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सोमवार, अक्टूबर 25, 2010

गणेश चतुर्थी व्रत (26-अक्टूबर- 2010 )

26-October- 2010 विक्रम संवत 2067

गणेश चतुर्थी व्रत

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करवा चौथ व्रत (26-oct-2010)

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करवा चौथ व्रत


कार्तिक मास कि चतुर्थी के दिन विवाहित महिलाओं द्वारा करवा चौथ का व्रत किया जाता है। करवा का अर्थात मिट्टी के जल-पात्र कि पूजा कर चंद्रमा को अर्ध्य देने का महत्व हैं। इसीलिए यह व्रत करवा चौथ नाम से जाना जाता हैं। इस दिन पत्नी अपने पति की दीर्घायु के लिये मंगलकामना और स्वयं के अखंड सौभाग्य रहने कि कामना करती हैं। करवा चौथ के पूरे दिन पत्नी द्वारा उपवास रखा जाता हैं। इस दिन रात्रि को जब आकाश में चंद्रय उदय से पूर्व सोलह सृंगार कर चंद्र निकलने कि प्रतिक्षा करती हैं। व्रत का समापन चंद्रमा को अर्ध्य देने के साथ ही उसे छलनी से देखा जाता हैं, उसके बाद पति के चरण स्पर्श कर उनसे आशीर्वाद प्राप्त करती हैं। ऐसी मान्यता है कि इस व्रत को करने से महिलाएं अखंड सौभाग्यवती होती हैं, उसका पति दीर्घायु होता हैं।

यदि इस व्रत को पालन करने वाली पत्नी अपने पति के प्रति मर्यादा से, विनम्रता से, समर्पण के भाव से रहे और पति भी अपने समस्त कर्तव्य एवं धर्म का पालन सुचारु रुप से पालन करें, तो एसे दंपत्ति के जीवन में सभी सुख-समृद्धि से भरा जाता हैं।

कथा : एसी मान्यता हैं, कि भगवान श्रीकृष्ण ने द्रोपदी को यह व्रत का महत्व बताया था। पांडवों के वनवास के दौरान अर्जुन तप करने के लिए इंद्रनील पर्वत पर चले गए। बहुत दिन बीत जाने के बाद भी जब अर्जुन नहीं लौटे तो द्रोपदी को चिंता होने लगी। जब श्रीकृष्ण ने द्रोपदी को चिंतित देखा तो फौरन चिंता का कारण समझ गए। फिर भी श्रीकृष्ण ने द्रोपदी से कारण पूछा तो उसने यह चिंता का कारण श्रीकृष्ण के सामने प्रकट कर दिया। तब श्रीकृष्ण ने द्रोपदी को करवाचौथ व्रत करने का विधान बताया। द्रोपदी ने श्रीकृष्ण से व्रत का विधि-विधान जान कर व्रत किय और उसे व्रत का फल मिला, अर्जुन सकुशल पर्वत पर तपस्या पूरी कर शीघ्र लौट आए।

पूजन-विधि: करवा चौथ के दिन ब्रह्म मुहूर्त में उठ कर स्नान के स्वच्छ कपडे पहन कर करवा की पूजा-आराधना कर उसके साथ शिव-पार्वती कि पूजा का विधान हैं। क्योकि माता पार्वती नें कठिन तपस्या कर के शिवजी को प्राप्त कर अखंड सौभाग्य प्राप्त किया था। इस लिये शिव-पार्वती कि पूजा कि जाती हैं।

करवा चौथ के दिन चंद्रमा कि पूजा का धार्मिक और ज्योतिष दोनों ही द्रष्टि से महत्व है।
छांदोग्य उपनिषद् के अनुशार जो चंद्रमा में पुरुषरूपी ब्रह्मा कि उपासना करता है, उसके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं, उसे जीवन में किसी प्रकार का कष्ट नहीं होता। उसे लंबी और पूर्ण आयु कि प्राप्ति होती हैं।

ज्योतिष दृष्टि से चंद्रमा मन का कारक देवता हैं। अतः चंद्रमा चंद्रमा कि पूजा करने से मन की चंचलता पर नियंत्रित रहता हैं। चंद्रमा के शुभ होने पर से मन प्रसन्नता रहता हैं और मन से अशुद्ध विचार दूर होकर मन में शुभ विचार उत्पन्न होते हैं। क्योकि शुभ विचार ही मनुष्य को अच्छे कर्म करने हेतु प्रेरित करते हैं। स्वयं के द्वारा किये गई गलती या एवं अपने दोषों का स्मरण कर पति, सास-ससुर और बुजुर्गो के चरणस्पर्श इसी भाव के साथ करें कि इस साल ये गलतियां फिर नहीं हों।

आंखो से व्यक्तित्व भाग:4

Ankho se Vyaktitva bhaga:4, Part:4

आंखो से व्यक्तित्व भाग:४
  • आंखों में काले-काले तिल जैसी निशानी वाले व्यक्ति आत्म-बल से धनी होते हैं।
  • अधिक काले तिलों वाला व्यक्ति की दरिद्रता का सूचक है।
  • आंखों के सफेद भाग में पीला पन होते व्यक्ति ज्यादा क्रोधी और झगडालू होते हैं।
  • आंखों के सफेद भाग में पीले पन के साथ में लालिमा होतो एसे व्यक्ति हमेशा क्रोधित तथा अशान्त रहते हैं।
  • जिस व्यक्ति कि आंखे सोते वक्त खुली रहती हैं वह व्यक्ति चिन्तातुर तथा लालची होते हैं।
  • जिस व्यक्ति कि आंखे अधिक झपकती हैं एसे व्यक्ति शास्त्रोक्त मत से ज्यादा जुठ बोल ने वाले सबको ठगने वाले होते हैं।
  • जिस व्यक्ति कि आंखे बात करते समय उसकी आंखे नीचे हो या हमारी और ना हो तो एसे व्यक्ति कपट रखने वाले एवं कुटनीति वाले होते हैं।
  • जो व्यक्ति किसी से आंखें मिलते ही अपनी आंखे झपकाते हैं एसे व्यक्ति दोहरे व्यक्तित्व वाले होता हैं, अंदर कुछ और बाहर कुछ।
  • चलते समय जो व्यक्ति नीची द्रष्टि करके चलते है वह मन के पवित्र होता हैं।
  • चलते समय जो व्यक्ति उपर द्रष्टि करके चलते है वह पुण्यात्मा एवं धनवान होते हैं।
  • चलते समय जो व्यक्ति आडी-तिरछी नजर कर के चलते हैं वह व्यक्ति क्रोधी होते हैं।
  • नजर बचाकर चलने वाले व्यक्ति चोर, अपराधी व पतित स्वभाव वाले होते हैं।
>> आंखो से व्यक्तित्व भाग:1
>> आंखो से व्यक्तित्व भाग:2
>> आंखो से व्यक्तित्व भाग: 3

गुरुवार, अक्टूबर 21, 2010

कोजागरी पूर्णिमा

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कोजागरी पूर्णिमा

आश्विन मास की पूर्णिमा को 'कोजागर व्रत' रखा जाता हैं। इस लिये इस पूर्णिमा को कोजागरी पूर्णिमा भी कहा जाता है।

इस दिन व्यक्ति विधिपूर्वक स्नान करके व्रत-उपवास रखने का विधान हैं। इस दिन श्रद्धा भाव से ताँबे या मिट्टी के कलश पर वस्त्र से ढँकी हुई स्वर्णमयी लक्ष्मी की प्रतिमा को स्थापित किया जाता हैं। फिर लक्ष्मी जी कि भिन्न-भिन्न उपचारों से पूज-अर्चना करने का विधान हैं। सायंकाल में चन्द्रोदय होने पर सोने, चाँदी अथवा मिट्टी के घी से भरे हुए दीपक जलाने कि परंपरा हैं।

इस दिन घी मिश्रित खीर को पात्रों में डालकर उसे चन्द्रमा की चाँदनी में रखा जाता हैं। एक प्रहर (३ घंटे) खीर को चाँदनी में रखनेके बाद में उसे लक्ष्मीजी को सारी खीर अर्पण कि जाती हैं। तत्पश्चात भक्तिपूर्वक सात्विक ब्राह्मणों को खीर का भोजन कराएँ और उनके साथ ही मांगलिक गीत गाकर तथा मंगलमय कार्य करते हुए रात्रि जागरण किया जाता हैं।

मान्यता हैं कि पूर्णिमा कि मध्यरात्रि में देवी महालक्ष्मी अपने हाथो में वर और अभय वरदान लिए भूलोक में विचरती हैं। इस दिन जो भक्तजन जाग रहा होता हैं उसे माता लक्ष्मी धन-संपत्ति प्रदान करती हैं।

