर देश, समाज और संस्कृति में कई तरह कि मान्यताए प्रचलित होती हैं, जो व्यक्ति के अंतर मन में लम्बे समय तक घर कर जाती हैं। इस विषय में जबतक योग्य मार्गदर्शन या ज्ञान प्राप्त नहीं हो जाता तबतक व्यक्ति अपनी समस्याओं से छुटकारा नहीं प्राप्त कर पाता।
एसी हि मान्यता धन अभाव में भारतीय समाजमें अत्याधिक प्रचलित हैं वह हैं,
  • भाग्य में जो लिखा हैं वहीं होगा!,
  • नसीब में जो होगा वहीं होता हैं!,
  • भगवान कि इच्छा के आगे किस कि चलती हैं!,
  • भगवान ने दुःख लिखा हैं तो क्या करे!,
  • हमारे तो अमुख ग्रह हि खरब चल रहे हैं,
  • हमारा तो नसीब ही खराब हैं.............. इत्यादि एसे अनेको शब्द से हर व्यक्ति अच्छी तरह वाकीफ हैं।
सर्वशून्या दरिद्रता ।
अर्थात: जब दरिद्रता आती हैं तब मानव का सर्वस्व चला जाता हैं।

 
इन शब्दो से तो एसा प्रतित होता हैं मानो व्यक्ति इन शब्दो का प्रयोग करके अपने दरिद्र होने का गौरव व्यक्त कर रहा हों! मानो जेसे दरिद्रता उसके लिये किसी जंग में जीते हुवे मेडल जेसी हों! एसे हि भ्रम पैदा करने वाली धारणाओं के चलते व्यक्ति का आज यह हाल हैं। एवं इसी कारण वह धन उस्से दिन प्रति दिन दूर होता चलाजाता हैं। इस लिये कुछ लोगो के पास में जीवन के सभी सुख साधन उप्लब्ध होते हैं तो कोइ भीख मांग रहा होता हैं।
 
व्यक्ति आज दरिद्र हैं, निर्धन हैं तो वह उसके निजी कर्मो का फल मात्र हैं। आपकी दरिद्रता किसी ग्रह के कारण नहीं ग्रह तो केवल व्यक्ति के कर्मो का फल प्रदान करने हेतु विधाताके सहयोगी हैं।
 
दरिद्र व्यक्ति अपनी गलतीयां अपने नसीब और भगवान पर लाद देते हैं। एसा व्यक्ति अपनी गलतीयां सुधार कर अपने कर्मो के बल से धनवान नहीं बनना चाहता। इस कारण व्यक्ति स्वयं हि अपने भाग्य को कोस रहा हैं।
 
व्यक्ति अपने जीवन में दरिद्रता को पीछे छोड आगे बढने के उपाय खोजने बजाय एसे शब्दो का प्रयोग कर अपने आस-पास में नकारात्मक उर्जा (ओरा) निर्मित करलेता हैं। जिसके फल स्वरुप नकारत्मक उर्जा उसे जीवन में अथक परीश्रम करने के बावजूद भी उसे उचित सफलता दिलाने हेतु असमर्थ रहती है। यदि व्यक्ति के मन में हि दरिद्रता का नकारात्मक भाव घर कर गया हैं तो
 
उसके जीवनमें धन-समृद्धि केसे आयेगी? केसे वह व्यक्ति जीवन के समस्त भौतिक सुख समृद्धि एवं ऎश्वर्य को प्राप्त करने में सफल हो पायेग? हालकि हर व्यक्ति धन प्राप्ति हेतु मेहनत करने कि इच्छा नहीं रखता, लेकिन उसकी खूब प्रगती हो, वह जीवन में खूब आगे बढे, ढेर सारा धन कमाये एसे दिवा स्वप्न वह खूब देखता हैं, उसे स्वप्न लोक में विचरण करना तो रास आता हैं, लेकिन व्यक्ति अपने उन सपनो को पूर्ण करने का सार्थक प्रयास नहीं करता।
 
उत्पद्यन्ते विलीयन्ते दरिद्राणां मनोरथाः ।
अर्थात: दरिद्र मानव की इच्छाएँ मन में उठती हैं और मनमें हि विलीन हो जाती हैं अथवा पूरी नहीं हो पाती
 
यदि आप एसे व्यक्ति को एसा कहें कि आप भी धनवान हो सकते हैं, तो वह निराशावाले भाव से हास्य तरंग बिखेरते हुवे आप से कहेगा क्या भाई आप मेरा मजाक उडारहे हों। मैं यो मुश्किल से अपने और अपने परिवार के लिये दों वक्त कि रोटी जुटा पारहा हुं, और आप धनवान होने कि बात करते हैं। व्यवहारीकता से देखे तो उसकी बात भी गलत नहीं हैं, सामान्य या अति सामान्य व्यक्ति जो मुश्किल से अपनी जरुरतो को पूरा करा हैं। वह व्यक्ति होने कि सोच केसे सकता है? अपनी हालत को मुश्किल से टिकाके रखने का प्रयास कर रहा हो वहा अपनी प्रगति कि उसे सुझ केसे सकती हैं? लेकिन इस व्यवहारीक बात को वहीं तक सीमीत रखकर अपने मुद्दे पर वापस आते हैं।
 
सामान्य व्यक्ति जब अपने धनवान होने के स्वप्न देखता हैं तो उसे लगता हैं वह गलत चक्कर में पड जायेगा, इस लिये ज्यादातर मामलो में व्यक्ति अपने धनवान होने का विचार यहीं पर रोक देता हैं। यहि सबसे बडी भूल हो जाती हैं, धनवान होने कि विचारों को व्यक्ति को रोकना नहीं चाहिये। उन विचारों को अपने अंतर मन में प्रवेश करने दें, उन विचारों को समय के साथ साथ द्रढ बनाए। वर्तमान कि प्रतिकूल परीस्थिती को ध्यानमें रखने के साथ हि भविष्य में समृद्धि प्राप्त करने के विचार भी अपने अंदर तरंगीत करते रहें।
 
हमारे ॠषी-मुनी ने हजारो वर्ष पूर्व अपने तपोबल से ज्ञात कर लिया था कि मनुष्य कि शक्तियां अपार और अनंत हैं। जीसे आज का आधुनिक विज्ञान भी मान चुका हैं कि एक व्यक्ति अपनी वास्तवीक शक्ति का मात्र ३(तीन) प्रतिशत इस्तेमाल करता हैं। थिक इसी प्रकार आपके भीतर भी परमात्मा कि अपार शक्तियां मौजुद हैं बस उन शक्तिओं को उजागर करने कि जरुरत मात्र हैं, आप अपने अंदर उठनेवाली इन तरंगो के कारण आपके आस-पास का वातावतण सकारात्मक उर्जा से भर जायेगा एवं यह उर्जा आपके अंतर मन कि गहराई तक प्रवेश कर गई तो इन शक्तियो से आपको आत्म बल कि प्राप्ति होगी जो आपको इस और अग्रस्त होने का मार्ग स्वतः हि खूलने लगेगा। फिर आपकी मंझिल आपसे दूर नहीं रह जायेगी। व्यक्ति यदि एक बार चाहले तो वह अपनी स्थिती में परिवर्तन लासकता हैं बस जरुरत हैं एक द्रढ संकल्प कि।

 
उद्यमे नास्ति दारिद्रयम् ।
अर्थात: उद्यम करने से दरिद्रता की नहीं रह जाती ।

 
हर निर्धन या दरिद्र व्यक्ति को यहि सोच रखनी चाहिये कि मुझे धनवान बनना हैं।
यदि इस बात पर भी यदि आपको हसी आजाये तो समज लेना कि यह आपके विचारों कि निर्धनता हैं। यह वहीं मानसिकता हैं।
जो सदीयों से हमारे देश के अनेक व्यक्ति के अंदर घर कर गई हैं। इसका तात्पर्य कुछ एसा प्रतित होता हैं कि मानो व्यक्ति कह रहा हों कि हे समृद्धि आप मेरे पास आये ये मेरी इच्छा हैं पर आप मेरे पास आयेगी इस बात पर मुझे विश्वास नहीं। मुझे संदेह हैं, कि मैं आपको पासकता हुं! सायद आप मेरे जेसे निर्धन व्यक्ति के लिये नहीं हैं।
 
क्योकि आप यहा अपनी निर्धनता का कारणा भी ढूंढ लेता हैं, इस लिये आप निर्धन हैं। अभी तक मेने समृद्धि पाने के सभी प्रयास किये जो निष्फल रहे, और आप मेरे से दूर हि रही हैं। इस लिये मुझे विश्वास नहीं हैं, और मेने तुजे पाने के इच्छाभी त्यागदी हैं। क्योकि तुझे पानेका जितना चाहे प्रयास करलूं पत आप मिलोगे उसकी मुझे आशा नहीं हैं।
 
जिस व्यक्ति के भीतर एसे विचार आते हो वह केसे धनवान हो सकता हैं! लक्ष्मी प्राप्ति हेतु मंत्र जाप साधना इत्यादि करले पर मनमें यदि अलक्ष्मी के विचार घर कर जाये फिर व्यक्ति दरिद्र रह जाये इसमें कोन सी नयी बात हैं।
 
दरिद्रः पुरुषः लोके शववल्लोकनिन्दितः ।
अर्थात: दुनिया में दरिद्र मानव मुर्दे की तरह निंदनीय गिना जाता है ।

 
दरिद्रता-गरीबी-दीनता हीनता एक अभिशाप हैं। गरीब या निर्धन व्यक्ति को सब लोग ओछि नजरोसे देखते हैं, उसका सब तिरस्कार करते हैं, अपमानित करते हैं एवं निर्धन व्यक्ति हमेशा समाज कि अवहेलना का शिकार होता हैं।
 
दरिद्रता के विचार जब व्यक्ति के अंदर घरकर जाते हैं तो वह समाज के डर से अपने जीवन को दुःख दर्द एवं अभावो के सहारे हि खिचता चलाजाता हैं उसे अभावों में जीवन जीने कि आदत पड जाती हैं। निर्धनता का भार उसे भीतर से झंझोरकर रख देता हैं जिसके फल स्वरुप व्यक्ति के विवेक विचार इत्यादि का दमन होजाता हैं।, जिस कारण व्यक्ति परिश्रम हिन व आलसी बनजाता हैं। उसकी सोचने समझने और मन को सकारत्मक उर्जा से तरंगीत करने वाले भाव संकूचित होते चले जाते हैं। अब यह विचार अंदर जाने वाले नहीं हैं एसे हि विचार उसे हमेशा कि लिये दरिद्र,गरीब, दीन, अभागा, कायर और दूसरों कि दया पर जीवन जीनेवाल बनादेता हैं। कोइ उसे पसंद नाहीं करता! व्यक्ति चिंता हि आग में जलता रहता हैं। परेशानीया उसका पीछा नहीं छोडती।

लम्बे समय तक दरिद्रता का बोझ ढोणे वाला व्यक्ति समय से पहले वृद्ध होजाता हैं, वह तुच्छ, हीन, कंगाल, रोग से पीडित आसक्त होकर समय बितने के साथ मंदबुद्धिअ का बनजाता हैं। व्यक्ति स्वयं हि अपना घातक शत्रु बन जाता हैं। उसका जीवन अंधकारमय प्रतित होता हैं।
 
व्यक्ति मेहनत मेहनत करता हैं, मजदूरी करता हैं। उसकी मेहनत का उसे पूरा मूल्य भी नहीं मिलता!, वह मांग भी नहीं सकता। उसका चारों और से शोषण होता हैं, लोग उसकी मजबूरी का फायदा उठाते हैं।

सामान्य सामान उठाने वाले मजदूर जो फटे कपडोमें होते हैं उसे उसकी मजदूरीका 15-20 रुपये देने के लिये आनाकानी कर उसे 5-10 रुपये देनेवाले लोग हमने बहोत देखे हैं वहीं लोग बडी होटलों में सूट-बूटा टाई बांधे वेटरको उसके बीना मंगे अपना रुतबा और अपने धनवान होने का दिखा करने के लिये उसे 50-100 रुपये टीप में देने से नहीं हिचकिचातें एसे लोग भी बहोत देखे हैं हमने और आपने।
 
यहा गहराई से सोचने वाली एक बात हैं यहा व्यक्ति वहीं हैं सिर्फ उसके आस-पासका माहोल बदल जाता हैं, और इस माहोल के बदलने से उसके वर्तन में बदलाव आजाता हैं। इसाका कारण हैं मजदूर का स्वयं का धन नहीं प्राप्त करने कि अपनी अक्षमता, दरिद्रता का विचार करना एवं उसका दरिद्र दिखना इन दोनो कारणो से धनवान मजदूर को दबाता हैं।
 
यह कहावत हो आपने सुनिही होगी "जो दिखता हैं वहीं बिकता हैं" इसी कारण से वेटर अपनी उत्तम सेवा एवं रौबदार कपडो के दम के साथ उसकी आसपासका महौल जो कि आलिशान एवं शानदार होता हैं। इस कारण से उन्हें टिप के तौरपर बिना मांगे रुपये मिलजाते हैं।

 
कुपात्र दानात् च भवेत् दरिद्रो दारिद्र्य दोषेण करोति पापम् ।
पापप्रभावात् नरकं प्रयाति पुनर्दरिद्रः पुनरेव पापी ॥
अर्थात: कुपात्र को दान देने से दरिद्री बनता है । दारिद्र्य दोष से पाप होता है । पाप के प्रभाव से नरक में जाता है; फिर से दरिद्री और फिर से पाप होता है ।
 
हमने बहोत सारे एसे लोग भी देखे हैं जो हर महिने हजारो लाखो रुपये कमाते हैं फिर भी अन्य लोगो के सामने रोते फिरते हैं, मेरे पास धन नहीं हैं, घर में खाने के पैसे नहीं हैं, मेरी तो हालत बहोत खरब चल रहीं हैं............ इत्यादि ढेरो वाक्य सुने हैं।
 
क्या मिलता हैं? धन होते हुवे भी रोने से। एसे रोने से कोई देकर नहीं जाने वाल आपको धन। हां इस्से, उधर मांगने वाले मांगने कि हिम्मत नहीं करेंगे। लेकिन बिनामांगे हि क्यो रोना?
 
