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मंगलवार, नवंबर 02, 2010

मां लक्ष्मी के चमत्कार कि महिमा

Story of godess maha laxmi, stori of godess maha lakshmi
मां लक्ष्मी के चमत्कार कि महिमा


       पौराणिक काल कि बात हैं, एक दिन लक्ष्मी जी से उनकी बड़ी बहन ज्येष्ठा ने कहा, लक्ष्मी बहुत दिनों से एक बात मेरे मस्तिष्क में उठ रही हैं। मैं सोच रही हूँ कि तुमसे पूछूं या नहीं। लक्ष्मीजी ने कहा ऐसी क्या बात हैं बहन? मन में जो कुछ भी प्रश्न हैं, आप निःसंकोच पूछो। वैसे भी बुद्धिमानी उसी में हैं कि किसी भी बात को मन में न रखकर उसका समाधान कर लेना।

       ज्येष्ठा ने कहा मैं अक्सर यही सोचती रहती हूँ कि हम दोनों सगी बहनें हैं, सुंदरता में हम दोनों बराबर हैं, फिर भी लोग तुम्हारा आदर करते हैं और मैं जहाँ भी जाती हूँ, वहाँ के माहोल में उदासी छा जाती हैं। बार-बार मुझे लोगों कि घृणा और क्रोध का शिकार होना पड़ता हैं। ऐसा क्यों?

       लक्ष्मी जी ने हँसते हुवे कहा, सगी बहन या समान सुंदरता होने से ही आदर नहीं मिलता। आदर पाने के लिये हमें स्वयं भी कुछ करना चाहिए। लोग मेरा आदर इसलिए करते हैं क्योंकि मैं उनके घर में प्रवेश करते ही सुख के साधन जुटा देती हूँ। इस लिये सम्पत्ति और वैभव से आनंदित होकर लोग मेरा उपकार मानते हैं, मेरी पूजा करते हैं। और तुम जिसके यहाँ भी जाती हो, उसको ग़रीबी, रोग और कष्ट प्राप्त होता हैं। इसी लिये लोग तुमसे घृणा करते हैं। कोई आदर नहीं करता। आदर पाने के लिये दूसरों को सुख पहुँचाओ। ज्येष्ठा को लक्ष्मी जी कि यह बात चुभ गई। ज्येष्ठा को लगा कि लक्ष्मी को अपनी महिमा का अभिमान हो गया हैं।

       ज्येष्ठाने क्रोध से तिलमिलाते हुवे कर कहा, लक्ष्मी तुम मुझसे छोटी हो अवस्था में भी और प्रभाव हर बात तुम मुझसे छोटी हो। तुमहें मुझे उपदेश देने कि आवश्यकता नहीं हैं। यदि तुम्हें अपने वैभव का अहंकार हैं तो मेरे पास भी अपना एक प्रभाव हैं। मैं जब अपनी पर आ जाऊँ तो तुम्हारे करोड़पति भक्त को भी पल भर में भिखारी बना सकती हूँ। ज्येष्ठा कि बात पर लक्ष्मी जी को हँसी आ गई और कहने लगीं, बहन तुम बड़ी हो, इसलिए कुछ भी कह लो। लेकिन जहाँ तक प्रभाव कि बात है, मैं तुमसे कम नहीं हूँ। जिसको तुम भिखारी बनाओगी, उसे मैं दूसरे दिन भिखारी से फिर राजा बना दूँगी। मेरी महिमा का अभी तुम्हें पता ही कहाँ हैं। और तुम्हें भी मेरी महिमा का पता ही नहीं है। जिसकी तुम सहायता करोगी, उसे मैं दाने−दाने के लिए भी मोहताज कर दूँगी। देखो बहन दाने-दाने के लिए तो तुम उसे मोहताज कर सकती हो जिससे मैं रूठ जाऊँ। जिसके सिर पर मेरा हाथ न हो, उसका तुम कुछ भी बिगाड़ सकती हो। परंतु जिस पर मेरी कृपा द्रष्टि हैं, जिसे मेंरा वरदान प्राप्त हैं उसका कोई बाल भी बांका नहीं कर सकता।