शरद पूर्णिमा

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शरद पूर्णिमा

हिंदू पंचांग के अनुसार पूरे वर्ष में बारह पूर्णिमा आती हैं। पूर्णिमा के दिन चंद्रमा अपने पूर्ण आकार में होता है। पूर्णिमा पर चंद्रमा का अतुल्य सौंदर्य देखते ही बनता है। विद्वानो के अनुसार पूर्णिमा के दिन चंद्रमा पूर्ण आकार में होने के कारण वर्ष में आने वाली सभी पूर्णिमा पर्व के समान हैं। लेकिन इन सभी पूर्णिमा में आश्विन मास कि पूर्णिमा सबसे श्रेष्ठ मानी गई है। यह पूर्णिमा शरद ऋतु में आने के कारण इसे शरद पूर्णिमा भी कहते हैं। शरद ऋतु की इस पूर्णिमा को पूर्ण चंद्र का अश्विनी नक्षत्र से संयोग होता है। अश्विनी जो नक्षत्र क्रम में प्रथम नक्षत्र हैं, जिसके स्वामी अश्विनीकुमार है।
कथा के अनुशार च्यवन ऋषि को आरोग्य का पाठ और औषधि का ज्ञान अश्विनीकुमारों ने ही दिया था। यही ज्ञान आज हजारों वर्ष बाद भी हमारे पास अनमोल धरोहर के रूप में संचित है। अश्विनीकुमार आरोग्य के स्वामी हैं और पूर्ण चंद्रमा अमृत का स्रोत। यही कारण है कि ऐसा माना जाता है कि इस पूर्णिमा को ब्रह्मांड से अमृत की वर्षा होती है।


 
खीर का भोग
शरद पूर्णिमा की रात में गाय के दूध से बनी खीर को चंद्रमा कि चांदनी में रखकर उसे प्रसाद-स्वरूप ग्रहण किया जाता है। पूर्णिमा की चांदनी में 'अमृत' का अंश होता है, इस लिये मान्यता यह है कि ऐसा करने से चंद्रमा की अमृत की बूंदें भोजन में आ जाती हैं जिसका सेवन करने से सभी प्रकार की बीमारियां आदि दूर हो जाती हैं। आयुर्वेद के ग्रंथों में भी इसकी चांदनी के औषधीय महत्व का वर्णन मिलता है। रखकर दूध से बनी खीर को चांदनी के में असाध्य रोगों की दवाएं खिलाई जाती है।


कथा
एक साहुकार के दो पुत्रियाँ थी। दोनो पुत्रियाँ शरद पुर्णिमा का व्रत रखती थी। परन्तु बडी पुत्री पूरा व्रत करती थी और छोटी पुत्री अधुरा व्रत करती थी। परिणाम यह हुआ कि छोटी पुत्री की सन्तान पैदा होते ही मर जाती थी। उसने पंडितो से इसका कारण पूछा तो उन्होने बताया की तुम पूर्णिमा का अधूरा व्रत करती थी जिसके कारण तुम्हारी सन्तान पैदा होते ही मर जाती हैं। पूर्णिमा का पुरा विधिपुर्वक करने से तुम्हारी सन्तान जीवित रह सकती हैं। उसने पंतिडतो कि सलाह पर पूर्णिमा का पूरा व्रत विधिपूर्वक किया। उसके लडका हुआ परन्तु शीघ्र ही मर गया । उसने लडके को लकडी के पट्टे पर लिटाकर ऊपर से कपडा ढक दिया। फिर बडी बहन को बुलाकर लाई और बैठने के लिए वही पट्टा दे दिया। बडी बहन जब पीढे पर बैठने लगी जो उसका घाघरा बच्चे का छू गया, बच्चा घाघरा छुते ही रोने लगा। बडी बहन बोली तुम मुझे कंलक लगाना चाहती थी। मेरे बैठने से यह मर जाता तब छोटी बहन बोली यह तो पहले से मरा हुआ था। तेरे ही भाग्य से यह पुनः जीवित हो गया हैं । तेरे पुण्य से ही यह अभी जीवित हुआ हैं। उसके बाद से शरद पुर्णिमा का पूरा व्रत करने का प्रचलन चल निकला।

शुक्रवार, अक्टूबर 15, 2010

नवम् सिद्धिदात्री

नवरात्र में मां दुर्गा के सिद्धिदात्री रुप की आराधना,, navaratra meM maa durga ke siddhidatree rup ki araadhana,

नवम् सिद्धिदात्री


नवरात्र के नौवें दिन मां के सिद्धिदात्री स्वरूप का पूजन करने का विधान हैं।
देवी सिद्धिदात्री का स्वरूप कमल आसन पर विराजित, चार भुजा वाला, दाहिनी तरफ के नीचे वाले हाथ में चक्र, ऊपर वाले हाथ में गदा, बाई तरफ से नीचे वाले हाथ में शंख और ऊपर वाले हाथ में कमल पुष्प सुशोभित रहते हैं।

मंत्र :
सिद्धगंधर्वयक्षाद्यैरसुरैररमरैरपि। सेव्यमाना सदा भूयात सिद्धिदा सिद्धिदायिनी।।

ध्यान:-
वन्दे वांछितमनरोरार्थेचन्द्रार्घकृतशेखराम्।
कमलस्थिताचतुर्भुजासिद्धि यशस्वनीम्॥
स्वर्णावर्णानिर्वाणचक्रस्थितानवम् दुर्गा त्रिनेत्राम।
शंख, चक्र, गदा पदमधरा सिद्धिदात्रीभजेम्॥
पटाम्बरपरिधानांसुहास्यानानालंकारभूषिताम्।
मंजीर, हार केयूर, किंकिणिरत्नकुण्डलमण्डिताम्॥
प्रफुल्ल वदनापल्लवाधराकांत कपोलापीनपयोधराम्।
कमनीयांलावण्यांक्षीणकटिंनिम्ननाभिंनितम्बनीम्॥

स्तोत्र:-
कंचनाभा शंखचक्रगदामधरामुकुटोज्वलां। स्मेरमुखीशिवपत्नीसिद्धिदात्रीनमोअस्तुते॥
पटाम्बरपरिधानांनानालंकारभूषितां। नलिनस्थितांपलिनाक्षींसिद्धिदात्रीनमोअस्तुते॥
परमानंदमयीदेवि परब्रह्म परमात्मा। परमशक्ति,परमभक्तिसिद्धिदात्रीनमोअस्तुते॥
विश्वकतींविश्वभर्तीविश्वहतींविश्वप्रीता। विश्वर्चिताविश्वतीतासिद्धिदात्रीनमोअस्तुते॥
भुक्तिमुक्तिकारणीभक्तकष्टनिवारिणी। भवसागर तारिणी सिद्धिदात्रीनमोअस्तुते।।
धर्माथकामप्रदायिनीमहामोह विनाशिनी। मोक्षदायिनीसिद्धिदात्रीसिद्धिदात्रीनमोअस्तुते॥

कवच:-
ओंकार: पातुशीर्षोमां, ऐं बीजंमां हृदयो। हीं बीजंसदापातुनभोगृहोचपादयो॥
ललाट कर्णोश्रींबीजंपातुक्लींबीजंमां नेत्र घ्राणो। कपोल चिबुकोहसौ:पातुजगत्प्रसूत्यैमां सर्व वदनो॥

मंत्र-ध्यान-कवच- का विधि-विधान से पूजन करने वाले व्यक्ति का निर्वाण चक्र जाग्रत होता हैं। सिद्धिदात्री के पूजन से व्यक्ति कि समस्त कामनाओं कि पूर्ति होकर उसे ऋद्धि, सिद्धि कि प्राप्ति होती हैं। पूजन से यश, बल और धन कि प्राप्ति कार्यो में चले आ रहे बाधा-विध्न समाप्त हो जाते हैं। व्यक्ति को यश, बल और धन कि प्राप्ति होकर उसे मां कि कृपा से धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष कि भी प्राप्ति स्वतः हो जाती हैं।

अष्टम महागौरी

नवरात्र में मां दुर्गा के महागौरी रुप की आराधना,, navaratra meM maa durga ke mahagouri rup ki araadhana,

अष्टम महागौरी


नवरात्र के आठवें दिन मां के महागौरी स्वरूप का पूजन करने का विधान हैं। महागौरी स्वरूप उज्जवल, कोमल, श्वेतवर्णा तथा श्वेत वस्त्रधारी हैं। महागौरी मस्तक पर चन्द्र का मुकुट धारण किये हुए हैं। कान्तिमणि के समान कान्ति वाली देवी जो अपनी चारों भुजाओं में क्रमशः शंख, चक्र, धनुष और बाण धारण किए हुए हैं, उनके कानों में रत्न जडितकुण्डल झिलमिलाते रहते हैं। महागौरीवृषभ के पीठ पर विराजमान हैं। महागौरी गायन एवं संगीत से प्रसन्न होने वाली 'महागौरी' माना जाता हैं।

मंत्र:
श्वेते वृषे समरूढ़ा श्वेताम्बराधरा शुचि:। महागौरी शुभं दद्यान्महादेवप्रमोददा।।

ध्यान:-
वन्दे वांछित कामार्थेचन्द्रार्घकृतशेखराम्।
सिंहारूढाचतुर्भुजामहागौरीयशस्वीनीम्॥
पुणेन्दुनिभांगौरी सोमवक्रस्थितांअष्टम दुर्गा त्रिनेत्रम।
वराभीतिकरांत्रिशूल ढमरूधरांमहागौरींभजेम्॥
पटाम्बरपरिधानामृदुहास्यानानालंकारभूषिताम्।
मंजीर, कार, केयूर, किंकिणिरत्न कुण्डल मण्डिताम्॥
प्रफुल्ल वदनांपल्लवाधरांकांत कपोलांचैवोक्यमोहनीम्।
कमनीयांलावण्यांमृणालांचंदन गन्ध लिप्ताम्॥