एसे लोगो के पास भविष्य में वास्तव में धन नहीं रह जाता। यातो उनका धन-संपदा उनकी संताने नष्ट कर देती हैं, घर में किसी ना किसी प्रकार का रोग लगारहता हैं जिसके कारण उनका संचित किया हुवा धन भी डॉक्टरो के चक्कार काट काट कर खत्म होजाता हैं और उपर से कर्ज कर लेते हैं, कोइना कोइ विवादो में उनका धन फसा रहता हैं चाहे वह किसी को सूद में दिया हो या कहीं पूंजी निवेश में नुक्शान ही होते हुवे लोगो को हमने स्वयं देखा हैं।
यदि आप यह कार्य कर रहें हैं तो अपनी आंखे खोल दें और अपने निर्धन होने का रोना छोडदे।
 
हमारे देश में आज भी लाखो करोडो लोग अपने भाग्य को दोष देनेवाले भरे पडे हैं।

 
दरिद्रता का मुख्य कारण हैं व्यक्ति का आलसी होना।

 
आलस कबहुँ न कीजिए, आलस अरि सम जानि।
आलस से विद्या घटे, सुख-सम्पत्ति की हानि॥

 
इस लिये आप चाहें जिस किसी भी कारण से निर्धन हो, तो आप निराश मत होईये आलस्य एवं नकारात्म विचारों को त्यागकर अपने प्रयासो को सफल बनाने हेतु प्रयास रत हो जाए। यदि आपको अपने कार्यो में सफल होने का मर्ग प्राप्त नहीं हो रहा हैं। तो आप आध्यात्मिक माध्यम से सहायता प्राप्त करने का प्रयास करें।

निर्धनता-दरिद्रता निवारण हेतु गुरुत्व कार्यालय द्वारा संचालित ब्लोग http://www.gurutvakaryalay.blogspot.com/  पर मंत्र एवं उपाय उपलब्ध हैं। आप दरिद्रता निवारण हेतु अन्य सामग्रीया हमारे द्वारा प्राप्त कर सकते हैं।


>> आने वाले अक्टूबर/नवम्बर अंक में में दरिद्रता निवारण हेतु अनेको जानकारी एवं उपाय उपलब्ध कराने हेतु हम प्रयास रत हैं।

सोमवार, अगस्त 09, 2010

शिव पार्वती का विवाह

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शिव पार्वती का विवाह




सती के वियोग में शंकरजी की दयनीय दशा हो गई। शिव हर पल सती का ही ध्यान करते रहते और उन्हीं की चर्चा में व्यस्त रहते। उधर सती ने भी शरीर का त्याग करते समय संकल्प किया था कि मैं राजा हिमालय के यहाँ जन्म लेकर शंकरजी की अर्द्धांगिनी बनूँगी।

जगत जननी जगदम्बा का संकल्प व्यर्थ होने से तो रहा। वे उचित समय पर राजा हिमालय कि पत्नी मेनका के गर्भ में प्रविष्ट होकर उनकी कोख में से प्रकट हुईं। पर्वतराज कि पुत्री होने के कारण मां जगदम्बा इस जन्म में पार्वती कहलाईं। जब पार्वती बड़ी होकर सयानी हुईं तो उनके माता-पिता को योग्य वर तलाश करने की चिंता सताने लगी।

एक दिन अचानक देवर्षि नारद राजा हिमालय के महल में आ पहुँचे और पार्वती को देख कहने लगे कि इसका विवाह शंकरजी के साथ होना चाहिए और वे ही सभी दृष्टि से इसके योग्य हैं। पार्वती के माता-पिता को नारद ने जब यह बताया कि पार्वती साक्षात जगदम्बा के रुपमें इस जन्म में आपके यहा प्रकट हुइं हैं। उनके आनंद ठिकाना न रहा।

एक दिन अचानक भगवान शंकर सती के वियोग में घूमते-घूमते हिमालय प्रदेश में जा पहुँचे और पास हि कि गंगावतरण में तपस्या करने लगे। जब हिमालय को इसकी जानकारी मिली तो वे पार्वती को लेकर शिवजी के पास गए। राजा ने शिवजी से विनम्रतापूर्वक अपनी पुत्री पार्वती को सेवा में ग्रहण करने की प्रार्थना की। शिवजी ने पहले तो आनाकानी की, किंतु पार्वती की भक्ति देखकर वे उनका आग्रह नहीं टाल पाये। शिवजी से अनुमति मिलने के बाद तो पार्वती प्रतिदिन अपनी सखियों को साथ ले शिवकी सेवा करने लगीं। पार्वती इस बात का सदा ध्यान रखती थीं कि शिवजी को किसी भी प्रकार का कष्ट न हो। पार्वती प्रतिदिन शिव के चरण धोकर चरणोदक ग्रहण करतीं और षोडशोपचार से पूजा करतीं। इसी तरह पार्वती को भगवान शंकर की सेवा करते दीर्घ समय व्यतीत हो गया। किन्तु पार्वती जैसी सुंदर बाला से इस प्रकार एकांत में सेवा लाभ लेते रहने पर भी भगवान शंकर के मन में कभी विकार नहीं उतपन्न हुआ।

शिव हमेशा अपनी समाधि में ही निश्चल रहते। उधर देवताओं को तारक नाम का असुर बड़ा त्रास देने लगा था। ब्रह्मा जी ने उस सभी देवता को बताया, इस दैत्य की मृत्यु केवल शिव जी के वीर्य से उत्पन्न पुत्र के हाथों ही हो सकती हैं। सभी देवता शिव-पार्वती का विवाह कराने का प्रयास करने लगे। देवताओं ने शिव को पार्वती के प्रति अनुरक्त करने के लिए कामदेव को उनके पास भेजा, किन्तु पुष्पायुध का पुष्पबाण भी शंकर के मन को विक्षुब्ध न कर सका। उलटा कामदेव शिवकी क्रोधाग्नि से भस्म हो गए।

इसके बाद शंकर भी वहाँ अधिक नहीं रहना चाहते थे इस लिये शिव कैलास की ओर चल दिए। पार्वती को शंकर की सेवा से वंचित होने का बड़ा दुःख हुआ, किंतु उन्होंने निराश न होकर अब की बार तप द्वारा शंकर को संतुष्ट करने की मन में ठानी।

उनकी माता ने उन्हें सुकुमार एवं तप के अयोग्य समझकर बहुत मना किया, किन्तु पार्वती पर इसका कोई असर नहीं हुआ। पार्वती अपने संकल्प से वे तनिक भी विचलित नहीं हुईं। माता पर्वती भी घर से निकल उसी शिखर पर तपस्या करने लगीं, जहाँ शिवजी ने तपस्या की थी।

शिखर पर तपस्या में पर्वतीने पहले वर्ष फलाहार से जीवन व्यतीत किया, दूसरे वर्ष वे वृक्षों के पत्ते खाकर रहने लगीं और फिर तो उन्होंने पर्ण का भी त्याग कर दिया।

इस प्रकार पार्वती ने तीन हजार वर्ष तक तपस्या की। पार्वती कि कठोर तपस्या को देख ऋषि-मुनि भी दंग रह गए। अंत में भगवान भोले का आसन हिला। उन्होंने पार्वती की परीक्षा के लिए पहले सप्तर्षियों को भेजा और पीछे स्वयं वटुवेश धारण कर पार्वती की परीक्षा के निमित्त प्रस्थान किया।

जब शिवने सब प्रकार से जाँच-परखकर देख लिया कि पार्वती कि उनमें अविचल निष्ठा हैं, तब तो वे अपने को अधिक देर तक न छिपा सके। वे तुरंत अपने असली रूप में पार्वती के सामने प्रकट हो गए और उन्हें पाणिग्रहण का वरदान देकर अंतर्धान हो गए।

पार्वती अपने तप को पूर्ण होते देख घर लौट आईं और अपने माता-पिता से सारा वृत्तांत कह सुनाया। अपनी दुलारी पुत्री की कठोर तपस्या को फलीभूत होता देखकर माता-पिता के आनंद का ठिकाना नहीं रहा। उधर शंकरजी ने सप्तर्षियों को विवाह का प्रस्ताव लेकर हिमालय के पास भेजा और इस प्रकार विवाह की शुभ तिथि निश्चित होगई।

सप्तर्षियों द्वारा विवाह की तिथि निश्चित कर दिए जाने के बाद भगवान् शंकरजी ने नारदजी द्वारा सारे देवताओं को विवाह में सम्मिलित होने के लिए आदरपूर्वक निमंत्रित किया और अपने गणों को बारात की तैयारी करने का आदेश दिया।

शिवजी के इस आदेश से अत्यंत प्रसन्न होकर गणेश्वर शंखकर्ण, केकराक्ष, विकृत, विशाख, विकृतानन, दुन्दुभ, कपाल, कुंडक, काकपादोदर, मधुपिंग, प्रमथ, वीरभद्र आदि गणों के अध्यक्ष अपने-अपने गणों को साथ लेकर चल पड़े।

नंदी, क्षेत्रपाल, भैरव आदि गणराज भी कोटि-कोटि गणों के साथ निकल पड़े। ये सभी तीन नेत्रों वाले थे। सबके मस्तक पर चंद्रमा और गले में नीले चिन्ह थे। सभी ने रुद्राक्ष के आभूषण पहन रखे थे। सभी के शरीर पर उत्तम भस्म लगी हुई थी।

इन गणों के साथ शंकरजी के भूतों, प्रेतों, पिशाचों की सेना भी आकर सम्मिलित हो गई।

इनमें डाकनी, शाकिनी, यातुधान, वेताल, ब्रह्मराक्षस आदि भी शामिल थे। इन सभी के रूप-रंग, आकार-प्रकार, चेष्टाएँ, वेश-भूषा, हाव-भाव आदि सभी कुछ अत्यंत विचित्र थे। वे सबके सब अपनी तरंग में मस्त होकर नाचते-गाते और मौज उड़ाते हुए शंकरजी के चारों ओर एकत्रित हो गए।

चंडीदेवी बड़ी प्रसन्नता के साथ उत्सव मनाती हुई भगवान रुद्रदेव की बहन बनकर वहाँ आ पहुँचीं। उन्होंने सर्पों के आभूषण पहन रखे थे। वे प्रेत पर बैठकर अपने मस्तक पर सोने का कलश धारण किए हुए थीं।

धीरे-धीरे वहाँ सारे देवता भी एकत्र हो गए। उस देवमंडली के बीच में भगवान श्री विष्णु गरुड़ पर विराजमान थे। पितामह ब्रह्माजी भी उनके पास में मूर्तिमान्वेदों, शास्त्रों, पुराणों, आगमों, सनकाद महासिद्धों, प्रजापतियों, पुत्रों तथा कई परिजनों के साथ उपस्थित थे।

देवराज इंद्र भी कई आभूषण पहन अपने ऐरावत गज पर बैठ वहाँ पहुँचे थे। सभी प्रमुख ऋषि भी वहाँ आ गए थे। तुम्बुरु, नारद, हाहा और हूहू आदि श्रेष्ठ गंधर्व तथा किन्नर भी शिवजी की बारात की शोभा बढ़ाने के लिए वहाँ पहुँच गए थे। इनके साथ ही सभी जगन्माताएँ, देवकन्याएँ, देवियाँ तथा पवित्र देवांगनाएँ भी वहाँ आ गई थीं। इन सभी के वहाँ मिलने के बाद भगवान शंकरजी अपने स्फुटिक जैसे उज्ज्वल, सुंदर वृषभ पर सवार हुए। दूल्हे के वेश में शिवजी की शोभा निराली ही छटक रही थी। इस दिव्य और विचित्र बारात के प्रस्थान के समय डमरुओं की डम-डम, शंखों के गंभीर नाद, ऋषियों-महर्षियों के मंत्रोच्चार, यक्षों, किन्नरों, गन्धर्वों के सरस गायन और देवांगनाओं के मनमोहक नृत्य और मंगल गीतों की गूँज से तीनों लोक परिव्याप्त हो उठे।