       अगर तुम अपना प्रभाव दिखाने को इतनी ही उतावली हो रही हो तो कल अपना प्रभाव दिखाकर देख लेना। बोलो, कहाँ चलें? दूर क्यों जाएँ, पास ही अनुराधापुर गांव हैं। उसमें एक ब्राह्मण रहता हैं दीनानाथ। वह रोज मंदिर में पूजा करने जाता हैं और मेरा परम भक्त हैं। उसी पर हमें अपनी−अपनी महिमा दिखानी हैं। लक्ष्मी जी कि इस बात पर ज्येष्ठा को ताव आ गया। उन्होंने हाथ झटककर कहा, ठीक है, ठीक हैं। देख लेना, कल तुम्हारा सिर कैसें झुक जाएगा। कहकर वह चली गई।

       लक्ष्मी जी वहीं खड़ी बहन ज्येष्ठा के क्रोध ओर अहंकार पर मुस्कराती रहीं। दूसरे दिन दोनों बहनें अनुराधापुर के विष्णु मंदिर में वेश बदल कर पहुँचीं। साधारण स्त्रियों कि तरह वे दोनों मंदिर के द्वार पर बैठ गईं। स्थानिय लोगों ने दोनों को देखा अवश्य, किंतु किसी ने उनकी ओर कोई ख़ास ध्यान नहीं दिया। ध्यान देने वाली कोई ख़ास बात भी नहीं थी । वह मंदिर था और वहाँ हर रोज दीन दुःखी आते−जाते रहते थे।

       थोड़ी देर बाद वहाँ दीनानाथ पंडित आया। दोनों बहनों कि नजरें उस पर जम गईं। पूजा करके जब दीनानाथ लौटने लगा तो ज्येष्ठा ने कहा, लक्ष्मी वह तुम्हारा भक्त आ रहा हैं। बन पड़े तो उसकी कोई सहायता करो। हाँ, करती हूँ। कहकर लक्ष्मी जी ने एक पोला बांस दीनानाथ के रास्ते में रख दिया जिसमें सोने कि मोहरें भरी हुई थीं। ज्येष्ठा ने बांस को छूकर कहा, अब तुम मेरा प्रभाव भी देख लो। पूजा करके लौट रहे दीनानाथ ने रास्ते में पड़ा हुआ वह बांस का टुकड़ा उठा लिया। उसने विचार किया कि वह किसी काम आ जाएगा। घर में सौ ज़रूरतें होती हैं।

       अभी वह पंडित कुछ ही आगे बढ़ा था कि उसे रास्ते में एक लड़का मिला। लड़के ने पहले दीनानाथ पंडित से राम−राम कि, फिर बड़ी ही नम्रता से बोला, पंडित जी मुझे अपनी चारपाई के लिए बिल्कुल ऐसा ही बांस चाहिए। दादा जी ने यह कहकर भेजा हैं कि जाओ, बाज़ार से ले आओ। ऐसा बांस पंडित जी कहाँ मिलेगा? दीनानाथ ने कहा, मैंने इसे मोल देकर नहीं लिया। रास्ते में पड़ा था; सो उठा लाया। लो, तुम्हें ज़रूरत है तो तुम ही रख लो। वैसे बाज़ार में एक रुपये से कम का नहीं हैं। लड़के ने चवन्नी देते हुए कहा, मगर मेरे पास तो यह चवन्नी ही हैं, पंडित जी। अभी तो आप इसे ही रखिए, बाकी बारह आने शाम को दे जाऊँगा। पंडित जी खुश थे कि बिना किसी महेनत के एक रुपया कमा लिया। दीनानाथ पंडित ने चवन्नी लेकर बांस लड़के को दे दिया और वह चवन्नी अपनी डोलची में रख दी।