स्तोत्र:-
सर्वसंकट हंत्रीत्वंहिधन ऐश्वर्य प्रदायनीम्।
ज्ञानदाचतुर्वेदमयी,महागौरीप्रणमाम्यहम्॥
सुख शांति दात्री, धन धान्य प्रदायनीम्।
डमरूवाघप्रिया अघा महागौरीप्रणमाम्यहम्॥
त्रैलोक्यमंगलात्वंहितापत्रयप्रणमाम्यहम्।
वरदाचैतन्यमयीमहागौरीप्रणमाम्यहम्॥

कवच:-
ओंकार: पातुशीर्षोमां, हीं बीजंमां हृदयो। क्लींबीजंसदापातुनभोगृहोचपादयो॥ ललाट कर्णो,हूं, बीजंपात महागौरीमां नेत्र घ्राणों। कपोल चिबुकोफट् पातुस्वाहा मां सर्ववदनो॥

मंत्र-ध्यान-कवच- का विधि-विधान से पूजन करने वाले व्यक्ति का सोमचक्र जाग्रत होता हैं। महागौरी के पूजन से व्यक्ति के समस्त पाप धुल जाते हैं। महागौरी के पूजन करने वाले साधन के लिये मां अन्नपूर्णा के समान, धन, वैभव और सुख-शांति प्रदान करने वाली एवं संकट से मुक्ति दिलाने वाली देवी महागौरी हैं।

बुधवार, अक्टूबर 13, 2010

सप्तम कालरात्रि

नवरात्र में मां दुर्गा के कालरात्रि रुप की आराधना,, navaratra meM maa durga ke kalratri rup ki araadhana,

सप्तम कालरात्रि

नवरात्र के सातवें दिन मां के कालरात्रि स्वरूप का पूजन करने का विधान हैं। कालरात्रि देवी के शरीर का रंग घने अंधकार कि तरह एकदम काला हैं, सिर के बाल फैलाकर रखने वाली हैं।

कालरात्रि का स्वरुप तीन नेत्र वाला एवं गले में चमकने वाली माला धारण करने वाली हैं। कालरात्रि कि आंखों से अग्नि की वर्षा होती है एवं नासिका के श्वास में अग्नि की भंयकर ज्वालाएं निकलती रहती हैं। कालरात्रि के ऊपर उठे हुए दाहिने हाथ के वरमुद्रासे सभी मनुष्यो को वर प्रदान करती हैं। दाहिनी तरफ का नीचे वाला हाथ अभयमुद्रामें हैं। एक हाथ से शत्रुओं की गर्दन पकडे हुए हैं, दूसरे हाथ में खड्ग-तलवार शस्त्र से शत्रु का नाश करने वाली कालरात्रि विकट रूप में अपने वाहन गर्दभ(गधे) विराजमान हैं।

मंत्रः
एक वेधी जपाकर्णपूरा नग्ना खरास्थिता। लम्बोष्ठी कणिर्काकणी तैलाभ्यक्तशरीरिणी।।
वामपदोल्लसल्लोहलताकण्टक भूषणा। वर्धनमूर्धध्वजा कृष्णा कालरात्रिर्भयंकरी।।

ध्यान:-
करालवदनां घोरांमुक्तकेशींचतुर्भुताम्। कालरात्रिंकरालिंकादिव्यांविद्युत्मालाविभूषिताम्॥
दिव्य लौहवज्रखड्ग वामाघो‌र्ध्वकराम्बुजाम्। अभयंवरदांचैवदक्षिणोध्र्वाघ:पाणिकाम्॥
महामेघप्रभांश्यामांतथा चैपगर्दभारूढां। घोरदंष्टाकारालास्यांपीनोन्नतपयोधराम्॥
सुख प्रसन्न वदनास्मेरानसरोरूहाम्। एवं संचियन्तयेत्कालरात्रिंसर्वकामसमृद्धिधदाम्॥

स्तोत्र:-
हीं कालरात्रि श्रींकराली चक्लींकल्याणी कलावती। कालमाताकलिदर्पध्नीकमदींशकृपन्विता॥
कामबीजजपान्दाकमबीजस्वरूपिणी। कुमतिघनीकुलीनार्तिनशिनीकुल कामिनी॥
क्लींहीं श्रींमंत्रवर्णेनकालकण्टकघातिनी। कृपामयीकृपाधाराकृपापाराकृपागमा॥

कवच:-
ॐ क्लींमें हदयंपातुपादौश्रींकालरात्रि। ललाटेसततंपातुदुष्टग्रहनिवारिणी॥ रसनांपातुकौमारी भैरवी चक्षुणोर्मम
हौपृष्ठेमहेशानीकर्णोशंकरभामिनी। वर्जितानितुस्थानाभियानिचकवचेनहि। तानिसर्वाणिमें देवी सततंपातुस्तम्भिनी॥

मंत्र-ध्यान-कवच- का विधि-विधान से पूजन करने वाले व्यक्ति का भानु चक्र जाग्रत होता हैं। कालरात्रि के पूजन से अग्नि भय, आकाश भय, भूत पिशाच इत्यादी शक्तियां कालरात्रि देवी के स्मरण मात्र से ही भाग जाते हैं, कालरात्रि का स्वरूप देखने में अत्यंत भयानक होते हुवे भी सदैव शुभ फल देने वाला होता हैं, इस लिये कालरात्रि को शुभंकरी के नामसे भी जाना जाता हैं। कालरात्रि शत्रु एवं दुष्टों का संहार कर ने वाली देवी हैं।

मंगलवार, अक्टूबर 12, 2010

षष्ठम् कात्यायनी

नवरात्र में मां दुर्गा के कात्यायनी रुप की आराधना,, navaratra meM maa durga ke katyayani rup ki araadhana,

षष्ठम् कात्यायनी


नवरात्र के छठें दिन मां के कात्यायनी स्वरूप का पूजन करने का विधान हैं। महर्षि कात्यायन कि पुत्री होने के कारण उन्हें कात्यायनी के नामसे जाना जाता हैं। कात्यायनी माता का जन्म आश्विन कृष्ण चतुर्दशी को हुवा था, जन्म के पश्चयाता मां कात्यायनी ने शुक्ल सप्तमी, अष्टमी तथा नवमी तक तीन दिन तक कात्यायन ऋषि कि पूजा ग्रहण किथी एवं विजया दशमी को महिषासुर का वध किया था।

देवी कात्यायनी का वर्ण स्वर्ण के समान चमकीला हैं, इस कारण देवी कात्यायनी का स्वरूप अत्यंत ही भव्य एवं दिव्य प्रतित होता हैं। कात्यायनी कि चार भुजाएं हैं। उनेके दाहिनी तरफ का ऊपर वाला हाथ अभय मुद्रामें है, तथा नीचे वाला वरमुद्रामें, बाई तरफ के ऊपर वाले हाथ में कमल पुष्प सुशोभित हैं, नीचे वाले हाथमें तलवार सुशोभित रहती हैं। कात्यायनी देवी अपने वाहन सिंह विराजन होती हैं।

मंत्र:
चंद्रहासोज्जवलकरा शाइलवरवाहना। कात्यायनी शुभं दद्याद्देवी दानवघातिनी।।

ध्यान:-
वन्दे वांछित मनोरथार्थचन्द्रार्घकृतशेखराम्। सिंहारूढचतुर्भुजाकात्यायनी यशस्वनीम्॥
स्वर्णवर्णाआज्ञाचक्रस्थितांषष्ठम्दुर्गा त्रिनेत्राम। वराभीतंकरांषगपदधरांकात्यायनसुतांभजामि॥
पटाम्बरपरिधानांस्मेरमुखींनानालंकारभूषिताम्। मंजीर हार केयुरकिंकिणिरत्नकुण्डलमण्डिताम्।।
प्रसन्नवंदनापज्जवाधरांकातंकपोलातुगकुचाम्। कमनीयांलावण्यांत्रिवलीविभूषितनिम्न नाभिम्॥

स्तोत्र:-
कंचनाभां कराभयंपदमधरामुकुटोज्वलां। स्मेरमुखीशिवपत्नीकात्यायनसुतेनमोअस्तुते॥
पटाम्बरपरिधानांनानालंकारभूषितां। सिंहास्थितांपदमहस्तांकात्यायनसुतेनमोअस्तुते॥
परमदंदमयीदेवि परब्रह्म परमात्मा। परमशक्ति,परमभक्ति्कात्यायनसुतेनमोअस्तुते॥
विश्वकर्ती,विश्वभर्ती,विश्वहर्ती,विश्वप्रीता। विश्वाचितां,विश्वातीताकात्यायनसुतेनमोअस्तुते॥
कां बीजा, कां जपानंदकां बीज जप तोषिते। कां कां बीज जपदासक्ताकां कां सन्तुता॥
कांकारहर्षिणीकां धनदाधनमासना। कां बीज जपकारिणीकां बीज तप मानसा॥
कां कारिणी कां मूत्रपूजिताकां बीज धारिणी। कां कीं कूंकै क:ठ:छ:स्वाहारूपणी॥