उधर हिमालय ने विवाह के लिए बड़ी धूम-धाम से तैयारियाँ कीं और शुभ लग्न में शिवजी की बारात हिमालय के द्वार पर आ लगी। पहले तो शिवजी का विकट रूप तथा उनकी भूत-प्रेतों की सेना को देखकर मैना बहुत डर गईं और उन्हें अपनी कन्या का पाणिग्रहण कराने में आनाकानी करने लगीं। पीछे से जब उन्होंने शंकरजी का करोड़ों कामदेवों को लजाने वाला सोलह वर्ष की अवस्था का परम लावण्यमय रूप देखा तो वे देह गेह कि सुधि भूल गईं और शंकर पर अपनी कन्या के साथ ही साथ अपनी आत्मा को भी न्योछावर कर दिया। शिव गौरी का विवाह आनंद पूर्वक संपन्न हुआ। हिमाचल ने कन्यादान दिया। विष्णु भगवान तथा अन्यान्य देव और देव-रमणियों ने नाना प्रकार के उपहार भेंट किए। ब्रह्माजी ने वेदोक्त रीति से विवाह करवाया। सब लोग अमित उत्साह से भरे अपने-अपने स्थानों को लौट गए।

सोलह सोमवार व्रतकथा

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सोलह सोमवार व्रतकथा



मृत्यु लोक में विवाह करने की इच्छा करके एक बार श्री भगवान शिवजी माता पार्वती के साथ पधारे वहाँ वे भ्रमण करते-करते विदर्भ देशांतर्गत अमरावती नाम की अतीव रमणीक नगरी में पहुँचे । अमरावती नगरी अमरपुरी के सदृश सब प्रकार के सुखों से परिपूर्ण थी । उसमें वहां के महाराज का बनाया हुआ अति रमणीक शिवजी का मन्दिर बना था । उसमें भगवान शंकर भगवती पार्वती के साथ निवास करने लगे । एक समय माता पार्वती प्राणपति को प्रसन्न देख के मनोविनोद करने की इच्छा से बोली – हे माहाराज, आज तो हम आप दोनों चौसर खेलें । शिवजी ने प्राणप्रिया की बात को मान लिया और चौसर खेलने लगे । उसी समय इस स्थान पर मन्दिर के पुजारी ब्राह्मण मन्दिर मे पूजा करने को आया । माताजी ने ब्राहमण से प्रश्न किया कि पुजारी जी बताओ कि इस बाजी में दोनों में किसकी जीत होगी । ब्राहमण बिना विचारे ही शीघ्र बोल उठा कि महादेवजी की जीत होगी । थोड़ी देर में बाजी समाप्त हो गई और पार्वती जी की विजय हुई । अब तो पार्वती जी ब्राह्मण को झूठ बोलने के अपराध के कारण श्राप देने को उघत हुई । तब महादेव जी ने पार्वती जी को बहुत समझाया परन्तु उन्होंने ब्राह्मण को कोढ़ी होने का श्राप दे दिया । कुछ समय बाद पार्वती जी के श्रापवश पुजारी के शरीर में कोढ़ पैदा हो गया । इस प्रकार पुजारी अनेक प्रकार से दुखी रहने लगा । इस तरह के कष्ट भोगते हुए जब बहुत दिन हो गये तो देवलोक की अप्सराएं शिवजी की पूजा करने उसी मन्दिर मे पधारी और पुजारी के कष्ट को देखकर बड़े दया भाव से उससे रोगी होने का कारण पूछने लगी – पुजारी ने निःसंकोच सब बाते उनसे कह दी । वे अप्सरायें बोली – हे पुजारी । अब तुम अधिक दुखी मत होना । भगवान शिवजी तुम्हारे कष्ट को दूर कर देंगे । तुम सब बातों में श्रेष्ठ षोडश सोमवार का व्रत भक्तिभाव से करो । तब पुजारी अप्सराओं से हाथ जोड़कर विनम्र भाव से षोडश सोमवार व्रत की विधि पूछने लगा । अप्सरायें बोली कि जिस दिन सोमवार हो उस दिन भक्ति के साथ व्रत करें । स्वच्छ वस्त्र पहनें आधा सेर गेहूँ का आटा ले । उसके तीन अंगा बनाये और घी, गुड़, दीप, नैवेघ, पुंगीफल, बेलपत्र, जनेऊ का जोड़ा, चन्दन, अक्षत, पुष्पादि के द्घारा प्रदोष काल में भगवान शंकर का विधि से पूजन करे तत्पश्चात अंगाऔं में से एक शिवजी को अर्पण करें बाकी दो को शिवजी का प्रसाद समझकर उपस्थित जनों में बांट दें । और आप भी प्रसाद पावें । इस विधि से सोलह सोमवार व्रत करें । तत्पश्चात् सत्रहवें सोमवार के दिन पाव सेर पवित्र गेहूं के आटे की बाटी बनायें । तद अनुसार घी और गुड़ मिलाकर चूरमा बनावें । और शिवजी का भोग लगाकर उपस्थित भक्तों में बांटे पीछे आप सकुटुंब प्रसादी लें तो भगवान शिवजी की कृपा से उसके मनोरथ पूर्ण हो जाते है । ऐसा कहकर अप्सरायें स्वर्ग को चली गयी । ब्राहमण ने यथा विधि षोड़श सोमवार व्रत किया तथा भगवान शिवजी की कृपा से रोग मुक्त होकर आनन्द से रहने लगा । कुछ दिन बाद जब फिर शिवजी और पार्वती उस मन्दिर में पधारे, तब ब्राहमण को निरोग देखकर पार्वती ने ब्राहमण से रोग-मुक्त होने का कारण पूछा तो ब्राहमण ने सोलह सोमवार व्रत कथा कह सुनाई । तब तो पार्वती जी अति प्रसन्न होकर ब्राहमण से व्रत की विधि पूछकर व्रत करने को तैयार हुई ।

व्रत करने के बाद उनकी मनोकामना पूर्ण हुई तथा उनके रुठे हुये पुत्र स्वामी कार्तिकेय स्वयं माता के आज्ञाकारी पुत्र हुए परन्तु कार्तिकेय जी को अपने विचार परिवर्तन का रहस्य जानने की इच्छा हुई और माता से बोले – हे माताजी आपने ऐसा कौन सा उपाय किया जिससे मेरा मन आपकी ओर आकर्षित हुआ । तब पार्वती जी ने वही षोड़श सोमवार व्रत कथा उनको सुनाई ।

स्वामी कार्तिकजी बोले कि इस व्रत को मैं भी करुंगा क्योंकि मेरा प्रियमित्र ब्राहमण दुखी दिल से परदेश चला गया है । हमें उससे मिलने की बहुत इच्छा है । कार्तिकेयजी ने भी इस व्रत को किया और उनका प्रिय मित्र मिल गया । मित्र ने इस आकस्मिक मिलन का भेद कार्तिकेयजी से पूछा तो वे बोले – हे मित्र । हमने तुम्हारे मिलने की इच्छा करके सोलह सोमवार का व्रत किया था । अब तो ब्राहमण मित्र को भी अपने विवाह की बड़ी इच्छा हुई । कार्तिकेयजी से व्रत की विधि पूछी और यथाविधि व्रत किया । व्रत के प्रभाव से जब वह किसी कार्यवश विदेश गया तो वहाँ के राजा की लड़की का स्वयंवर था । राजा ने प्रण किया था कि जिस राजकुमार के गले में सब प्रकार ऋंडारित हथिनी माला डालेगी मैं उसी के साथ प्यारी पुत्री का विवाह कर दूंगा । शिवजी की कृपा से ब्राहमण भी स्वयंवर देखने की इच्छा से राजसभा में एक ओर बैठ गया । नियत समय पर हथिनी आई और उसने जयमाला उस ब्राहमण के गले में डाल दी । राजा की प्रतिज्ञा के अनुसार बड़ी धूमधाम से कन्या का विवाह उस ब्राहमण के साथ कर दिया और ब्राहमण को बहुत-सा धन और सम्मान देकर संतुष्ट किया । ब्राहमण सुन्दर राजकन्या पाकर सुख से जीवन व्यतीत करने लगा । एक दिन राजकन्या ने अपने पति से प्रश्न किया । हे प्राणनाथ आपने ऐसा कौन-सा भारी पुण्य किया जिसके प्रभाव से हथिनी ने सब राजकुमारों को छोड़कर आपको वरण किया । ब्राहमण बोला – हे प्राणप्रिये । मैंने अपने मित्र कार्तिकेयजी के कथनानुसार सोलह सोमवार का व्रत किया था जिसके प्रभाव से मुझे तुम जैसी स्वरुपवान लक्ष्मी की प्राप्ति हुई । व्रत की महिमा को सुनकर राजकन्या को बड़ा आश्चर्य हुआ और वह भी पुत्र की कामना करके व्रत करने लगी । शिवजी की दया से उसके गर्भ से एक अति सुन्दर सुशील धर्मात्मा विद्घान पुत्र उत्पन्न हुआ । माता-पिता दोनों उस देव पुत्र को पाकर अति प्रसन्न हुए । और उनका लालन-पालन भली प्रकार से करने लगे ।

जब पुत्र समझदार हुआ तो एक दिन अपने माता से प्रश्न किया कि मां तूने कौन-सा तप किया है जो मेरे जैसा पुत्र तेरे गर्भ से उत्पन्न हुआ । माता ने पुत्र का प्रबल मनोरथ जान के अपने किये हुए सोलह सोमवार व्रत को विधि सहित पुत्र के सम्मुख प्रकट किया । पुत्र ने ऐसे सरल व्रत को सब तरह के मनोरथ पूर्ण करने वाला सुना तो वह भी इस व्रत को राज्याधिकार पाने की इच्छा से हर सोमवार को यथाविधि व्रत करने लगा । उसी समय एक देश के वृद्घ राजा के दूतों ने आकर उसको एक राजकन्या के लिये वरण किया । राजा ने अपनी पुत्री का विवाह ऐसे सर्वगुण सम्पन्न ब्राहमण युवक के साथ करके बड़ा सुख प्राप्त किया ।

वृद्घ राजा के दिवंगत हो जाने पर यही ब्राहमण बालक गद्दी पर बिठाया गया, क्योंकि दिवंगत भूप के कोई पुत्र नहीं था । राज्य का अधिकारी होकर भी वह ब्राहमण पुत्र अपने सोलह सोमवार के व्रत को कराता रहा । जब सत्रहवां सोमवार आया तो विप्र पुत्र ने अपनी प्रियतमा से सब पूजन सामग्री लेकर शिवालय में चलने के लिये कहा । परन्तु प्रियतमा ने उसकी आज्ञा की परवाह नहीं की । दास-दासियों द्घारा सब सामग्रियं शिवालय पहुँचवा दी और स्वयं नहीं गई । जब राजा ने शिवजी का पूजन किया, तब एक आकाशवाणी राजा के प्रति हुई । राजा ने सुना कि हे राजा । अपनी इस रानी को महल से निकाल दे नहीं तो तेरा सर्वनाश कर देगी । वाणी को सुनकर राजा के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा और तत्काल ही मंत्रणागृह में आकर अपने सभासदों को बुलाकर पूछने लगा कि हे मंत्रियों । मुझे आज शिवजी की वाणी हुई है कि राजा तू अपनी इस रानी को निकाल दे नहीं तो तेरा सर्वनाश कर देगी । मंत्री आदि सब बड़े विस्मय और दुःख में डूब गये क्योंकि जिस कन्या के साथ राज्य मिला है । राजा उसी को निकालने का जाल रचता है, यह कैसे हो सकेगा । अंत में राजा ने उसे अपने यहां से निकाल दिया । रानी दुःखी हृदय भाग्य को कोसती हुई नगर के बाहर चली गई । बिना पदत्राण, फटे वस्त्र पहने, भूख से दुखी धीरे-धीरे चलकर एक नगर में पहुँची । वहाँ एक बुढ़िया सूत कातकर बेचने को जाती थी । रानी की करुण दशा देख बोली चल तू मेरा सूत बिकवा दे । मैं वृद्घ हूँ, भाव नहीं जानती हूँ । ऐसी बात बुढ़िया की सुत रानी ने बुढ़िया के सर से सूत की गठरी उतार अपने सर पर रखी । थोड़ी देर बाद आंधी आई और बुढ़िया का सूत पोटली के सहित उड़ गया । बेचारी बुढ़िया पछताती रह गई और रानी को अपने साथ से दूर रहने को कह दिया । अब रानी एक तेली के घर गई, तो तेली के सब मटके शिवजी के प्रकोप के कारण चटक गये । ऐसी दशा देख तेली ने रानी को अपने घर से निकाल दिया । इस प्रकार रानी अत्यंत दुख पाती हुई सरिता के तट पर गई तो सरिता का समस्त जल सूख गया । तत्पश्चात् रानी एक वन में गई, वहां जाकर सरोवर में सीढ़ी से उतर पानी पीने को गई । उसके हाथ से जल स्पर्श होते ही सरोवर का नीलकमल के सदृश्य जल असंख्य कीड़ोमय गंदा हो गया ।