       मंदिर के पास खड़ी दोनों बहनें यह सारी लीला देख रही थीं। ज्येष्ठा ने कहा, लक्ष्मी देखा तुमने? तुम्हारी इतनी सारी सोने कि मोहरें मात्र एक चवन्नी में बिक गईं। और आगे देखती जाओं यह चवन्नी भी तुम्हारे भक्त के पास नहीं रूकेगी। चलो, उसके पीछे चलते हैं और देखते हैं कि क्या होता हैं। दोनों बहने दीनानाथ के पीछे−पीछे चलने लगीं। एक तालाब के पास दीनानाथ ने डोलची रख दी और कमल के फूल तोड़ने लगा। उसी बीच एक चरवाहे का लड़का आया और डोलची में रखी हुई चवन्नी लेकर भाग गया। दीनानाथ पंडित को पता ही नहीं चला। फूल तोड़कर वह अपने घर जाने लगा। इतने में वही लड़का आता हुआ दिखाई दिया जिसने चवन्नी देकर उससे बांस ले लिया था। करीब आकर वह बोला, पंडित जी यह बांस तो बहुत वज़नी हैं। दादाजी ने कहा हैं कि कोई हल्का बांस चाहिए। इसकी चारपाई ठीक न होगी। यह लीजिए, आप अपना बांस वापस ले लीजिए। कहकर उसने बांस पंडित जी के हवाले कर दिया।

       दीनानाथ ने बांस ले लिया। चवन्नी वापस करने के लिये डोलची में हाथ डाला तो देखा चवन्नी तो डोलची में हैं नहीं। तब उसने कहा, बेटा, चवन्नी तो कहीं गिर गई। तुम मेरे साथ घर चलो, वहाँ से तुम्हें दूसरी दे दूँगा। इस समय मेरे पास एक भी पैसा नहीं हैं। पंडित जी तब आप जाइए। मैं शाम को आकर घर से ले लूँगा। यह कहकर लड़का अपनी राह लौट गया। बांस फिर से पंडित जी के ही पास आ गया और लक्ष्मी जी हौले से मुस्कराईं। उनको इस प्रकार मुस्कराते देखकर ज्येष्ठा मन ही मन में जल उठीं। वह बोलीं, 'अभी तो खेल शुरू ही हुआ हैं।

       देखती चलो मैं इसे कैसे नाच नचाती हूँ। दीनानाथ पंडित बेचारा इन सब बातों से बेख़बर अपनी ही धुन में आगे बढ़ा चला जा रहा था। आगे चलकर गाँव का एक अहीर मिला। उसने दीनानाथ पंडित को चवन्नी वापस करते हुए बताया, पंडित जी मेरा लड़का आपकी डोलची से यह चवन्नी उठा लाया था। वह बड़ा ही शैतान हैं। मैं आपकी वही चवन्नी लौटाने आया हूँ। हो सके तो उस शैतान को माफ कर दीजिएगा। दीनानाथ पंडित ने आशीर्वाद देकर चवन्नी ले ली और प्रसन्न मन से उस लड़के को पुकारने लगा जो शाम को घर आकर चवन्नी लेने कि बात कहकर लौटा जा रहा था। आवाज़ सुनकर लड़का लौट आया। अपनी चवन्नी वापस पाकर वह भी प्रसन्न हो गया। दीनानाथ पंडित निश्चिंत मन से घर कि ओर बढ़ने लगा। उसके एक हाथ में पूजा कि डोलची थी और दूसरे में वही लम्बा बांस।

       राह चलते दीनानाथ पंडित सोच रहा था, यह बांस तो काफ़ी वज़नी हैं। वज़नी हैं तो मजबूत भी होगा, क्योंकि ठोस हैं। इसे दरवाजे के छप्पर में लगा दूँगा। ज्येष्ठा को उसके विचार पर क्रोध आ गया। लक्ष्मी जी के प्रभाव से दीनानाथ पंडित को लाभ होता देख वह मन ही मन बुरी तरह जली जा रहीं थीं। जब उन्होंने देखा कि पंडित का घर क़रीब आ गया है तो कोई उपाय न पाकर उन्होंने दीनानाथ को मारने डालने का विचार किया। उन्होंने कहा, लक्ष्मी धन−सम्पत्ति तो मैं छीन ही लेती हूँ, अब तुम्हारे भक्त के प्राण भी ले लूँगी। देखो, वह किस तरह तड़प−तड़प कर मरता हैं।