कवच:-
कात्यायनौमुख पातुकां कां स्वाहास्वरूपणी। ललाटेविजया पातुपातुमालिनी नित्य संदरी॥ कल्याणी हृदयंपातुजया भगमालिनी॥

मंत्र-ध्यान-कवच- का विधि-विधान से पूजन करने वाले व्यक्ति का आज्ञा चक्र जाग्रत होता हैं। देवी कात्यायनी के पूजन से रोग, शोक, भय से मुक्ति मिलती हैं। कात्यायनी देवी को वैदिक युग में ये ऋषि-मुनियों को कष्ट देने वाले रक्ष-दानव, पापी जीव को अपने तेज से ही नष्ट कर देने वाली माना गया हैं।

सोमवार, अक्टूबर 11, 2010

पंचम स्कंदमाता

नवरात्र में मां दुर्गा के स्कंदमाता रुप की आराधना,, navaratra meM maa durga ke skandmata rup ki araadhana,


पंचम स्कंदमाता


नवरात्र के पांचवें दिन मां के स्कंदमाता स्वरूप का पूजन करने का विधान हैं।स्कंदमाता कुमार अर्थात् कार्तिकेय कि माता होने के कारण, उन्हें स्कन्दमाता के नाम से जाना जाता हैं। सिंह और मयूर स्कंदमाता के वाहन हैं। देवी स्कंदमाता कमल के आसन पर पद्मासन कि मुद्रा में विराजमान रहती हैं, इसलिए उन्हें पद्मासन देवी के नाम से भी जाना जाता हैं। स्कंदमाता का स्वरुप चार भुजा वाला हैं। उनके दोनों हाथों में कमलदल लिए हुए हैं, उनकी दाहिनी तरफ कि ऊपर वाली भुजा में ब्रह्मस्वरूप स्कन्द्र कुमार को अपनी गोद में लिये हुए हैं। और स्कंदमाता के दाहिने तरफ कि नीचे वाली भुजा वरमुद्रामें हैं। स्कंदमाता यह स्वरुप परम कल्याणकारी मनागया हैं।

मंत्र:
सिंहासानगता नितयं पद्माश्रितकरद्वया। शुभदास्तु सदा देवी स्कन्दमाता यशस्विनी।।

ध्यान:-
वन्दे वांछित कामर्थेचन्द्रार्घकृतशेखराम्। सिंहारूढाचतुर्भुजास्कन्धमातायशस्वनीम्॥
धवलवर्णाविशुद्ध चक्रस्थितांपंचम दुर्गा त्रिनेत्राम। अभय पदमयुग्म करांदक्षिण उरूपुत्रधरामभजेम्॥ पटाम्बरपरिधानाकृदुहज्ञसयानानालंकारभूषिताम्। मंजीर हार केयूर किंकिणिरत्नकुण्डलधारिणीम।। प्रभुल्लवंदनापल्लवाधरांकांत कपोलांपीन पयोधराम्। कमनीयांलावण्यांजारूत्रिवलींनितम्बनीम्॥

स्तोत्र:-
नमामि स्कन्धमातास्कन्धधारिणीम्। समग्रतत्वसागरमपारपारगहराम्॥
शिप्रभांसमुल्वलांस्फुरच्छशागशेखराम्। ललाटरत्‍‌नभास्कराजगतप्रदीप्तभास्कराम्॥
महेन्द्रकश्यपार्चितांसनत्कुमारसंस्तुताम्। सुरासेरेन्द्रवन्दितांयथार्थनिर्मलादभुताम्॥
मुमुक्षुभिर्विचिन्तितांविशेषतत्वमूचिताम्। नानालंकारभूषितांकृगेन्द्रवाहनाग्रताम्।।
सुशुद्धतत्वातोषणांत्रिवेदमारभषणाम्। सुधार्मिककौपकारिणीसुरेन्द्रवैरिघातिनीम्॥
शुभांपुष्पमालिनीसुवर्णकल्पशाखिनीम्। तमोअन्कारयामिनीशिवस्वभावकामिनीम्॥
सहस्त्रसूर्यराजिकांधनज्जयोग्रकारिकाम्। सुशुद्धकाल कन्दलांसुभृडकृन्दमज्जुलाम्॥
प्रजायिनीप्रजावती नमामिमातरंसतीम्। स्वकर्मधारणेगतिंहरिप्रयच्छपार्वतीम्॥
इनन्तशक्तिकान्तिदांयशोथमुक्तिदाम्। पुन:पुनर्जगद्धितांनमाम्यहंसुरार्चिताम॥
जयेश्वरित्रिलाचनेप्रसीददेवि पाहिमाम्॥

कवच:-
ऐं बीजालिंकादेवी पदयुग्मधरापरा। हृदयंपातुसा देवी कातिकययुता॥ श्रींहीं हुं ऐं देवी पूर्वस्यांपातुसर्वदा। सर्वाग में सदा पातुस्कन्धमातापुत्रप्रदा॥ वाणवाणामृतेहुं फट् बीज समन्विता। उत्तरस्यातथाग्नेचवारूणेनेत्रतेअवतु॥ इन्द्राणी भैरवी चैवासितांगीचसंहारिणी। सर्वदापातुमां देवी चान्यान्यासुहि दिक्षवै॥

मंत्र-ध्यान-कवच- का विधि-विधान से पूजन करने वाले व्यक्ति का विशुद्ध चक्र जाग्रत होता हैं। व्यक्ति कि समस्त इच्छाओं की पूर्ति होती हैं एवं जीवन में परम सुख एवं शांति प्राप्त होती हैं।

रविवार, अक्टूबर 10, 2010

चतुर्थ कूष्माण्डा

नवरात्र में मां दुर्गा के कूष्माण्डा रुप की आराधना,, navaratra meM maa durga ke kushmanda rup ki araadhana,


चतुर्थ कूष्माण्डा


नवरात्र के चतुर्थ दिन मां के कूष्माण्डा स्वरूप का पूजन करने का विधान हैं। अपनी मंद हंसी द्वारा ब्रह्माण्ड को उत्पन्न किया था इसीके कारण इनका नाम कूष्माण्डा देवी रखा गया।

शास्त्रोक्त उल्लेख हैं, कि जब सृष्टि का अस्तित्व नहीं था, तो चारों तरफ सिर्फ अंधकार हि था। उस समय कूष्माण्डा देवी ने अपने मंद सी हास्य से ब्रह्मांड कि उत्पत्ति कि। कूष्माण्डा देवी सूरज के घेरे में निवास करती हैं। इसलिये कूष्माण्डा देवी के अंदर इतनी शक्ति हैं, जो सूरज कि गरमी को सहन कर सकें। कूष्माण्डा देवी को जीवन कि शक्ति प्रदान करता माना गया हैं।

कूष्माण्डा देवी का स्वरुप अपने वाहन सिंह पर सवार हैं, मां अष्ट भुजा वाली हैं। उनके मस्तक पर रत्न जडि़त मुकुट सुशोभित हैं, जिस्से उनका स्वरूप अत्यंय उज्जवल प्रतित होता हैं। उनके हाथमें हाथों में क्रमश: कमण्डल, माला, धनुष-बाण, कमल, पुष्प, कलश, चक्र तथा गदा सुशोभित रहती हैं।

मंत्र:
सुरासम्पूर्णकलशं रूधिराप्लुतमेव च। दधाना हस्तपद्माभ्यां कुष्मांडा शुभदास्तुमे।।

ध्यान:-
वन्दे वांछित कामर्थेचन्द्रार्घकृतशेखराम्।
सिंहरूढाअष्टभुजा कुष्माण्डायशस्वनीम्॥
भास्वर भानु निभांअनाहत स्थितांचतुर्थ दुर्गा त्रिनेत्राम्।
कमण्डलु चाप, बाण, पदमसुधाकलशचक्र गदा जपवटीधराम्॥
पटाम्बरपरिधानांकमनीयाकृदुहगस्यानानालंकारभूषिताम्।
मंजीर हार केयूर किंकिणरत्‍‌नकुण्डलमण्डिताम्।
प्रफुल्ल वदनांनारू चिकुकांकांत कपोलांतुंग कूचाम्।
कोलांगीस्मेरमुखींक्षीणकटिनिम्ननाभिनितम्बनीम्॥

स्त्रोत:-
दुर्गतिनाशिनी त्वंहिदारिद्रादिविनाशिनीम्। जयंदाधनदांकूष्माण्डेप्रणमाम्यहम्॥
जगन्माता जगतकत्रीजगदाधाररूपणीम्। चराचरेश्वरीकूष्माण्डेप्रणमाम्यहम्॥
त्रैलोक्यसुंदरीत्वंहिदु:ख शोक निवारिणाम्। परमानंदमयीकूष्माण्डेप्रणमाम्यहम्॥

कवच:-

हसरै मेशिर: पातुकूष्माण्डेभवनाशिनीम्।
हसलकरींनेत्रथ,हसरौश्चललाटकम्॥
कौमारी पातुसर्वगात्रेवाराहीउत्तरेतथा।
पूर्वे पातुवैष्णवी इन्द्राणी दक्षिणेमम।
दिग्दिधसर्वत्रैवकूंबीजंसर्वदावतु॥