रानी ने भाग्य पर दोषारोपण करते हुए उस जल को पान करके पेड़ की शीतल छाया में विश्राम करना चाहा । वह रानी जिस पेड़ के नीचे जाती उस पेड़ के पत्ते तत्काल ही गिरते चले गये । वन, सरोवर के जल की ऐसी दशा देखकर गऊ चराते ग्वालों ने अपने गुंसाई जी से जो उस जंगल में स्थित मंदिर में पुजारी थे कही । गुंसाई जी के आदेशानुसार ग्वाले रानी को पकड़कर गुंसाई के पास ले गये । रानी की मुख कांति और शरीर शोभा देख गुंसाई जान गए । यह अवश्य ही कोई विधि की गति की मारी कोई कुलीन अबला है । ऐसा सोच पुजारी जी ने रानी के प्रति कहा कि पुत्री मैं तुमको पुत्री के समान रखूंगा । तुम मेंरे आश्रम में ही रहो । मैं तुम को किसी प्रकार का कष्ट नहीं होने दूंगा। गुंसाई के ऐसे वचन सुन रानी को धीरज हुआ और आश्रम में रहने लगी ।

आश्रम में रानी जो भोजन बनाती उसमें कीड़े पड़ जाते, जल भरकर लाती उसमें कीड़े पड़ जाते । अब तो गुंसाई जी भी दुःखी हुए और रानी से बोले कि हे बेटी । तेरे पर कौन से देवता का कोप है, जिससे तेरी ऐसी दशा है । पुजारी की बात सुन रानी ने शवजी की पूजा करने न जाने की कथा सुनाई तो पुजारी शिवजी महाराज की अनेक प्रकार से स्तुति करते हुए रानी के प्रति बोले कि पुत्री तुम सब मनोरथों के पूर्ण करने वाले सोलह सोमवार व्रत को करो । उसके प्रभाव से अपने कष्ट से मुक्त हो सकोगी । गुंसाई की बात सुनकर रानी ने सोलह सोमवार व्रत को विधिपूर्वक सम्पन्न किया और सत्रहवें सोमवार को पूजन के प्रभाव से राजा के हृदय में विचार उत्पन्न हुआ कि रानी को गए बहुत समय व्यतीत हो गया । न जाने कहां-कहां भटकती होगी, ढूंढना चाहिये ।

यह सोच रानी को तलाश करने चारों दिशाओं में दूत भेजे । वे तलाश करते हुए पुजारी के आश्रम में रानी को पाकर पुजारी से रानी को मांगने लगे, परन्तु पुजारी ने उनसे मना कर दिया तो दूत चुपचाप लौटे और आकर महाराज के सन्मुख रानी का पता बतलाने लगे । रानी का पता पाकर राजा स्वयं पुजारी के आश्रम में गये और पुजारी से प्रार्थना करने लगे कि महाराज । जो देवी आपके आश्रम में रहती है वह मेरी पत्नी ही । शिवजी के कोप से मैंने इसको त्याग दिया था । अब इस पर से शिवजी का प्रकोप शांत हो गया है । इसलिये मैं इसे लिवाने आया हूँ । आप इसेमेरे साथ चलने की आज्ञा दे दीजिये ।

गुंसाई जी ने राजा के वचन को सत्य समझकर रानी को राजा के साथ जाने की आज्ञा दे दी । गुंसाई की आज्ञा पाकर रानी प्रसन्न होकर राजा के महल में आई । नगर में अनेक प्रकार के बाजे बजने लगे । नगर निवासियों ने नगर के दरवाजे पर तोरण बन्दनवारों से विविध-विधि से नगर सजाया । घर-घर में मंगल गान होने लगे । पंड़ितों ने विविध वेद मंत्रों का उच्चारण करके अपनी राजरानी का आवाहन किया । इस प्रकार रानी ने पुनः अपनी राजधानी में प्रवेश किया । महाराज ने अनेक प्रकार से ब्राहमणों को दानादि देकर संतुष्ट किया ।

याचकों को धन-धान्य दिया । नगरी में स्थान-स्थान पर सदाव्रत खुलवाये । जहाँ भूखों को खाने को मिलता था । इस प्रकार से राजा शिवजी की कृपा का पात्र हो राजधानी में रानी के साथ अनेक तरह के सुखों का भोग भोग करते सोमवार व्रत करने लगे । विधिवत् शिव पूजन करते हुए, लोक के अनेकानेक सुखों को भोगने के पश्चात शिवपुरी को पधारे ऐसे ही जो मनुष्य मनसा वाचा कर्मणा द्घारा भक्ति सहित सोमवार का व्रत पूजन इत्यादि विधिवत् करता है वह इस लोक में समस्त सुखोंक को भोगकर अन्त में शिवपुरी को प्राप्त होता है । यह व्रत सब मनोरथों को पूर्ण करने वाला है ।

शिव और सती का प्रेम

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शिव और सती का प्रेम

लेख साभार: गुरुत्व ज्योतिष पत्रिका

दक्ष प्रजापति की कई पुत्रियां थी। सभी पुत्रियां गुणवती थीं। फिर भी दक्ष के मन में संतोष नहीं था। वे चाहते थे उनके घर में एक ऐसी पुत्री का जन्म हो, जो सर्व शक्ति-संपन्न हो एवं सर्व विजयिनी हो। जिसके कारण दक्ष एक ऐसी हि पुत्री के लिए तप करने लगे। तप करते-करते अधिक दिन बीत गए, तो भगवती आद्या ने प्रकट होकर कहा, 'मैं तुम्हारे तप से प्रसन्न हूं। तुम किस कारण वश तप कर रहे हों? दक्ष नें तप करने का कारण बताय तो मां बोली मैं स्वय पुत्री रूप में तुम्हारे यहां जन्म धारण करूंगी। मेरा नाम होगा सती। मैं सती के रूप में जन्म लेकर अपनी लीलाओं का विस्तार करूंगी। फलतः भगवती आद्या ने सती रूप में दक्ष के यहां जन्म लिया। सती दक्ष की सभी पुत्रियों में सबसे अलौकिक थीं। सतीने बाल्य अवस्था में ही कई ऐसे अलौकिक आश्चर्य चलित करने वाले कार्य कर दिखाए थे, जिन्हें देखकर स्वयं दक्ष को भी विस्मयता होती रहती थी। जब सती विवाह योग्य होगई, तो दक्ष को उनके लिए वर की चिंता होने लगी। उन्होंने ब्रह्मा जी से इस विषय में परामर्श किया। ब्रह्मा जी ने कहा, सती आद्या का अवतार हैं। आद्या आदि शक्ति और शिव आदि पुरुष हैं। अतः सती के विवाह के लिए शिव ही योग्य और उचित वर हैं। दक्ष ने ब्रह्मा जी की बात मानकर सती का विवाह भगवान शिव के साथ कर दिया। सती कैलाश में जाकर भगवान शिव के साथ रहने लगीं। भगवान शिव के दक्ष के दामाद थे, किंतु एक ऐसी घटना घटीत होगई जिसके कारण दक्ष के ह्रदय में भगवान शिव के प्रति बैर और विरोध भाव पैदा हो गया।

संपूर्ण घटना इस प्रकार हैं

एक बार देवलोक में ब्रह्मा ने धर्म के निरूपण के लिए एक सभा का आयोजन किया था। सभी बड़े-बड़े देवता सभा में एकत्र होगये थे। भगवान शिव भी इस सभा में बैठे थे। सभा मण्डल में दक्ष का आगमन हुआ। दक्ष के आगमन पर सभी देवता उठकर खड़े हो गए, पर भगवान शिव खड़े नहीं हुए। उन्होंने दक्ष को प्रणाम भी नहीं किया। फलतः दक्ष ने अपमान का अनुभव किया। केवल यही नहीं, उनके ह्रदय में भगवान शिव के प्रति ईर्ष्या की आग जल उठी। वे उनसे बदला लेने के लिए समय और अवसर की प्रतीक्षा करने लगे।

एक बार सती और शिव कैलाश पर्वत पर बैठे हुए परस्पर वार्तालाप कर रहे थे। उसी समय आकाश मार्ग से कई विमान कनखल कि ओर जाते हुए दिखाई पड़े। सती ने उन विमानों को दिखकर भगवान शिव से पूछा, 'प्रभो, ये सभी विमान किसके है और कहां जा रहे हैं? भगवान शकंर ने उत्तर दिया आपके पिता ने बहोत बडे यज्ञ का आयोजन किया हैं। समस्त देवता और देवांगनाएं इन विमानों में बैठकर उसी यज्ञ में सम्मिलित होने के लिए जा रहे हैं।'



इस पर सती ने दूसरा प्रश्न किया क्या मेरे पिता ने आपको यज्ञ में सम्मिलित होने के लिए नहीं बुलाया?

भगवान शंकर ने उत्तर दिया, आपके पिता मुझसे बैर रखते है, फिर वे मुझे क्यों बुलाने लगे?

सती मन ही मन सोचने लगीं फिर बोलीं यज्ञ के इस अवसर पर अवश्य मेरी सभी बहनें आएंगी। उनसे मिले हुए बहुत दिन हो गए। यदि आपकी अनुमति हो, तो मैं भी अपने पिता के घर जाना चाहती हूं। यज्ञ में सम्मिलित हो लूंगी और बहनों से भी मिलने का सुअवसर मिलेगा। भगवान शिव ने उत्तर दिया, इस समय वहां जाना उचित नहीं होगा। आपके पिता मुझसे जलते हैं हो सकता हैं वे आपका भी अपमान करें। बिना बुलाए किसी के घर जाना उचित नहीं होता हैं। इस पर सती ने प्रश्न किया एसा क्युं? भगवान शिव ने उत्तर दिया विवाहिता लड़की को बिना बुलाए पिता के घर नही जाना चाहिए, क्योंकि विवाह हो जाने पर लड़की अपने पति कि हो जाती हैं। पिता के घर से उसका संबंध टूट जाता हैं। लेकिन सती पीहर जाने के लिए हठ करती रहीं। अपनी बात बार-बात दोहराती रहीं। उनकी इच्छा देखकर भगवान शिव ने पीहर जाने की अनुमति दे दी। उनके साथ अपना एक गण भी साथ में भेज दिया उस गण का नाम वीरभद्र था। सती वीरभद्र के साथ अपने पिता के घर गईं।

घर में सतीसे किसी ने भी प्रेमपूर्वक वार्तालाप नहीं किया। दक्ष ने उन्हें देखकर कहा तुम क्या यहां मेरा अपमान

कराने आई हो? अपनी बहनों को तो देखो वे किस प्रकार भांति-भांति के अलंकारों और सुंदर वस्त्रों से सुसज्जित हैं। तुम्हारे शरीर पर मात्र बाघंबर हैं। तुम्हारा पति श्मशानवासी और भूतों का नायक हैं। वह तुम्हें बाघंबर छोड़कर और पहना ही क्या सकता हैं। दक्ष के कथन से सती के ह्रदय में पश्चाताप का सागर उमड़ पड़ा। वे सोचने लगीं उन्होंने यहां आकर अच्छा नहीं किया। भगवान ठीक ही कह रहे थे, बिना बुलाए पिता के घर भी नहीं जाना चाहिए। पर अब क्या हो सकता हैं? अब तो आ ही गई हूं।

पिता के कटु और अपमानजनक शब्द सुनकर भी सती मौन रहीं। वे उस यज्ञमंडल में गईं जहां सभी देवता और ॠषि-मुनि बैठे थे तथा यज्ञकुण्ड में धू-धू करती जलती हुई अग्नि में आहुतियां डाली जा रही थीं। सती ने यज्ञमंडप में सभी देवताओं के तो भाग देखे, किंतु भगवान शिव का भाग नहीं देखा। वे भगवान शिव का भाग न देखकर अपने पिता से बोलीं पितृश्रेष्ठ! यज्ञ में तो सबके भाग दिखाई पड़ रहे हैं किंतु कैलाशपति का भाग नहीं हैं। आपने उनका भाग क्यों नहीं रखा? दक्ष ने गर्व से उत्तर दिया मैं तुम्हारे पति शिव को देवता नहीं समझता। वह तो भूतों का स्वामी, नग्न रहने वाला और हड्डियों की माला धारण करने वाला हैं। वह देवताओं की पंक्ति में बैठने योग्य नहीं हैं। उसे कौन भाग देगा?