       इतना कहकर ज्येष्ठा तुरंत साँप बनकर दीनानाथ कि ओर दौड़ पड़ीं। लक्ष्मी जी को तनिक भी घबराहट नहीं हुई। वह उसी तरह खड़ी मुस्कराती रहीं। साँप देख कर सहसा दीनानाथ पंडित चौंक पड़ा। साँप फन उठाए उसकी ओर झपट रहा था। प्राण तो सभी को प्रिय होते हैं। उपाय रहते कोई अपने को संकट में नहीं पड़ने देता। दीनानाथ ने पगडंडी वाला रास्ता छोड़ दिया और एक ओर को भागने लगा। लेकिन साँप बनी ज्येष्ठा उसे भला कहाँ छोड़ने वाली थीं। वह तो उस ग़रीब के प्राणों कि प्यासी हो चुकी थीं। वह भी दीनानाथ के आगे−पीछे, दाएं−बाएं बराबर दौड़ती ही रहीं। दीनानाथ घबरा गया। उसने हाथ जोड़कर कहा, नाग देवता मैंने तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ा। शांति से अपनी राह लौट जाओ। आखिर क्यों मुझ ग़रीब के पीछे पड़े हो? व्यर्थ में किसी ब्राह्मण को सताना अच्छी बात नहीं है।

       लेकिन वह नाग तो ज्येष्ठा का रूप था, जो दीनानाथ पंडित को किसी भी तरह डसना चाहता था। प्रार्थना पर कुछ भी ध्यान न देकर वह साँप एक बारगी फुफकारता हुआ झपट पड़ा। जब दीनानाथ ने देख लिया कि बिना संघर्ष किए अब जान नहीं बचेगी तो उसने प्राण−रक्षा के लिए भरपूर जोर लगाकर वही बांस साँप के ऊपर दे मारा। धरती से टकराते ही बांस के दो टुकड़े हो गए और उसके भीतर भरी हुईं सोने कि मोहरें खन−खनाकर बिखर गईं, जैसे लक्ष्मी हँस रही हो।

       दीनानाथ पंडित के मुँह से हैरतपूर्ण चीख−सी निकली, अरे थोड़ी देर के लिए वह ठगा−सा खड़ा आँखें फाड़े, उन मोहरों कि ओर देखता रहा। एक पल के लिए तो वह साँप को भूल ही गया था। कुछ पल बाद जैसे उसे झटका−सा लगा। साँप का ध्यान आते ही उसने उसकी ओर गरदन घुमायी, तो देखा कि बांस कि चोट से साँप कि कमर टूट गयी हैं और वह लहूलुहान अवस्था में झाड़ी कि ओर भागा जा रहा हैं।

       दूसरे क्षण वह मोहरों पर लोट गया और कहने लगा, तेरी जय हो लक्ष्मी माता! जीवन−भर का दारिद्रय आज दूर हो गया। तेरी महिमा कौन जान सकता हैं। चलो, अब घर में बैठकर तुम्हारी पूजा−आरती करूँगा। और फिर जल्दी−जल्दी उसने सारी मोहरें अंगोछे में बाँध दीं और लम्बे−लम्बे कदमों से घर कि ओर चल दिया।

       पीछे एक पेड़ कि छाया में खड़ी लक्ष्मी अपनी बहन ज्येष्ठा से मुस्कराकर पूछ रहीं थीं, कहो बहन सच बताना, बड़प्पन कि थाह मिली कि अभी नहीं? बड़प्पन किसी को कुछ देने में ही है, उससे छीनने में नहीं।

       ज्येष्ठा ने कोई उत्तर नहीं दिया। वह चुपचाप उदास खड़ी रहीं। लक्ष्मी जी ने उनका हाथ पकड़कर कहा, फिर भी, हम दोनों बहनें हैं। जहाँ रहेंगीं, साथ ही रहेंगीं। आओ, अब चलें।
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