मंत्र-ध्यान-कवच- का विधि-विधान से पूजन करने वाले व्यक्ति का अनाहत चक्र जाग्रत हो हैं। मां कूष्माण्डाका के पूजन से सभी प्रकार के रोग, शोक और क्लेश से मुक्ति मिलती हैं, उसे आयुष्य, यश, बल और बुद्धि प्राप्त होती हैं।

शनिवार, अक्टूबर 09, 2010

तृतीयं चन्द्रघण्टा

नवरात्र में मां दुर्गा के चन्द्रघण्टा रुप की आराधना,, navaratra meM maa durga ke chandraghanta rup ki araadhana,

तृतीयं चन्द्रघण्टा


नवरात्र के तीसरे दिन मां के चन्द्रघण्टा स्वरूप का पूजन करने का विधान हैं। चन्द्रघण्टा का स्वरूप शांतिदायक और परम कल्याणकारी हैं। चन्द्रघण्टा के मस्तक पर घण्टे के आकार का अर्धचन्द्र शोभित रहता हैं । इस लिये मां को चन्द्रघण्टा देवी कहा जाता हैं। चन्द्रघण्टा के देह का रंग स्वर्ण के समान चमकीला हैं और देवि उपस्थिति में चारों तरफ अद्भुत तेज दिखाई देता हैं।

मां तीन नेत्र एवं दस भुजाए हैं, जिसमें कमल, धनुष-बाण, खड्ग, कमंडल, तलवार, त्रिशूल और गदा आदि अस्त्र-शस्त्र, बाण आदि सुशोभित रहते हैं। मां के कंठ में सफेद पुष्पों कि माला और शीर्ष पर रत्नजडि़त मुकुट शोभायमान हैं।

चन्द्रघण्टा का वाहन सिंह हैं, इनकी मुद्रा युद्ध के लिए तैयार रहने की होती हैं। इनके घण्टे सी भयानक प्रचंड ध्वनि से अत्याचारी दैत्य, दानव, राक्षस व दैव भयभित रहते हैं।

मंत्र:
पिण्डज प्रवरारूढ़ा चण्डकोपास्त्रकैर्युता। प्रसादं तनुते महयं चन्दघण्टेति विश्रुता।।

ध्यान:-
वन्दे वांछित लाभायचन्द्रार्घकृतशेखराम्।
सिंहारूढादशभुजांचन्द्रघण्टायशस्वनीम्॥
कंचनाभांमणिपुर स्थितांतृतीय दुर्गा त्रिनेत्राम्।
खंग गदा त्रिशूल चापहरंपदमकमण्डलु माला वराभीतकराम्।
पटाम्बरपरिधांनामृदुहास्यांनानालंकारभूषिताम्।
मंजीर, हार, केयूर किंकिणिरत्‍‌नकुण्डलमण्डिताम्॥
प्रफुल्ल वंदना बिबाधाराकातंकपोलांतुंग कुचाम्।
कमनीयांलावण्यांक्षीणकंटिनितम्बनीम्॥

स्त्रोत:-
आपदुद्वारिणी स्वंहिआघाशक्ति: शुभा पराम्। मणिमादिसिदिधदात्रीचन्द्रघण्टेप्रणभाम्यहम्॥
चन्द्रमुखीइष्टदात्री इष्ट मंत्र स्वरूपणीम्। धनदात्रीआनंददात्रीचन्द्रघण्टेप्रणमाम्यहम्॥
नानारूपधारिणीइच्छामयीऐश्वर्यदायनीम्। सौभाग्यारोग्यदायनीचन्द्रघण्टेप्रणमाम्यहम्॥

कवच:-
रहस्यं श्रुणुवक्ष्यामिशैवेशीकमलानने। श्री चन्द्रघण्टास्यकवचंसर्वसिद्धि दायकम्॥ बिना न्यासंबिना विनियोगंबिना शापोद्धारबिना होमं। स्नानंशौचादिकंनास्तिश्रद्धामात्रेणसिद्धिदम्॥ कुशिष्यामकुटिलायवंचकायनिन्दाकायच। न दातव्यंन दातव्यंपदातव्यंकदाचितम्॥

मंत्र-ध्यान-कवच- का विधि-विधान से पूजन करने से व्यक्ति का मणिपुर चक्र जाग्रत हो जाता हैं। उपासना से व्यक्ति को सभी पापों से मुक्ति मिलती हैं उसे समस्त सांसारिक आधि-व्याधि से मुक्ति मिलती हैं। इसके उपरांत व्यक्ति को चिरायु, आरोग्य, सुखी और संपन्न होनता प्राप्त होती हैं। व्यक्ति के साहस एव विरता में वृद्धि होती हैं। व्यक्ति स्वर में मिठास आती हैं उसके आकर्षण में भी वृद्धि होती हैं। चन्द्रघण्टा को ज्ञान की देवी भी माना गया है।

शुक्रवार, अक्टूबर 08, 2010

द्वितीयं ब्रह्मचारिणी

नवरात्र में मां दुर्गा ब्रह्मचारिणी रुप की आराधना,, navaratra meM maa durga ke brahmacharini rup ki araadhana,
द्वितीयं ब्रह्मचारिणी


नवरात्र के दूसरे दिन मां के ब्रह्मचारिणी स्वरूप का पूजन करने का विधान हैं। क्योकि ब्रह्म का अर्थ हैं तप। मां ब्रह्मचारिणी तप का आचरण करने वाली भगवती हैं इसी कारण उन्हें ब्रह्मचारिणी कहा गया।

शास्त्रो में मां ब्रह्मचारिणी को समस्त विद्याओं की ज्ञाता माना गया हैं। शास्त्रो में ब्रह्मचारिणी देवी के स्वरूप का वर्णन पूर्ण ज्योतिर्मय एवं अत्यंत दिव्य दर्शाया गया हैं।

मां ब्रह्मचारिणी श्वेत वस्त्र पहने उनके दाहिने हाथ में अष्टदल कि जप माला एवं बायें हाथ में कमंडल सुशोभित रहता हैं। शक्ति स्वरुपा देवी ने भगवान शिव को प्राप्त करने के लिए 1000 साल तक सिर्फ फल खाकर तपस्या रत रहीं और 3000 साल तक शिव कि तपस्या सिर्फ पेड़ों से गिरी पत्तियां खाकर कि, उनकी इसी कठिन तपस्या के कारण उन्हें ब्रह्मचारिणी नाम से जाना गया।

मंत्र:
दधानापरपद्माभ्यामक्षमालाककमण्डलम्। देवी प्रसीदतु मयि ब्रह्मचारिण्यनुत्तमा।।

ध्यान:-
वन्दे वांछित लाभायचन्द्रार्घकृतशेखराम्।
जपमालाकमण्डलुधरांब्रह्मचारिणी शुभाम्।
गौरवर्णास्वाधिष्ठानस्थितांद्वितीय दुर्गा त्रिनेत्राम्।
धवल परिधानांब्रह्मरूपांपुष्पालंकारभूषिताम्।
पदमवंदनांपल्लवाधरांकातंकपोलांपीन पयोधराम्।
कमनीयांलावण्यांस्मेरमुखींनिम्न नाभिंनितम्बनीम्।।

स्तोत्र:-
तपश्चारिणीत्वंहितापत्रयनिवारणीम्। ब्रह्मरूपधराब्रह्मचारिणींप्रणमाम्यहम्।।
नवचग्रभेदनी त्वंहिनवऐश्वर्यप्रदायनीम्। धनदासुखदा ब्रह्मचारिणी प्रणमाम्यहम्॥
शंकरप्रियात्वंहिभुक्ति-मुक्ति दायिनी शांतिदामानदाब्रह्मचारिणी प्रणमाम्यहम्।

कवच:-
त्रिपुरा मेहदयेपातुललाटेपातुशंकरभामिनी। अर्पणासदापातुनेत्रोअधरोचकपोलो॥ पंचदशीकण्ठेपातुमध्यदेशेपातुमाहेश्वरी षोडशीसदापातुनाभोगृहोचपादयो। अंग प्रत्यंग सतत पातुब्रह्मचारिणी॥

मंत्र-ध्यान-कवच- का विधि-विधान से पूजन करने वाले व्यक्ति को अनंत फल कि प्राप्ति होती हैं। व्यक्ति में तप, त्याग, सदाचार, संयम जैसे सद् गुणों कि वृद्धि होती हैं।

मंत्र सिद्ध सामग्री (अक्टूबर-2010)