सती के नेत्र लाल हो उठे। उनकी भौंहे कुटिल हो गईं। उनका मुखमंडल प्रलय के सूर्य की भांति तेजोद्दीप्त हो उठा। उन्होंने पीड़ा से तिलमिलाते हुए कहा ओह! मैं इन शब्दों को कैसे सुन रहीं हूं मुझे धिक्कार हैं। देवताओ तुम्हें भी धिक्कार हैं! तुम भी उन कैलाशपति के लिए इन शब्दों को कैसे सुन रहे हो जो मंगल के प्रतीक हैं और जो क्षण मात्र में संपूर्ण सृष्टि को नष्ट करने की शक्ति रखते हैं। वे मेरे स्वामी हैं। नारी के लिए उसका पति ही स्वर्ग होता हैं। जो नारी अपने पति के लिए अपमान जनक शब्दों को सुनती हैं उसे नरक में जाना पड़ता हैं। पृथ्वी सुनो, आकाश सुनो और देवताओं, तुम भी सुनो! मेरे पिता ने मेरे स्वामी का अपमान किया हैं। मैं अब एक क्षण भी जीवित रहना नहीं चाहती। सती अपने कथन को समाप्त करती हुई यज्ञ के कुण्ड में कूद पड़ी। जलती हुई आहुतियों के साथ उनका शरीर भी जलने लगा। यज्ञमंडप में खलबली पैदा हो गई, हाहाकार मच गया। देवता उठकर खड़े हो गए। वीरभद्र क्रोध से कांप उटे। वे उछ्ल-उछलकर यज्ञ का विध्वंस करने लगे। यज्ञमंडप में भगदड़ मच गई। देवता और ॠषि-मुनि भाग खड़े हुए। वीरभद्र ने देखते ही देखते दक्ष का मस्तक काटकर फेंक दिया। समाचार भगवान शिव के कानों में भी पड़ा। वे प्रचंड आंधी की



भांति कनखल जा पहुंचे। सती के जले हुए शरीर को देखकर भगवान शिव ने अपने आपको भूल गए। सती के प्रेम और उनकी भक्ति ने शंकर के मन को व्याकुल कर दिया। उन शंकर के मन को व्याकुल कर दिया जिन्होंने काम पर भी विजय प्राप्त कि थी और जो सारी सृष्टि को नष्ट करने की क्षमता रखते थे। वे सती के प्रेम में खो गए, बेसुध हो गए।

भगवान शिव ने उन्मत कि भांति सती के जले हुए शरीर को कंधे पर रख लिया। वे सभी दिशाओं में भ्रमण करने लगे। शिव और सती के इस अलौकिक प्रेम को देखकर पृथ्वी रुक गई, हवा रूक गई, जल का प्रवाह ठहर गया और रुक गईं देवताओं की सांसे। सृष्टि व्याकुल हो उठी, सृष्टि के प्राणी पुकारने लगे— पाहिमाम! पाहिमाम! भयानक संकट उपस्थित देखकर सृष्टि के पालक भगवान विष्णु आगे बढ़े। वे भगवान शिव की बेसुधी में अपने चक्र से सती के एक-एक अंग को काट-काट कर गिराने लगे। धरती पर इक्यावन स्थानों में सती के अंग कट-कटकर गिरे। जब सती के सारे अंग कट कर गिर गए, तो भगवान शिव पुनः अपने आप में आए। जब वे अपने आप में आए, तो पुनः सृष्टि के सारे कार्य चलने लगे।

धरती पर जिन इक्यावन स्थानों में सती के अंग कट-कटकर गिरे थे, वे ही स्थान आज शक्ति के पीठ स्थान माने जाते हैं। आज भी उन स्थानों में सती का पूजन होता हैं, उपासना होती हैं। धन्य था शिव और सती का प्रेम। शिव और सती के प्रेम ने उन्हें अमर और वंदनीय बना दिया हैं।

शिव कामदेव कथा

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शिव कामदेव कथा



सतीजी के देहत्याग के पश्चात जब शिव जी तपस्या में लीन हो गये थे उस समय तारक नाम का एक असुर हुआ। जिसने अपने भुजबल, प्रताप और तेज से समस्त लोकों और लोकपालों पर विजय प्राप्त कर लिया जिसके फल स्वरूप सभी देवता सुख और सम्पत्ति से वंचित हो गये। सभी प्रकार से निराश देवतागण ब्रह्मा जी के पास सहायता के लिये पहुँचे। ब्रह्मा जी ने उस सभी देवता को बताया, इस दैत्य की मृत्यु केवल शिव जी के वीर्य से उत्पन्न पुत्र के हाथों ही हो सकती हैं। लेकिन सती के देहत्याग के बाद शिव जी विरक्त हो कर तपस्या में लीन हो गये हैं। सती जी ने हिमाचल के घर पार्वती जी के रूप में पुनः जन्म ले लिया हैं। अतः शिव जी का पार्वती से विवाह करने के लिये उनकी तपस्या को भंग करना आवश्यक हैं। आप लोग कामदेव को शिव जी के पास भेज कर उनकी तपस्या भंग करवाओ फिर उसके बाद हम उन्हें पार्वती जी से विवाह के लिये राजी करवा लेंगे।

ब्रह्मा जी के आदेश अनुसार देवताओं ने कामदेव से शिव जी की तपस्या भंग करने का अनुरोध किया। इस पर कामदेव ने कहा, शिव जी कि तपस्या भंग कर के मेरा कुशल नहीं होगा तथापि मैं आप लोगों का कार्य सिद्ध करूँगा।

इतना कहकर कामदेव पुष्प के धनुष से सुसज्जित होकर वसन्तादि अपने सहयोगी को अपने साथ लेकर शिवजी के तपस्या करने वाले स्थान पर पहुँच गये। वहाँ पर पहुँच कर कामदेव ने अपना ऐसा प्रभाव दिखाया कि वेदों की सारी मर्यादा धरी कि धरी रह गई। कामदेव के इस प्रभाव से भयभीत होकर ब्रह्मचर्य, संयम, नियम, धीरज, धर्म, ज्ञान, विज्ञान, वैराग्य आदि जो विवेक के गुण कहलाते हैं, भाग कर छिप गये। सम्पूर्ण जगत् में स्त्री-पुरुष एवं प्रकृति का समग्र प्राणी समुह सब अपनी-अपनी मर्यादा छोड़कर काम के वश में हो गये। आकाश, जल और पृथ्वी पर विचरण करने वाले समस्त पशु-पक्षी सब कुछ भुला कर केवल काम के वश हो गये। हजारो साल से तपस्या कर सिद्ध, विरक्त, महामुनि और महायोगी बनी विद्वान भी काम के वश में होकर योग संयम को त्याग स्त्री सुख पाने में मग्न हो गये। तो मनुष्यों कि बात ही क्या हो सकती हैं?

एसी स्थिती होने के पश्वयात भी कामदेव के इस कौतुक का शिव जी पर कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ा। इससे कामदेव भी भयभीत हो गये किन्तु अपने कार्य को पूर्ण किये बिना वापस लौटने में उन्हें संकोच हो रहा था । इसलिये उन्होंने तत्काल अपने सहायक ऋतुराज वसन्त को प्रकट कर किया। वृक्ष पुष्पों से सुशोभित हो गये, वन-उपवन, बावली-तालाब आदि हरे भेरे होकर परम सुहाने हो गये, शीतल एवं मंद-मंद सुगन्धित पवन चलने लगा, सरोवर कमल पुष्पों से परिपूरित हो गये, पुष्पों पर भ्रमर बीन-बीना ने लगे । राजहंस, कोयल और तोते रसीली बोली बोलने लगे, अप्सराएँ नृत्य एवं गान करने लगीं।

इस पर भी जब तपस्यारत शिव जी का कुछ भी प्रभाव न पड़ा तो क्रोधित कामदेव ने आम्रवृक्ष की डाल पर चढ़कर अपने पाँचों तीक्ष्ण पुष्प बाणों को छोड़ दिया जो कि शिव जी के हृदय में जाकर लगे। उनकी समाधि टूट गई जिससे उन्हें अत्यन्त क्षोभ हुआ। आम्रवृक्ष की डाल पर कामदेव को देख कर शिवजी क्रोधित हो कर उन्होंने अपना तीसरा नेत्र खोल दिया और देखते ही देखते कामदेव भस्म हो गये।

कामदेव कि पत्नी रति अपने पति कि ऎसी दशा सुनते ही रुदन करते हुए शिवजी के पास पहुंच गई। उसके पति विलाप से शिवजी क्रोध त्याग कर बोले, हे रति! विलाप मत कर जब पृथ्वी के भार को उतारने के लिये यदुवंश में श्री कृष्ण अवतार होगा तब तेरा पति उनके पुत्र (प्रद्युम्न) के रूप में उत्पन्न होगा और तुझे पुनः प्राप्त होगा। तब तक वह बिना शरीर के ही इस संसार में सर्वत्र व्याप्त होता रहेगा। अंगहीन हो जाने के कारण कामदेव को अनंग कहते हैं। इसके बाद ब्रह्मा जी सहित समस्त देवताओं ने शिव जी के पास आकर उनसे पार्वती जी से विवाह कर लेने के लिये प्रार्थना की जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया।

शिवलिंग के विभिन्न प्रकार व लाभ

विभिन्न शिवलिंग पूजन लाभ, વિભિન્ન શિવલિંગ પૂજન લાભ, ವಿಭಿನ್ನ ಶಿವಲಿಂಗ ಪೂಜನ ಲಾಭ, விபிந்ந ஶிவலிம்க பூஜந லாப, విపిన్న శివలిమ్క పూజన లాప, വിപിന്ന ശിവലിമ്ക പൂജന ലാപ, ਵਿਪਿੰਨ ਸ਼ਿਵਲਿਮ੍ਕ ਪੂਜਨ ਲਾਪ, ৱিপিন্ন শিৱলিম্ক পূজন লাপ, vipinn Sivalimk pUjan lAp, ବିଭିନ୍ନ ଶିବଲିଂଗ ପୂଜନ ଲାଭ, advantage of  various types Shivling puja, benefits o fvarious kinds Shivling prayer,
Shiv Ling Ke vibhinna prakar evm labha, shiv ling ke vibhinna prakar se laabha, shivling pooja se labha,

शिवलिंग के विभिन्न प्रकार व लाभ


* गन्धलिंग दो भाग कस्तुरी, चार भाग चन्दन और तीन भाग कुंकम से बनाया जाता हैं।

मिश्री(चिनी) से बने शिव लिंग कि पूजा से रोगो का नाश होकर सभी प्रकार से सुखप्रद होती हैं।

* सोंढ, मिर्च, पीपल के चूर्ण में नमक मिलाकर बने शिवलिंग कि पूजा से वशीकरण और अभिचार कर्म के लिये किया जाता हैं।

* फूलों से बने शिव लिंग कि पूजा से भूमि-भवन कि प्राप्ति होती हैं।

* जौं, गेहुं, चावल तीनो का एक समान भाग में मिश्रण कर आटे के बने शिवलिंग कि पूजा से परिवार में सुख समृद्धि एवं संतान का लाभ होकर रोग से रक्षा होती हैं।

* किसी भी फल को शिवलिंग के समान रखकर उसकी पूजा करने से फलवाटिका में अधिक उत्तम फल होता हैं।

* यज्ञ कि भस्म से बने शिव लिंग कि पूजा से अभीष्ट सिद्धियां प्राप्त होती हैं।

* यदि बाँस के अंकुर को शिवलिंग के समान काटकर पूजा करने से वंश वृद्धि होती है।

* दही को कपडे में बांधकर निचोड़ देने के पश्चात उससे जो शिवलिंग बनता हैं उसका पूजन करने से समस्त सुख एवं धन कि प्राप्ति होती हैं।

* गुड़ से बने शिवलिंग में अन्न चिपकाकर शिवलिंग बनाकर पूजा करने से कृषि उत्पादन में वृद्धि होती हैं।

* आंवले से बने शिवलिंग का रुद्राभिषेक करने से मुक्ति प्राप्त होती हैं।

* कपूर से बने शिवलिंग का पूजन करने से आध्यात्मिक उन्नती प्रदत एवं मुक्ति प्रदत होता हैं।

* यदि दुर्वा को शिवलिंग के आकार में गूंथकर उसकी पूजा करने से अकाल-मृत्यु का भय दूर हो जाता हैं।

* स्फटिक के शिवलिंग का पूजन करने से व्यक्ति कि सभी अभीष्ट कामनाओं को पूर्ण करने में समर्थ हैं।

* मोती के बने शिवलिंग का पूजन स्त्री के सौभाग्य में वृद्धि करता हैं।

* स्वर्ण निर्मित शिवलिंग का पूजन करने से समस्त सुख-समृद्धि कि वृद्धि होती हैं।

* चांदी के बने शिवलिंग का पूजन करने से धन-धान्य बढ़ाता हैं।

* पीपल कि लकडी से बना शिवलिंग दरिद्रता का निवारण करता हैं।

* लहसुनिया से बना शिवलिंग शत्रुओं का नाश कर विजय प्रदत होता हैं।

क्यों शिव को प्रिय हैं बेल पत्र?

