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शुक्रवार, मार्च 26, 2010

प्रदोष व्रत का महत्व

Pradosh Vrat ka Mahatva,

प्रदोष व्रत का महत्व

प्रदोष व्रत हर महीने में दो बार शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी  को प्रदोष व्रत कहते हैं। यदि इन तिथियों को सोमवार होतो उसे सोम प्रदोष व्रत कहते हैं, यदि मंगल वार होतो उसे भौम प्रदोष व्रत कहते हैं और शनिवार होतो उसे शनि प्रदोष व्रत व्रत कहते हैं। विशेष कर सोमवार, मंगलवार एवं शनिवार के प्रदोष व्रत अत्याधिक प्रभावकारी माने गये हैं। साधारण तौर पर अलग-अलग जगह पर द्वाद्वशी और त्रयोदशी की तिथि को प्रदोष तिथि कहते हैं। इस दिन व्रत रखने का विधान हैं।

प्रदोष व्रत का महत्व कुछ इस प्रकार का बताया गया हैं कि यदि व्यक्ति को सभी तरह के जप, तप और नियम संयम के बाद भी यदि उसके गृहस्थ जीवन में दुःख, संकट, क्लेश आर्थिक परेशानि, पारिवारिक कलह, संतानहीनता या संतान के जन्म के बाद भी यदि नाना प्रकार के कष्ट विघ्न बाधाएं, रोजगार के साथ सांसारिक जीवन से परेशानिया खत्म नहीं हो रही हैं, तो उस व्यक्ति के लिए प्रति माह में पड़ने वाले प्रदोष व्रत पर जप, दान, व्रत इत्यादि पूण्य कार्य करना शुभ फलप्रद होता हैं।

ज्योतिष कि द्रष्टि से जो व्यक्ति चंद्रमा के कारण पीडित हो उसे वर्ष भर प्रदोष व्रतों पर चहे वह किसी भी वारको पडता हो उसे प्रदोष व्रत अवश्य करना चाहिये। प्रदोष व्रतों पर उपवास रखना, लोहा, तिल, काली उड़द, शकरकंद, मूली, कंबल, जूता और कोयला आदि दान करने से शनि का प्रकोप भी शांत हो जाता हैं, जिस्से व्यक्ति के रोग, व्याधि, दरिद्रता, घर कि अशांति, नौकरी या व्यापार में परेशानी आदि का स्वतः निवारण हो जाएगा।

भौम प्रदोष व्रत एवं शनि प्रदोष व्रत के दिन शिवजी, हनुमानजी, भैरव कि पूजा-अर्चना करना भी लाभप्रद होता हैं।

गुरुवार के दिन पडने वाला प्रदोष व्रत विशेष कर पुत्र कामना हेतु या संतान के शुभ हेतु रखना उत्तम होता हैं। संतानहीन दंपत्तियों के लिए इस व्रत पर घरमें मिष्ठान या फल इत्यादि गाय को खिलाने से शीघ्र शुभ फलकी प्राप्ति होति हैं। संतान कि कामना हेतु 16 प्रदोष व्रत करने का विधान हैं, एवं संतान बाधा में शनि प्रदोष व्रत सबसे उत्तम मनागया हैं।

संतान कि कामना हेतु प्रदोष व्रत के दिन पति-पत्नी दोनो प्रातः स्नान इत्यादि नित्य कर्म से निवृत होकर शिव, पार्वती और गणेशजी कि एक साथमें आराधना कर किसी भी शिव मंदिर में जाकर शिवलिंग पर जल भिषेक, पीपल के मूल में जल चढ़ाकर सारे दिन निर्जल रहने का विधान हैं।



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