दुर्गा बीसा यंत्र
शास्त्रोक्त मत के अनुशार दुर्गा बीसा यंत्र दुर्भाग्य को दूर कर व्यक्ति के सोये हुवे भाग्य को जगाने वाला माना गया हैं। दुर्गा बीसा यंत्र द्वारा व्यक्ति को जीवन में धन से संबंधित संस्याओं में लाभ प्राप्त होता हैं। जो व्यक्ति आर्थिक समस्यासे परेशान हों, वह व्यक्ति यदि नवरात्रों में प्राण प्रतिष्ठित किया गया दुर्गा बीसा यंत्र को स्थाप्ति कर लेता हैं, तो उसकी धन, रोजगार एवं व्यवसाय से संबंधी सभी समस्यों का शीघ्र ही अंत होने लगता हैं। नवरात्र के दिनो में प्राण प्रतिष्ठित दुर्गा बीसा यंत्र को अपने घर-दुकान-ओफिस-फैक्टरी में स्थापित करने से विशेष लाभ प्राप्त होता हैं, व्यक्ति शीघ्र ही अपने व्यापार में वृद्धि एवं अपनी आर्थिक स्थिती में सुधार होता देखेंगे। संपूर्ण प्राण प्रतिष्ठित एवं पूर्ण चैतन्य दुर्गा बीसा यंत्र को शुभ मुहूर्त में अपने घर-दुकान-ओफिस में स्थापित करने से विशेष लाभ प्राप्त होता हैं।
मूल्य: Rs.550 से Rs.8200 तक

नवरत्न जड़ित श्री यंत्र
शास्त्र वचन के अनुसार शुद्ध सुवर्ण या रजत में निर्मित श्री यंत्र के चारों और यदि नवरत्न जड़वा ने पर यह नवरत्न जड़ित श्री यंत्र कहलाता हैं। सभी रत्नो को उसके निश्चित स्थान पर जड़ कर लॉकेट के रूप में धारण करने से व्यक्ति को अनंत एश्वर्य एवं लक्ष्मी की प्राप्ति होती हैं। व्यक्ति को एसा आभास होता हैं जैसे मां लक्ष्मी उसके साथ हैं। नवग्रह को श्री यंत्र के साथ लगाने से ग्रहों की अशुभ दशा का धारण करने वाले व्यक्ति पर प्रभाव नहीं होता हैं। गले में होने के कारण यंत्र पवित्र रहता हैं एवं स्नान करते समय इस यंत्र पर स्पर्श कर जो जल बिंदु शरीर को लगते हैं, वह गंगा जल के समान पवित्र होता हैं। इस लिये इसे सबसे तेजस्वी एवं फलदायि कहजाता हैं। जैसे अमृत से उत्तम कोई औषधि नहीं, उसी प्रकार लक्ष्मी प्राप्ति के लिये श्री यंत्र से उत्तम कोई यंत्र संसार में नहीं हैं एसा शास्त्रोक्त वचन हैं। इस प्रकार के नवरत्न जड़ित श्री यंत्र गुरूत्व कार्यालय द्वारा शुभ मुहूर्त में प्राण प्रतिष्ठित करके बनावाए जाते हैं।

पन्ना गणेश
भगवान श्री गणेश बुद्धि और शिक्षा के कारक ग्रह बुध के अधिपति देवता हैं। पन्ना गणेश बुध के सकारात्मक प्रभाव को बठाता हैं एवं नकारात्मक प्रभाव को कम करता हैं।. पन्न गणेश के प्रभाव से व्यापार और धन में वृद्धि में वृद्धि होती हैं। बच्चो कि पढाई हेतु भी विशेष फल प्रद हैं पन्ना गणेश इस के प्रभाव से बच्चे कि बुद्धि कूशाग्र होकर उसके आत्मविश्वास में भी विशेष वृद्धि होती हैं। मानसिक अशांति को कम करने में मदद करता हैं, व्यक्ति द्वारा अवशोषित हरी विकिरण शांती प्रदान करती हैं, व्यक्ति के शारीर के तंत्र को नियंत्रित करती हैं। जिगर, फेफड़े, जीभ, मस्तिष्क और तंत्रिका तंत्र इत्यादि रोग में सहायक होते हैं। कीमती पत्थर मरगज के बने होते हैं।
Rs.550 से Rs.8200 तक

मंगल यंत्र
(त्रिकोण) मंगल यंत्र को जमीन-जायदाद के विवादो को हल करने के काम में लाभ देता हैं, इस के अतिरिक्त व्यक्ति को ऋण मुक्ति हेतु मंगल साधना से अति शीध्र लाभ प्राप्त होता हैं। विवाह आदि में मंगली जातकों के कल्याण के लिए मंगल यंत्र की पूजा करने से विशेष लाभ प्राप्त होता हैं।
मूल्य मात्र Rs- 550


व्यापार वृद्धि कवच
व्यापार वृद्धि कवच व्यापार के शीघ्र उन्नति के लिए उत्तम हैं। चाहें कोई भी व्यापार हो अगर उसमें लाभ के स्थान पर बार-बार हानि हो रही हैं। किसी प्रकार से व्यापार में बार-बार बांधा उत्पन्न हो रही हो! तो संपूर्ण प्राण प्रतिष्ठित मंत्र सिद्ध पूर्ण चैतन्य युक्त व्यापात वृद्धि यंत्र को व्यपार स्थान या घर में स्थापित करने से शीघ्र ही व्यापार वृद्धि एवं नितन्तर लाभ प्राप्त होता हैं।
मूल्य मात्र- Rs.370 & 730


तंत्र रक्षा कवच
तंत्र रक्षा कवच को धारण करने से व्यक्ति के उपर किगई समस्त तांत्रिक बाधाएं दूर होती हैं, उसी के साथ ही धारण कर्ता व्यक्ति पर किसी भी प्रकार कि नकारत्मन शक्तियो का कुप्रभाव नहीं होता। इस कवच के प्रभाव से इर्षा-द्वेष रखने वाले सभी लोगो द्वारा होने वाले दुष्ट प्रभावो से रक्षाहोती हैं।
मूल्य मात्र: Rs.730


सर्व कार्य सिद्धि कवच
जिस व्यक्ति को लाख प्रयत्न और परिश्रम करने के बादभी उसे मनोवांछित सफलताये एवं किये गये कार्य में सिद्धि (लाभ) प्राप्त नहीं होती, उस व्यक्ति को सर्व कार्य सिद्धि कवच अवश्य धारण करना चाहिये।
कवच के प्रमुख लाभ: सर्व कार्य सिद्धि कवच के द्वारा सुख समृद्धि और नव ग्रहों के नकारात्मक प्रभाव को शांत कर धारण करता व्यक्ति के जीवन से सर्व प्रकार के दु:ख-दारिद्र का नाश हो कर सुख-सौभाग्य एवं उन्नति प्राप्ति More........


सर्व रोगनाशक यंत्र/कवच
मनुष्य अपने जीवन के विभिन्न समय पर किसी ना किसी साध्य या असाध्य रोग से ग्रस्त होता हैं। उचित उपचार से ज्यादातर साध्य रोगो से तो मुक्ति मिल जाती हैं, लेकिन कभी-कभी साध्य रोग होकर भी असाध्या होजाते हैं, या कोइ असाध्य रोग से ग्रसित होजाते हैं। हजारो लाखो रुपये खर्च करने पर भी अधिक लाभ प्राप्त नहीं हो पाता। डॉक्टर द्वारा दिजाने वाली दवाईया अल्प समय More.....


पुत्र चार प्रकार के होते हैं

पुत्र चार प्रकार के होते हैं

श्री मद् भागवत के अनुसार
देवर्षि नारद चित्रकेतु को जो उपदेश देते हैं। वह इस प्रकार हैं।
नारदजी बोले राजन पुत्र चार प्रकार के होते हैं।
शत्रु पुत्र, ऋणानुबंध पुत्र, उदासीन और सेवा पुत्र।

• शत्रु पुत्र: शत्रु पुत्र वह होता हैं, जो पुत्र माता-पिता को कष्ट देते हैं, कटु वचन बोलते हैं और उन्हें रुलाते हैं, एवं जो शत्रुओं जेसा कार्य करते हैं वे शत्रु पुत्र कहलाते हैं।
• ऋणानुबंध पुत्र: वह होता हैं, जो पूर्व जन्म के कर्मों के अनुसार शेष रह गए अपने ऋण आदि को पूर्ण करने के लिए जो पुत्र जन्म लेता है वे ऋणानुबंध पुत्र कहलाते हैं।
• उदासीन पुत्र: वह होता हैं, जो पुत्र माता-पिता से किसी प्रकार के लेन-देन कि अपेक्षा न रखते विवाह के बाद उनसे विमुख हो जाए, उनका ध्यान ना रखे, वे उदासीन पुत्र कहलाते हैं।
• सेवा पुत्र: जो पुत्र माता-पिता कि सेवा करता है, माता-पिता का ध्यान रखते हैं, उन्हें किसी प्रकार कि कोई कमी नहीं होने देते, ऐसे पुत्र सेवा पुत्र अर्थात धर्म पुत्र कहलाते हैं।

मातृभक्त

matru bhakta, matru bhakti

मातृभक्त


गरीब परिवार में एक पति-पत्नी व दो बच्चे थे। जब कहीं मजदूरी भी नहीं मिलती थी, तब घर में भोजन के लिए कुछ भी नहीं रह गया, तो पति से अपनी पत्नी व बच्चे का भुख से तड़पना देखा नहीं गया। वह उन्हें छोड़कर कहीं चला गया। परिवार का पेट पालने के लिये उस बेचारी स्त्री ने घर के बर्तन और कपड़े बगैरा बेचकर कुछ दिन काम चलाया। घरका सामान बेच-बेचकर जब घर खाली हो गया, तो वह दोनों बच्चों को लेकर भीख मांगने निकल पडी। उसे भीख में जो कुछ मिलता था, उसे पहले बच्चों को खिलाकर तब वह बचा हुआ खाती और न बचता तो पानी पीकर ही सो जाया करती थी।