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क्यों शिव को प्रिय हैं बेल पत्र?



क्या हैं बेल पत्र अथवा बिल्व-पत्र?
बिल्व-पत्र एक पेड़ की पत्तियां हैं, जिस के हर पत्ते लगभग तीन-तीन के समूह में मिलते हैं। कुछ पत्तियां चार या पांच के समूह की भी होती हैं। किन्तु चार या पांच के समूह वाली पत्तियां बड़ी दुर्लभ होती हैं। बेल के पेड को बिल्व भी कहते हैं। बिल्व के पेड़ का विशेष धार्मिक महत्व हैं। शास्त्रोक्त मान्यता हैं कि बेल के पेड़ को पानी या गंगाजल से सींचने से समस्त तीर्थो का फल प्राप्त होता हैं एवं भक्त को शिवलोक की प्राप्ति होती हैं। बेल कि पत्तियों में औषधि गुण भी होते हैं। जिसके उचित औषधीय प्रयोग से कई रोग दूर हो जाते हैं। भारतिय संस्कृति में बेल के वृक्ष का धार्मिक महत्व हैं, क्योकि बिल्व का वृक्ष भगवान शिव का ही रूप है। धार्मिक ऐसी मान्यता हैं कि बिल्व-वृक्ष के मूल अर्थात उसकी जड़ में शिव लिंग स्वरूपी भगवान शिव का वास होता हैं। इसी कारण से बिल्व के मूल में भगवान शिव का पूजन किया जाता हैं। पूजन में इसकी मूल यानी जड़ को सींचा जाता हैं।


धर्मग्रंथों में भी इसका उल्लेख मिलता हैं-

बिल्वमूले महादेवं लिंगरूपिणमव्ययम्।
य: पूजयति पुण्यात्मा स शिवं प्राप्नुयाद्॥
बिल्वमूले जलैर्यस्तु मूर्धानमभिषिञ्चति।
स सर्वतीर्थस्नात: स्यात्स एव भुवि पावन:॥ (शिवपुराण)

भावार्थ: बिल्व के मूल में लिंगरूपी अविनाशी महादेव का पूजन जो पुण्यात्मा व्यक्ति करता है, उसका कल्याण होता है। जो व्यक्ति शिवजी के ऊपर बिल्वमूल में जल चढ़ाता है उसे सब तीर्थो में स्नान का फल मिल जाता है।

बिल्व पत्र तोड़ने का मंत्र
बिल्व-पत्र को सोच-समझ कर ही तोड़ना चाहिए।
बेल के पत्ते तोड़ने से पहले निम्न मंत्र का उच्चरण करना चाहिए-

अमृतोद्भव श्रीवृक्ष महादेवप्रियःसदा।
गृह्यामि तव पत्राणि शिवपूजार्थमादरात्॥ -(आचारेन्दु)

भावार्थ: अमृत से उत्पन्न सौंदर्य व ऐश्वर्यपूर्ण वृक्ष महादेव को हमेशा प्रिय है। भगवान शिव की पूजा के लिए हे वृक्ष में तुम्हारे पत्र तोड़ता हूं।


कब न तोड़ें बिल्व कि पत्तियां?

*     विशेष दिन या विशेष पर्वो के अवसर पर बिल्व के पेड़ से पत्तियां तोड़ना निषेध हैं।
*     शास्त्रों के अनुसार बेल कि पत्तियां इन दिनों में नहीं तोड़ना चाहिए-
*     बेल कि पत्तियां सोमवार के दिन नहीं तोड़ना चाहिए।
*     बेल कि पत्तियां चतुर्थी, अष्टमी, नवमी, चतुर्दशी और अमावस्या की तिथियों को नहीं तोड़ना चाहिए।
*     बेल कि पत्तियां संक्रांति के दिन नहीं तोड़ना चाहिए।


अमारिक्तासु संक्रान्त्यामष्टम्यामिन्दुवासरे ।
बिल्वपत्रं न च छिन्द्याच्छिन्द्याच्चेन्नरकं व्रजेत ॥ (लिंगपुराण)

भावार्थ: अमावस्या, संक्रान्ति के समय, चतुर्थी, अष्टमी, नवमी और चतुर्दशी तिथियों तथा सोमवार के दिन बिल्व-पत्र तोड़ना वर्जित है।


चढ़ाया गया पत्र भी पूनः चढ़ा सकते हैं?

शास्त्रों में विशेष दिनों पर बिल्व-पत्र तोडकर चढ़ाने से मना किया गया हैं तो यह भी कहा गया है कि इन दिनों में चढ़ाया गया बिल्व-पत्र धोकर पुन: चढ़ा सकते हैं।


अर्पितान्यपि बिल्वानि प्रक्षाल्यापि पुन: पुन:।
शंकरायार्पणीयानि न नवानि यदि चित्॥ (स्कन्दपुराण) और (आचारेन्दु)

भावार्थ: अगर भगवान शिव को अर्पित करने के लिए नूतन बिल्व-पत्र न हो तो चढ़ाए गए पत्तों को बार-बार धोकर चढ़ा सकते हैं।


बेल पत्र चढाने का मंत्र

भगवान शंकर को विल्वपत्र अर्पित करने से मनुष्य कि सर्वकार्य व मनोकामना सिद्ध होती हैं। श्रावण में विल्व पत्र अर्पित करने का विशेष महत्व शास्त्रो में बताया गया हैं।

विल्व पत्र अर्पित करते समय इस मंत्र का उच्चारण करना चाहिए:
त्रिदलं त्रिगुणाकारं त्रिनेत्रं च त्रिधायुतम्।
त्रिजन्मपापसंहार, विल्वपत्र शिवार्पणम्

भावार्थ: तीन गुण, तीन नेत्र, त्रिशूल धारण करने वाले और तीन जन्मों के पाप को संहार करने वाले हे शिवजी आपको त्रिदल बिल्व पत्र अर्पित करता हूं।


शिव को बिल्व-पत्र चढ़ाने से लक्ष्मी की प्राप्ति होती है।

श्रावण मास दूसरा सोमवार

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श्रावण मास दूसरा सोमवार


श्रावण मास के दूसरे सोमवार कार्य सिद्धि योग बनरहा हैं। जिस कारण इस दिन व्रत करने से श्रावण सोमवार व्रत के फल में नक्षत्रो के प्रभाव से विशेष वृद्धि होती हैं। अतः इस श्रावण के दूसरे सोमवार को व्रत करने से मनुष्य को अपने कार्य में सफलता प्राप्त करने हेतु एवं अपनी विभिन्न समस्याओं से छुटकारा प्राप्त करने हेतु व्रत करने से उत्तम फल कि प्राप्ति होती हैं।

दूसरे सोमवार को व्रत करने से होने वाले लाभ:

मनोवांछित जीवन साथी कि प्राप्ति होती हैं, इच्छित व्यक्ति पुरुष/स्त्री को अपने अनुकूल बनाया जासकता हैं, पारिवारिक अशांति का नाश होता हैं और घर में सुख शांति कि प्राप्ति होती हैं, तांत्रिक प्रभाव व पितृदोष से मुक्ति होती हैं, भाग्योदय में वृद्धि होति हैं,

बुधवार, अगस्त 04, 2010

चातुर्मास व्रत का महत्व

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चातुर्मास व्रत का महत्व



हिन्दू धर्मग्रंथों के अनुसार, आषाढ मास में शुक्लपक्ष की एकादशी की रात्रि से भगवान विष्णु इस दिन से लेकर अगले चार मास के लिए योगनिद्रा में लीन हो जाते हैं, एवं कार्तिक मास में शुक्लपक्ष की एकादशी के दिन योगनिद्रा से जगते हैं। इसलिये चार इन महीनों को चातुर्मास कहाजाता हैं। चातुर्मास का हिन्दू धर्म में विशेष आध्यात्मिक महत्व माना जाता हैं।

अषाढ मास में शुक्ल पक्ष कि द्वादशी अथवा पूर्णिमा अथवा जब सूर्य का मिथुन राशि से कर्क राशि में प्रवेश होता हैं तब से चातुर्मास के व्रत का आरंभ होता हैं। चातुर्मास के व्रत कि समाप्ति कार्तिक मास में शुक्ल पक्ष कि द्वादशी को होती हैं। साधु संन्यासी अषाढ मासकि पूर्णिमा से चातुर्मास मानते हैं।

सनातन धर्म के अनुयायी के मत से भगवान विष्णु सर्वव्यापी हैं. एवं सम्पूर्ण ब्रह्मांडा भगवान विष्णु कि शक्ति से हि संचालित होता हैं। इस लिये सनातन धर्म के लोग अपने सभी मांगलिक कार्यो का शुभारंभ भगवान विष्णु को साक्षी मानकर करते हैं।

शास्त्रो में लिखा गया है कि वर्षाऋतु के चारों मास में लक्ष्मी जी भगवान विष्णु की सेवा करती हैं। इस अवधि में यदि कुछ नियमों का पालन करते हुवे अपनी मनोकामना पूर्ति हेतु व्रत करने से विशेष लाभ प्राप्त होता हैं।

चातुर्मास में व्रत करने वाले साधक को प्रतिदिन सूर्योदय के समय स्नान इत्यादि से निवृत्त होकर भगवान विष्णु की आराधना करनी चाहिये।

चातुर्मास के व्रत का प्रारंभ करने से पूर्व निम्न संकल्प करना चाहिये।

"हे प्रभु, मैंने यह व्रत का संकल्प आपको साक्षि मानकर उपस्थिति में लिया हैं। आप मेरे उपर कृपा रख कर मेरे व्रत को निर्विघ्न समाप्त करने का सामर्थ्य मुजे प्रदान करें। यदि व्रत को ग्रहण करने के उपरांत बीच में मेरी मृत्यु हो जाये तो आपकी कृपा द्र यह पूर्ण रुप से समाप्त हो जाये।

व्रत के दौरन भगवान विष्णु की वंदना इस प्रकार करें।

शांताकारंभुजगशयनंपद्मनाभंसुरेशं।
विश्वाधारंगगनसदृशंमेघवर्णशुभाङ्गम्॥
लक्ष्मीकान्तंकमलनयनंयोगिभिध्र्यानगम्यं।
वन्दे विष्णुंभवभयहरंसर्वलोकैकनाथम्॥

भावार्थ:- जिनकी आकृति अतिशय शांत हैं, जो शेषनाग की शय्यापर शयन कर रहे हैं, जिनकी नाभि में कमल है, जो सब देवताओं द्वारा पूज्य हैं, जो संपूर्ण विश्व के आधार हैं, जो आकाश के सद्रश्य सर्वत्र व्याप्त हैं, नीले मेघ के समान जिनका वर्ण हैं, जिनके सभी अंग अत्यंत सुंदर हैं, जो योगियों द्वारा ध्यान करके प्राप्त किये जाते हैं, जो सब लोकों के स्वामी हैं, जो जन्म-मरणरूप भय को दूर करने वाले हैं, ऐसे लक्ष्मीपति,कमलनयन,भगवान विष्णु को मैं प्रणाम करता हूं।

स्कंदपुराण के अनुशार चातुर्मास का विधि-विधान और माहात्म्य इस प्रकार विस्तार से वर्णित हैं।

चातुर्मास में शास्त्रीय विभिन्न नियमों का पालन कर व्रत करने से अत्याधिक पुण्य लाभ प्राप्त होते हैं।

  • जो व्यक्ति चातुर्मास में केवल शाकाहारी भोजन ग्रहण करता हैं, वह धन धान्य से सम्पन्न होता हैं।
  • जो व्यक्ति चातुर्मास में प्रतिदिन रात्री चंद्र उदय के बाद दिन में मात्र एकबार भोजन करता हैं, उसे सुख समृद्धि एवं एश्वर्य कि प्राप्ति होती हैं।
  • जो व्यक्ति भगवान विष्णु के शयनकाल में बिना मांगे अन्न का सेवन करता हैं, उसे भाई-बंधुओं का पूर्ण सुख प्राप्त होता हैं।
  • स्वास्थय लाभ एवं निरोगी रेहने के लिये चातुर्मास में विष्णुसूक्त के मंत्रों को स्वाहा करके नित्य हवन में चावल और तिल की आहुतियां देने से लाभ प्राप्त होता हैं।
  • चातुर्मास के चार महीनों में धर्मग्रंथों के नियमित स्वाध्याय से पुण्य फल मिलता हैं।
  • चातुर्मास के चार महीनों में व्यक्ति जिस वस्तु को त्यागता हैं वह वस्तु उसे अक्षय रूप में पुनः प्राप्त हो जाती हैं।
  • चातुर्मास का सद उपयोग आत्म उन्नति के लिए किया जाता हैं। चातुर्मास के नियम मनुष्य के भितर त्याग और संयम की भावना उत्पन्न करने के लिए बने हैं।

चातुर्मास में किस पदार्थ का त्याग करें

व्रत करने वाले व्यक्ति को...