थोड़े दिनों के बाद वह स्त्री बीमार हो गई। उसके दस वर्षीय बड़े लड़के को भीख मांगने जाना पड़ता था। किंतु वह बालक भीख में जो कुछ पाता था, उससे तीनों का पेट नहीं भरता था। माता ज्वर में बेसुध पड़ी रहती थी और छोटे बच्चे को संभालने वाला घर में और कोई न था। वह भूख के मारे इधर-उधर भटकते हुए एक दिन वह मर गया।

बड़ा लड़का जो भीख मांगकर लाता वह पहले मां को खिला देता। एक बार कई दिनों तक उसे अपने भोजन के लिए कुछ नहीं मिला। वह एक सज्जन पुरुष के घर पहुंचा, तो उन्होंने कहा- मेरे पास थोड़े सा चावल हैं। तुम यही बैठकर खा लो। लड़के ने बीमार मां का हवाला देते हुए उसके लिए दो मुट्ठी चावल की मांग की। उन सज्जन ने कहा- चावल इतना कम है कि तुम्हारा भी पेट नहीं भरेगा। इसलिए तुम्ही खा लो। तब लड़का बोला मां जब अच्छी थी तो मुझे खिलाकर स्वयं बिना खाए रह जाती थी। अब आज उसके बीमार होने पर मैं उसे बिना खिलाए कैसे खा सकता हूं। लड़के की मातृभक्ति देखकर सज्जन बहुत प्रसन्न हुए और चावल लेने घर में गए। किंतु लौटकर आने पर देखा कि लड़का भूमि पर गिरकर मृत्यु को प्राप्त हो चुका था।

प्रथम शैलपुत्री

Pratham shailputri

प्रथम शैलपुत्री


नवरात्र के प्रथम दिन मां के शैलपुत्री स्वरूप का पूजन करने का विधान हैं। पर्वतराज (शैलराज) हिमालय के यहां पार्वती रुप में जन्म लेने से भगवती को शैलपुत्री कहा जाता हैं।
भगवती नंदी नाम के वृषभ पर सवार हैं। माता शैलपुत्री के दाहिने हाथ में त्रिशूल और बाएं हाथ में कमल पुष्प सुशोभित हैं।
मां शैलपुत्री को शास्रों में तीनो लोक के समस्त वन्य जीव-जंतुओं का रक्षक माना गया हैं। इसी कारण से वन्य जीवन जीने वाली सभ्यताओं में सबसे पहले शैलपुत्री के मंदिर की स्थापना की जाती हैं जिस सें उनका निवास स्थान एवं उनके आस-पास के स्थान सुरक्षित रहे।

मूल मंत्र:-

वन्दे वांछितलाभाय चन्दार्धकृतशेखराम्। वृषारूढां शूलधरां शैलपुत्रीं यशस्विनीम्।।

ध्यान मंत्र:-

वन्दे वांछितलाभायाचन्द्रार्घकृतशेखराम्। वृषारूढांशूलधरांशैलपुत्रीयशस्विनीम्।
पूणेन्दुनिभांगौरी मूलाधार स्थितांप्रथम दुर्गा त्रिनेत्रा।
पटाम्बरपरिधानांरत्नकिरीठांनानालंकारभूषिता।
प्रफुल्ल वंदना पल्लवाधंराकातंकपोलांतुगकुचाम्।
कमनीयांलावण्यांस्मेरमुखीक्षीणमध्यांनितम्बनीम्।

स्तोत्र:-

प्रथम दुर्गा त्वंहिभवसागर तारणीम्। धन ऐश्वर्य दायनींशैलपुत्रीप्रणमाम्हम्।
चराचरेश्वरीत्वंहिमहामोह विनाशिन। भुक्ति मुक्ति दायनी,शैलपुत्रीप्रणमाम्यहम्।

कवच:-

ओमकार: मेशिर: पातुमूलाधार निवासिनी। हींकारपातुललाटेबीजरूपामहेश्वरी। श्रींकारपातुवदनेलज्जारूपामहेश्वरी। हुंकार पातुहृदयेतारिणी शक्ति स्वघृत। फट्कार:पातुसर्वागेसर्व सिद्धि फलप्रदा।


मां शैलपुत्री का मंत्र-ध्यान-कवच- का विधि-विधान से पूजन करने वाले व्यक्ति को सदा धन-धान्य से संपन्न रहता हैं। अर्थात उसे जिवन में धन एवं अन्य सुख साधनो को कमी महसुस नहीं होतीं।

नवरात्र के प्रथम दिन की उपासना से योग साधना को प्रारंभ करने वाले योगी अपने मन से 'मूलाधार' चक्र को जाग्रत कर अपनी उर्जा शक्ति को केंद्रित करते हैं, जिससे उन्हें अनेक प्रकार कि सिद्धियां एवं उपलब्धियां प्राप्त होती हैं।

गुरुवार, अक्टूबर 07, 2010

महिषासुरमर्दिनिस्तोत्रम्

mahishasura mardinistotram

महिषासुरमर्दिनिस्तोत्रम्

||भगवतीपद्यपुष्पांजलिस्तोत्र महिषासुरमर्दिनिस्तोत्रम् ||
श्री त्रिपुरसुन्दर्यै नमः ||
भगवती भगवत्पदपङ्कजं भ्रमरभूतसुरासुरसेवितम् | सुजनमानसहंसपरिस्तुतं कमलयाऽमलया निभृतं भजे ||१|| ते उभे अभिवन्देऽहं विघ्नेशकुलदैवते | नरनागाननस्त्वेको नरसिंह नमोऽस्तुते ||२|| हरिगुरुपदपद्मं शुद्धपद्येऽनुरागाद् विगतपरमभागे सन्निधायादरेण | तदनुचरि करोमि प्रीतये भक्तिभाजां भगवति पदपद्मे पद्यपुष्पाञ्जलिं ते ||३|| केनैते रचिताः कुतो न निहिताः शुम्भादयो दुर्मदाः केनैते तव पालिता इति हि तत् प्रश्ने किमाचक्ष्महे | ब्रह्माद्या अपि शंकिताः स्वविषये यस्याः प्रसादावधि प्रीता सा महिषासुरप्रमथिनीच्छ्द्यादवद्यानि मे ||४|| पातु श्रीस्तु चतुर्भुजा किमु चतुर्बाहोर्महौजान्भुजान् धत्तेऽष्टादशधा हि कारणगुणान्कार्ये गुणारम्भकाः | सत्यं दिक्पतिदन्तिसंख्यभुजभृच्छम्भुः स्वय्म्भूः स्वयं धामैकप्रतिपत्तये किमथवा पातुं दशाष्टौ दिशः ||५||

 प्रीत्याऽष्टादशसंमितेषु युगपद्द्वीपेषु दातुं वरान् त्रातुं वा भयतो बिभर्षि भगवत्यष्टादशैतान् भुजान् | यद्वाऽष्टादशधा भुजांस्तु बिभृतः काली सरस्वत्युभे मीलित्वैकमिहानयोः प्रथयितुं सा त्वं रमे रक्षमाम् ||६|| अयि गिरिनंदिनि नंदितमेदिनि विश्वविनोदिनि नंदनुते गिरिवर विंध्य शिरोधिनिवासिनि विष्णुविलासिनि जिष्णुनुते | भगवति हे शितिकण्ठकुटुंबिनि भूरि कुटुंबिनि भूरि कृते जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ||१||||७|| सुरवरवर्षिणि दुर्धरधर्षिणि दुर्मुखमर्षिणि हर्षरते त्रिभुवनपोषिणि शंकरतोषिणि किल्बिषमोषिणि घोषरते | दनुज निरोषिणि दितिसुत रोषिणि दुर्मद शोषिणि सिन्धुसुते जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ||२||||८|| अयि जगदंब मदंब कदंब वनप्रिय वासिनि हासरते शिखरि शिरोमणि तुङ्ग हिमालय शृंग निजालय मध्यगते | मधु मधुरे मधु कैटभ गंजिनि कैटभ भंजिनि रासरते जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ||३||||९|| अयि शतखण्ड विखण्डित रुण्ड वितुण्डित शुण्ड गजाधिपते रिपु गज गण्ड विदारण चण्ड पराक्रम शुण्ड मृगाधिपते | निज भुज दण्ड निपातित खण्ड विपातित मुण्ड भटाधिपते जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ||४||||१०||