  • श्रावण मास में हरी सब्जी का त्याग करना चाहिये।
  • भाद्रपद मास में दही का त्याग करना चाहिये।
  • आश्विन मास में दूध का त्याग करना चाहिये।
  • कार्तिक मास में दालों का का त्याग करना चाहिये।
  • व्रत कर्ता को शैय्या शयन, मांस, मधु आदि का सेवन त्याग करना चाहिये।
त्याग किये गय पदार्थो का फल निम्न प्रकार हैं।

  • जो व्यक्ति गुड़ का त्याग करता हैं, उसकी वाणी में मधुरता आति हैं।
  • जो व्यक्ति तेल का त्याग करता हैं, उसके समस्त शत्रुओं का नाश होता हैं।
  • जो व्यक्ति घी का त्याग करता हैं, उसके सौन्दर्य में वृद्धि होती हैं।
  • जो व्यक्ति हरी सब्जी का त्याग करता हैं, उसकी बुद्धि प्रबल होती हैं एवं पुत्र लाभ प्राप्त होता हैं।
  • जो व्यक्ति दूध एवं दही का त्याग करता हैं, उसके वंश में वृद्धि होकर उसे मृत्यु उपरांत गौलोक में स्थान प्राप्त होता हैं।
  • जो व्यक्ति नमक का त्याग करता हैं, उसकी समस्त मनोकामना पूर्ण होकर उसके सभी कार्य में निश्चित सफलता प्राप्त होती हैं।

शिवलिंग पूजा का महत्व क्या हैं?

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शिवलिंग पूजा का महत्व क्या हैं?


 

 

 शिवमहा पुराण के सृष्टिखंड अध्याय १२ श्लोक ८२ से ८६ में ब्रह्मा जी के पुत्र संतकुमार जी वेदव्यास जी को उपदेश देते हुए कहते हैं, हर गृहस्थ मनुष्य को अपने सद्दगुरू से विधिवत दीक्षा लेकर पंचदेवों (गणेश, सूर्य, विष्णु, दुर्गा, शिव) की प्रतिमाओं का नित्य पूजन करना चाहिए। क्योंकि शिव ही सबके मूल हैं, इस लिये मूल (शिव) को सींचने से सभी देवता तृत्प हो जाते हैं परन्तु सभी देवताओं को प्रसन्न करने पर भी शिव प्रसन्न नहीं होते। यह रहस्य केवल और केवल सद्दगुरू कि शरण में रहने वाले व्यक्ति ही जान सकते हैं।
  • सृष्टि के पालनकर्ता भगवान विष्णु ने एक बार सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा के साथ निर्गुण, निराकार शिव से प्रार्थना की, प्रभु आप कैसे प्रसन्न होते हैं। भगवान शिव बोले मुझे प्रसन्न करने के लिए शिवलिंग का पूजन करो। जब किसी प्रकार का संकट या दु:ख हो तो शिवलिंग का पूजन करने से समस्त दु:खों का नाश हो जाता है।(शिवमहापुराण सृष्टिखंड)
  • जब देवर्षि नारद ने भगवान श्री विष्णु को शाप दिया और बाद में पश्चाताप किया तब विष्णु ने नारदजी को पश्चाताप के लिए शिवलिंग का पूजन, शिवभक्तों का सत्कार, नित्य शिवशत नाम का जाप आदि उपाय सुझाये।(शिवमहापुराण सृष्टिखंड)
  • एक बार सृष्टि रचयिता ब्रह्माजी सभी देवताओं को लेकर क्षीर सागर में श्री विष्णु के पास परम तत्व जानने के लिए पहोच गये। श्री विष्णु ने सभी को शिवलिंग की पूजा करने का सुझाव दिया और विश्वकर्मा को बुलाकर देवताओं के अनुसार अलग-अलग द्रव्य पदार्थ के शिवलिंग बनाकर देने का आदेश देकर सभी को विधिवत पूजा से अवगत करवाया। (शिवमहापुराण सृष्टिखंड)
  • ब्रह्मा जी ने देवर्षि नारद को शिवलिंग की पूजा की महिमा का उपदेश देते हुवे कहा। इसी उपदेश से जो ग्रंथ कि रचना हुई वो शिव महापुराण हैं। माता पार्वती के अत्यन्त आग्रह से, जनकल्याण के लिए निर्गुण, निराकार शिव ने सौ करोड़ श्लोकों में शिवमहापुराण की रचना कि। जो चारों वेद और अन्य सभी पुराण शिवमहापुराण की तुलना में नहीं आ सकते। भगवान शिव की आज्ञा पाकर विष्णु के अवतार वेदव्यास जी ने शिवमहापुराण को २४६७२ श्लोकों में संक्षिप्त किया हैं।
  • जब पाण्ड़व वनवास में थे , तब कपट से दुर्योधन पाण्ड़वों को दुर्वासा ऋषि को भेजकर तथा मूक नामक राक्षस को भेजकर कष्ट देता था। तब पाण्ड़वों ने श्री कृष्ण से दुर्योधन के दुर्व्यवहार से अवगत कराया और उससे छुटकारा पाने का मार्ग पूछा। तब श्री कृष्ण ने पाण्ड़वों को भगवान शिव की पूजा करने के लिए सलाह दी और कहा मैंने स्वयंने अपने सभी मनोरथों को प्राप्त करने के लिए भगवान शिव की पूजा की हैं और आज भी कर रहा हुं। आप लोग भी करो। वेदव्यासजी ने भी पाण्ड़वों को भगवान शिव की पूजा का उपदेश दिया। हिमालय से लेकर पाण्ड़व विश्व के हर कोने में जहां भी गये उन सभी स्थानो पर शिवलिंग कि स्थापना कर पूजा अर्चना करने का वर्णन शास्त्रों में मिलता हैं।
 शिव महापुराण
सृष्टिखंड अध्याय ११ श्लोक १२ से १५ में शिव पूजा से प्राप्त होने वाले सुखों का वर्णन इस प्रकार हैं।:
 
दरिद्रता, रोग कष्ट, शत्रु पीड़ा एवं चारों प्रकार के पाप तभी तक कष्ट देता है, जब तक भगवान शिव की पूजा नहीं की जाती। महादेव का पूजन कर लेने पर सभी प्रकार के दु:खोका शमन हो जाता हैं। सभी प्रकार के सुख प्राप्त हो जाते हैं एवं इससे सभी मनोकामनाएं सिद्ध हो जाती हैं।(शिवमहापुराण सृष्टिखंड अध्याय- ११ श्लोक१२ से १५
 

मंगलवार, अगस्त 03, 2010

शिव पूजन से कामना सिद्धि

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शिव पूजन से कामना सिद्धि


शिवलिंग पर गंगा जल से अभिषेक करने से भौतिक सुख प्राप्त होता हैं एवं मनुष्य को मोक्ष कि प्राप्ति होती हैं।

शिव पुराण के अनुशार शिवलिंग पर अन्न, फूल एवं विभिन्न वस्तुओं से जलाभिषेक कर मनुष्य के समस्त प्रकार के कष्टोका निवारण किया जासकता हैं।

निम्न साधना शिव प्रतिमा (मूर्ति) के समक्ष करने से शीघ्र लाभ प्राप्त होते हैं।

• लक्ष्मी प्राप्ति हेतु भगवान शिव को बिल्वपत्र, कमल, शतपत्र एवं शंखपुष्प अर्पण करने से लाभ प्राप्त होता हैं।

• पुत्र प्राप्ति हेतु भगवान शिव को धतुरे के फूल अर्पण करने से शुभ फल कि प्राप्ति होती हैं।

• भौतिक सुख एवं मोक्ष प्राप्ति हेतु स्वेत आक, अपमार्ग एवं सफेद कमल के फूल भगवान शिव को चढाने से लाभ प्राप्त होता हैं।

• वाहन सुख कि प्राप्ति हेतु चमेली के फूल भगवान शिव को चढाने से शीघ्र उत्तम वाहन प्राप्ति के योग बनते हैं।

• विवाह सुख में आने वाली बाधाओं को दूर करने हेतु बेला के फूल भगवान शिव को चढाने से उत्तम पत्नी की प्राप्ति होती होती हैं एवं कन्या के फूल चढाने से उत्तम पति कि प्राप्ति होती हैं।

• जूही के फूल भगवान शिव को चढाने से व्यक्ति को अन्न का अभाव नहीं होता हैं।

• सुख सम्पत्ति की प्राप्ति हेतु भगवान शिव को हार सिंगार के फूल चढाने से लाभ प्राप्त होता हैं।



शिवलिंग पर अभिषेक हेतु प्रयोग

• वंश वृद्धि हेतु शिवलिंग पर घी का अभिषेक शुभ फलदायी होता हैं।

• भौतिक सुख साधनो में वृद्धि हेतु शिवलिंग पर सुगंधित द्रव्य से अभिषेक करने से शीघ्र उनमें बढोतरी होती हैं।

• रोग निवृत्ति हेतु महामृत्युंजय मंत्र जप करते हुवे शहद (मधु) से अभिषेक करने से रोगों का नाश होता हैं।

• रोजगार वृद्धि हेतु गंगाजल एवं शहद (मधु) से अभिषेक करने से लाभ प्राप्त होता हैं।

श्रवण मास में किये गये पूजन एवं अभिषेक से भगवान शिव की कृपा प्राप्ति के साथ-साथ माता पर्वती, गणेश और मां लक्ष्मी की भी कृपा प्राप्त होती हैं।

गणेश मंत्र

Ganesh Mantra
॥ गणेश मंत्र ॥



गणेश मंत्र प्रति दिन एक माला मंत्रजाप अवश्य करे।
दिये गये मंत्रो मे से कोई भी एक मंत्रका जाप करे।

(०१) गं ।
(०२) ग्लं ।
(०३) ग्लौं ।
(०४) श्री गणेशाय नमः ।
(०५) ॐ वरदाय नमः ।
(०६) ॐ सुमंगलाय नमः ।
(०७) ॐ चिंतामणये नमः ।
(०८) ॐ वक्रतुंडाय हुम् ।
(०९) ॐ नमो भगवते गजाननाय ।
(१०) ॐ गं गणपतये नमः ।
(११) ॐ ॐ श्री गणेशाय नमः ।
यह मंत्र के जप से व्यक्ति को किसी भी प्रकार का कष्ट नहीं रेहता है।
  • आर्थिक स्थिति मे सुधार होता है।
  • एवं सर्व प्रकारकी रिद्धि-सिद्धि प्राप्त होती है।

गंगा का स्वर्ग से पृथवी पर आगमन केसे हुवा?

ganga ka swarga se pruthavi par agaman kese hua

गंगा का स्वर्ग से पृथवी पर आगमन केसे हुवा?



युधिष्ठिर ने लोमश ऋषि से पूछा, "हे मुनिवर! राजा भगीरथ गंगा को किस प्रकार पृथ्वी पर ले आये? कृपया इस प्रसंग को भी सुनायें।" लोमश ऋषि ने कहा, "धर्मराज! इक्ष्वाकु वंश में सगर नामक एक बहुत ही प्रतापी राजा हुवे। उनके वैदर्भी और शैव्या नामक दो रानियाँ थीं। राजा सगर ने कैलाश पर्वत पर दोनों रानियों के साथ जाकर शंकर भगवान की घोर तपस्या की। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शंकर ने उनसे कहा कि हे राजन्! तुमने पुत्र प्राप्ति की कामना से मेरी आराधना की है। अतएव मैं वरदान देता हूँ कि तुम्हारी एक रानी के साठ हजार पुत्र होंगे किन्तु दूसरी रानी से तुम्हारा वंश चलाने वाला एक ही संतान होगी। इतना कहकर शंकर भगवान पूनः अन्तर्ध्यान हो गये।

"समय बीतने पर शैव्या ने असमंज नामक एक अत्यन्त रूपवान पुत्र को जन्म दिया और वैदर्भी के गर्भ से एक तुम्बी उत्पन्न हुई जिसे फोड़ने पर साठ हजार पुत्र निकले। कालचक्र बीतता गया और असमंज का अंशुमान नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। असमंज अत्यन्त दुष्ट प्रकृति का था इसलिये राजा सगर ने उसे अपने देश से बाहर कर दिया। फिर एक बार राजा सगर ने अश्वमेघ यज्ञ करने की दीक्षा ली। अश्वमेघ यज्ञ का श्यामकर्ण घोड़ा छोड़ दिया गया और उसके पीछे-पीछे राजा सगर के साठ हजार पुत्र अपनी विशाल सेना के

साथ चलने लगे। सगर के इस अश्वमेघ यज्ञ से भयभीत होकर देवराज इन्द्र ने अवसर पाकर उस घोड़े को चुरा लिया और उसे ले जाकर कपिल मुनि के आश्रम में बाँध दिया। उस समय कपिल मुनि ध्यान में लीन थे अतः उन्हें इस बात का पता नहीं चला की इन्द्र ने घोड़े बाँध दिया हैं। इधर सगर के साठ हजार पुत्रों ने घोड़े को पृथ्वी के हरेक स्थान पर ढूँढा किन्तु उसका पता नहीं लग पाया। वे घोड़े को खोजते हुये पृथ्वी को खोद कर पाताल लोक तक पहुँच गये जहाँ अपने आश्रम में कपिल मुनि तपस्या कर रहे थे और वहीं पर वह घोड़ा बँधा हुआ था। सगर के पुत्रों ने यह समझ कर कि घोड़े को कपिल मुनि ही चुरा लाये हैं, कपिल मुनि को कटुवचन सुनाना आरम्भ कर दिया। अपने निरादर से कुपित होकर कपिल मुनि ने राजा सगर के साठ हजार पुत्रों को अपने क्रोधाग्नि से भस्म कर दिया।

जब सगर को नारद मुनि के द्वारा अपने साठ हजार पुत्रों के भस्म हो जाने का समाचार मिला तो वे अपने पौत्र अंशुमान को बुलाकर बोले कि बेटा! तुम्हारे साठ हजार दादाओं को मेरे कारण कपिल मुनि की क्रोधाग्नि में भस्म हो जाना पड़ा। अब तुम कपिल मुनि के आश्रम में जाकर उनसे क्षमाप्रार्थना करके उस घोड़े को ले आओ। अंशुमान अपने दादाओं के बनाये हुये रास्ते से चलकर कपिल मुनि के आश्रम में जा पहुँचे। वहाँ पहुँच कर उन्होंने अपनी प्रार्थना एवं मृदु व्यवहार से कपिल मुनि को प्रसन्न कर लिया। कपिल मुनि ने प्रसन्न होकर उन्हें वर माँगने के लिये कहा। अंशुमान बोले कि मुने! कृपा कर के हमारा अश्व लौटा दें और हमारे दादाओं के उद्धारका कोई उपाय बतायें। कपिल मुनि ने घोड़ा लौटाते हुये कहा कि वत्स! जब तुम्हारे दादाओंका उद्धार केवल गंगा के जल से तर्पण करने पर ही हसकता है।

"अंशुमान ने यज्ञ का अश्व लाकर सगर का अश्वमेघ यज्ञ पूर्ण करा दिया। यज्ञ पूर्ण होने पर राजा सगर अंशुमान को राज्य सौंप कर गंगा को स्वर्ग से पृथ्वी पर लाने के उद्देश्य से तपस्या करने के लिये उत्तराखंड चले गये इस प्रकार तपस्या करते-करते उनका स्वर्गवास हो गया। अंशुमान के पुत्र का नाम दिलीप था। दिलीप के बड़े होने पर अंशुमान भी दिलीप को राज्य सौंप कर गंगा को स्वर्ग से पृथ्वी पर लाने के उद्देश्य से तपस्या करने के लिये उत्तराखंड चले गये किन्तु वे भी गंगा को स्वर्ग से पृथ्वी पर लाने में सफल नहीं हो सके। दिलीप के पुत्र का नाम भगीरथ था। भगीरथ के बड़े होने पर दिलीप ने भी अपने पूर्वजों का अनुगमन किया किन्तु गंगा को लाने में उन्हें भी असफलता ही हाथ आई।

"अन्ततः भगीरथ की तपस्या से गंगा प्रसन्न हुईं और उनसे वरदान माँगने के लिया कहा। भगीरथ ने हाथ जोड़कर कहा कि माता! मेरे साठ हजार पुरखों के उद्धार हेतु आप पृथ्वी पर अवतरित होने की कृपा करें। इस पर गंगा ने कहा वत्स! मैं तुम्हारी बात मानकर पृथ्वी पर अवश्य आउँगी, किन्तु मेरे वेग को शंकर भगवान के अतिरिक्त और कोई सहन नहीं कर सकता। इसलिये तुम पहले शंकर भगवान को प्रसन्न करो। यह सुन कर भगीरथ ने शंकर भगवान की घोर तपस्या की और उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर शिव जी हिमालय के शिखर पर गंगा के वेग को रोकने के लिये खड़े हो गये। गंगा जी स्वर्ग से सीधे शिव जी की जटाओं पर जा गिरीं। इसके बाद भगीरथ गंगा जी को अपने पीछे-पीछे अपने पूर्वजों के अस्थियों तक ले आये जिससे उनका उद्धार हो गया। भगीरथ के पूर्वजों का उद्धार करके गंगा जी सागर में जा गिरीं और अगस्त्य मुनि द्वारा सोखे हुये समुद्र में फिर से जल भर गया।"

सोमवार, अगस्त 02, 2010

साक्षात ब्रह्म हैं शिवलिंग

SAKSHAT BRAHMA HAI SHIVLING

साक्षात ब्रह्म हैं शिवलिंग


शिवलिंगकी पूजा-अर्चना अनादिकालसे विश्वव्यापक रही हैं। संसार के सबसे प्राचीन ग्रन्थ ऋग्वेद में लिंग उपासना का उल्लेख मिलता हैं।

 सर्वदेवात्मको रुद्र: सर्वे देवा: शिवात्मकाः॥

भावार्थ: भगवान शिव और रुद्र सर्व देवों में विराजमान होने से ब्रह्म के ही पर्यायवाची शब्द हैं। प्राय: सभी सभी शास्त्र एवं पुराणों में शिवलिंग के पूजन का उल्लेख मिलता हैं। हिन्दू शास्त्रों में जहां भी शिव उपासनाका वर्णन किया गया हैं, वहां शिवलिंग की महिमा का गुण-गान अवश्य मिलता हैं।

स्कन्दपुराणमें शिवलिंग महिमा इस प्रकार की गई है-

आकाशं लिङ्गमित्याहु:पृथ्वी तस्यपीठिका।
आलय: सर्वदेवानांलयनाल्लिङ्गमुच्यते॥

भावार्थ: आकाश लिंग है और पृथ्वी उसकी पीठिका हैं। इस लिंग में समस्त देवताओं का वास हैं। सम्पूर्ण सृष्टि का इसमें लय हैं, इसीलिए इसे लिंग कहते हैं।

शिवपुराणमें शिवलिंग महिमा इस प्रकार की गई है-

लिङ्गमर्थ हि पुरुषंशिवंगमयतीत्यदः।
शिव-शक्त्योश्च चिह्नस्यमेलनंलिङ्गमुच्यते॥

भावार्थ: शिव-शक्ति के चिह्नोंका सम्मिलित स्वरूप ही शिवलिंग हैं। इस प्रकार लिंग में सृष्टि के जनक की अर्चना होती है।

लिंग परमपुरुष सदा शिवका बोधक हैं। इस प्रकार यह विदित होता है कि लिंग का प्रथम अर्थ प्रकट करने वाला हुआ, क्योंकि इसी से सृष्टि की उत्पत्ति हुई हैं।

दूसरा भावार्थ: यह प्राणियों का परम कारण और निवास-स्थान हैं।

तीसरा भावार्थ: शिव- शक्ति का लिंग योनि भाव और अ‌र्द्धनारीश्वर भाव मूलत:एक ही स्वरुप हैं। सृष्टि के बीज को देने वाले परम लिंग रूप भगवान शिव जब अपनी प्रकृति रूपा शक्ति से आधार-आधेय की भाँति संयुक्त होते हैं, तभी सृष्टि की उत्पत्ति होती है, अन्यथा नहीं।

लिंगपुराण शिवलिंग महिमा इस प्रकार की गई है-

मूले ब्रह्मा तथा मध्येविष्णुस्त्रिभुवनेश्वरः।
रुद्रोपरिमहादेव: प्रणवाख्य:सदाशिवः॥
लिङ्गवेदीमहादेवी लिङ्गसाक्षान्महेश्वरः॥
तयो:सम्पूजनान्नित्यंदेवी देवश्चपूजितो॥
भावार्थ: शिव लिंगके मूल में ब्रह्मा, मध्य में विष्णु तथा शीर्ष में शंकर हैं। प्रणव (ॐ) स्वरूप होने से सदाशिवमहादेव कहलाते हैं। शिवलिंगप्रणव का रूप होने से साक्षात् ब्रह्म ही है। लिंग महेश्वर और उसकी वेदी महादेवी होने से लिगांचर्नके द्वारा शिव-शिक्त दोनों की पूजा स्वत:सम्पन्न हो जाती है। लिंगपुराण में शिव को त्रिदेवमयऔर शिव-शक्ति का संयुक्त स्वरूप होने का उल्लेख किया गया हैं।

भगवान शिव द्वारा शिवलिंग महिमा इस प्रकार की गई है-

लोकं लिङ्गात्मकंज्ञात्वालिङ्गेयोऽर्चयतेहि माम्।
न मेतस्मात्प्रियतर:प्रियोवाविद्यतेक्वचित्॥

भावार्थ: जो भक्त संसार के मूल कारण महाचैतन्यलिंग की अर्चना करता हैं और लोक को लिंगात्मकजानकर लिंग-पूजा में तत्पर रहता हैं, मुझे उससे अधिक प्रिय अन्य कोई मनुष्य नहीं हैं।

सोमवार व्रत से भौतिक कष्ट दूर होते हैं

SOMAVAR VRAT SE BHOUTIK KASHT DUR HOTE HAI


श्रावण मास के सोमवार व्रत से भौतिक कष्ट दूर होते हैं ।


श्रावण मास इस साल 27 जुलाई से 24 अगस्त के बीच रहेगा। इस दौरान 2 अगस्त , 9 अगस्त , 16 अगस्त , 23 अगस्त को चार सोमवार श्रावण मास में पड़ रहे हैं। कहिं प्रदेशो में 27 जुलाई से श्रावण मास प्रारंभ होने से 5 सोमवार होरहे हैं। श्रावण मास के समस्त सोमवारों के दिन व्रत करने से पूरे साल भर के सोमवार के व्रत समान पुण्य फल मिलता हैं। सोमवार के व्रत के दिन प्रातःकाल ही स्नान इत्यादि से निवृत्त होकर, शिव मंदिर, देवालय घरमें जाकर शिव लिंग पर जल, दूध, दही, शहद, घी, चीनी, श्वेत चंदन, रोली(कुमकुम), बिल्व पत्र(बेल पत्र), भांग, धतूरा आदि सें अभिषेक किया जाता हैं।

• पति कि लंबी आयु कि कामना हेतु सुहागन स्त्रिय को सोमवार के दिन व्रत रखने से शिव कृपा से अखंड सौभाग्य कि प्राप्ति होती हैं।
• बच्चो को सोमवार का व्रत कर शिव मंदिर में जलाभिषेक करने से विद्या और बुद्धि की प्राप्ति होती हैं।
• रोजगार प्राप्ति हेतु दूध एवं जल चढाने से रोजगार प्राप्ति कि संभावना बढ जाती हैं।
• व्यापारी एवं नौकरी करने वाले व्यक्ति यदि श्रावण मास के सोमवार का व्रत करने से धन-धान्य और लक्ष्मी की वृद्धि होती हैं।

व्रत के दिन गंगाजल से स्नान कर अथवा जल में थोडा गंगा जल मिला कर स्नान करने के पश्चयात शिव लिंग पर जल चढ़ाया जाता हैं। आज भी उत्तर एवं पूर्व भारत में कांवड़ परम्परा का विशेष महत्व हैं। श्रद्धालु गंगाजल अथवा पवित्र नदि सें कावड़ में जल भरकर तीर्थ स्थल तक कांवड़ लेकर जाते हैं। इसका उद्देश्य शिवजीकी कृपा प्राप्त करना हैं।

आज के भौतिकतावादि युग में व्यक्ति अधिक से अधिक भौतिक सुख साधनो को जुटाते हुए कभी-कभी व्यक्ति नैतिकता का दामन छोड कर अनैतिकता का दामन थाम लेता हैं जिस के फल स्वरुप अपने प्रतिकूल कर्मो के कारण व्यक्ति को भविष्य में अनेक समस्याओं से ग्रसित होते देखा गया हैं।

व्यक्ति द्वारा किये गये प्रतिकूल कर्मो के बंधन से मुक्त कराने कि समर्थता भगवान भोले भंडारी शिव कि कृपा प्राप्ति से व्यक्ति के द्वारा संचित पाप नष्ट हो जाते हैं।