अयि रण दुर्मद शत्रु वधोदित दुर्धर निर्जर शक्तिभृते चतुर विचार धुरीण महाशिव दूतकृत प्रमथाधिपते | दुरित दुरीह दुराशय दुर्मति दानवदूत कृतांतमते जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ||५||||११|| अयि शरणागत वैरि वधूवर वीर वराभय दायकरे त्रिभुवन मस्तक शूल विरोधि शिरोधि कृतामल शूलकरे | दुमिदुमि तामर दुंदुभिनाद महो मुखरीकृत तिग्मकरे जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ||६||||१२|| अयि निज हुँकृति मात्र निराकृत धूम्र विलोचन धूम्र शते समर विशोषित शोणित बीज समुद्भव शोणित बीज लते | शिव शिव शुंभ निशुंभ महाहव तर्पित भूत पिशाचरते जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ||७||||१३|| धनुरनु संग रणक्षणसंग परिस्फुर दंग नटत्कटके कनक पिशंग पृषत्क निषंग रसद्भट शृंग हतावटुके | कृत चतुरङ्ग बलक्षिति रङ्ग घटद्बहुरङ्ग रटद्बटुके जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ||१४|| सुरललनाततथेयितथेयितथाभिनयोत्तरनृत्यरते हासविलासहुलासमयि प्रणतार्तजनेऽमितप्रेमभरे | धिमिकिटधिक्कटधिकटधिमिध्वनिघोरमृदंगनिनादरते जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ||८||||१५||

जय जय जप्य जयेजय शब्द परस्तुति तत्पर विश्वनुते झण झण झिञ्जिमि झिंकृत नूपुर सिंजित मोहित भूतपते | नटित नटार्ध नटीनट नायक नाटित नाट्य सुगानरते जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ||९||||१६|| अयि सुमनः सुमनः सुमनः सुमनः सुमनोहर कांतियुते श्रित रजनी रजनी रजनी रजनी रजनीकर वक्त्रवृते | सुनयन विभ्रमर भ्रमर भ्रमर भ्रमर भ्रमराधिपते जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ||१०||||१७|| सहित महाहव मल्लम तल्लिक मल्लित रल्लक मल्लरते विरचित वल्लिक पल्लिक मल्लिक झिल्लिक भिल्लिक वर्ग वृते | सितकृत फुल्लिसमुल्ल सितारुण तल्लज पल्लव सल्ललिते जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ||११||||१८|| अविरल गण्ड गलन्मद मेदुर मत्त मतङ्गज राजपते त्रिभुवन भूषण भूत कलानिधि रूप पयोनिधि राजसुते | अयि सुद तीजन लालसमानस मोहन मन्मथ राजसुते जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ||१२||||१९|| कमल दलामल कोमल कांति कलाकलितामल भाललते सकल विलास कलानिलयक्रम केलि चलत्कल हंस कुले | अलिकुल सङ्कुल कुवलय मण्डल मौलिमिलद्भकुलालि कुले जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ||१३||||२०||

कर मुरली रव वीजित कूजित लज्जित कोकिल मञ्जुमते मिलित पुलिन्द मनोहर गुञ्जित रंजितशैल निकुञ्जगते | निजगुण भूत महाशबरीगण सद्गुण संभृत केलितले जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ||१४||||२१|| कटितट पीत दुकूल विचित्र मयूखतिरस्कृत चंद्र रुचे प्रणत सुरासुर मौलिमणिस्फुर दंशुल सन्नख चंद्र रुचे | जित कनकाचल मौलिपदोर्जित निर्भर कुंजर कुंभकुचे जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ||१५||||२२|| विजित सहस्रकरैक सहस्रकरैक सहस्रकरैकनुते कृत सुरतारक सङ्गरतारक सङ्गरतारक सूनुसुते | सुरथ समाधि समानसमाधि समाधिसमाधि सुजातरते जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ||१६||||२३|| पदकमलं करुणानिलये वरिवस्यति योऽनुदिनं स शिवे अयि कमले कमलानिलये कमलानिलयः स कथं न भवेत् | तव पदमेव परंपदमित्यनुशीलयतो मम किं न शिवे जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ||१७||||२४|| कनकलसत्कल सिन्धु जलैरनु सिञ्चिनुते गुण रङ्गभुवं भजति स किं न शचीकुच कुंभ तटी परिरंभ सुखानुभवम् | तव चरणं शरणं करवाणि नतामरवाणि निवासि शिवं जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ||१८||||२५||

तव विमलेन्दुकुलं वदनेन्दुमलं सकलं ननु कूलयते किमु पुरुहूत पुरीन्दुमुखी सुमुखीभिरसौ विमुखीक्रियते | मम तु मतं शिवनामधने भवती कृपया किमुत क्रियते जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ||१९||||२६|| अयि मयि दीनदयालुतया कृपयैव त्वया भवितव्यमुमे अयि जगतो जननी कृपयासि यथासि तथाऽनुमितासिरते | यदुचितमत्र भवत्युररि कुरुतादुरुतापमपाकुरुते जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ||२०||||२७|| स्तुतिमितस्तिमितः सुसमाधिना नियमतोऽयमतोऽनुदिनं पठेत् | परमया रमयापि निषेव्यते परिजनोऽरिजनोऽपि च तं भजेत् ||२८|| रमयति किल कर्षस्तेषु चित्तं नराणामवरजवर यस्माद्रामकृष्णः कवीनाम् | अकृत सुकृतिगम्यं रम्यपद्दैकहर्म्यं स्तवनमवनहेतुं प्रीतये विश्वमातुः ||२९|| इन्दुरम्यो मुहुर्बिन्दुरम्यो मुहुर्बिन्दुरम्यो यतः सोऽनवद्यः स्मृतः | श्रीपतेः सूनूना कारितो योऽधुना विश्वमातुः पदे पद्यपुष्पाञ्जलिः ||३०||

|| इति श्रीभगवतीपद्यपुष्पाञ्जलिस्तोत्रम् ||

देवी आराधना से सुख प्राप्ति

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देवी आराधना से सुख प्राप्ति


देवी भागवत के आठवें स्कंध में देवी उपासना का विस्तार से वर्णन है। देवी का पूजन-अर्चन-उपासना-साधना इत्यादि के पश्चयात दान देने पर लोक और परलोक दोनों सुख देने वाले होते हैं।

• प्रतिपदा तिथि के दिन देवी का षोडशेपचार से पूजन करके नैवेद्य के रूप में देवी को गाय का घृत (घी) अर्पण करना चाहिए। मां को चरणों चढ़ाये गये घृत को ब्राम्हणों में बांटने से रोगों से मुक्ति मिलती है।
• द्वितीया तिथि के दिन देवी को चीनी का भोग लगाकर दान करना चाहिए। चीनी का भोग लागाने से व्यक्ति दीर्घजीवी होता हैं।
• तृतीया तिथि के दिन देवी को दूध का भोग लगाकर दान करना चाहिए। दूध का भोग लागाने से व्यक्ति को दुखों से मुक्ति मिलती हैं।
• चतुर्थी तिथि के दिन देवी को मालपुआ भोग लगाकर दान करना चाहिए। मालपुए का भोग लागाने से व्यक्ति कि विपत्ति का नाश होता हैं।
• पंचमी तिथि के दिन देवी को केले का भोग लगाकर दान करना चाहिए। केले का भोग लागाने से व्यक्ति कि बुद्धि, विवेक का विकास होता हैं। व्यक्ति के परिवारीकसुख समृद्धि में वृद्धि होती हैं।
• षष्ठी तिथि के दिन देवी को मधु (शहद, महु, मध) का भोग लगाकर दान करना चाहिए। मधु का भोग लागाने से व्यक्ति को सुंदर स्वरूप कि प्राप्ति होती हैं।
• सप्तमी तिथि के दिन देवी को गुड़ का भोग लगाकर दान करना चाहिए। गुड़ का भोग लागाने से व्यक्ति के समस्त शोक दूर होते हैं।
• अष्टमी तिथि के दिन देवी को श्रीफल (नारियल) का भोग लगाकर दान करना चाहिए। गुड़ का भोग लागाने से व्यक्ति के संताप दूर होते हैं।
• नवमी तिथि के दिन देवी को धान के लावे का भोग लगाकर दान करना चाहिए। धान के लावे का भोग लागाने से व्यक्ति के लोक और परलोक का सुख प्राप्त होता हैं।

मातृसुख एवं ज्योतिष

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मातृसुख एवं ज्योतिष


वैदिक ज्‍योतिष शास्त्र के अनुशार चतुर्थ भाव से व्यक्ति कि माता, वाहन, चल-अचल संपत्ति का स्‍थायित्‍व, सुख-शांति का विचार किया जाता हैं। मातृ सुख एवं सांसारिक सुख का विचार एवं माता कि स्थिती का पता लगा सकता हैं। अर्थात जिस व्यक्ति को माता का सुख प्राप्त होता हैं, वही व्यक्ति संसार में अन्य सुखों को भोग पाता हैं।

• लग्न कुंडली में चतुर्थ भाव अशुभ हो जाता हैं। उस जातक को मातृ एवं संसारिक सुख दोनो का अभाव रहता हैं।
• जिस जन्म कुंडली के चतुर्थ भाव में मित्रगत स्वराशि में गुरु, बुध, चंद्र, शुक्र आदि सौम्य ग्रह स्थित हों, तो जातक को मातृ सुख के साथ ही अन्य सुखों कि प्राप्ति होती हैं।
• यदि चतुर्थ भावा पर शुभ ग्रहों कि द्रष्टी हो, तो व्यक्ति को मातृ सुख के साथ ही अन्य सुखों कि प्राप्ति होती हैं।
• स्त्रियों कि कुंडली में चतुर्थ भावा से सास के साथ जातिका के संबधों को दर्शाता हैं।
• यदि स्त्री कि कुंडली का चतुर्थ भाव शुभ हो, चतुर्थ भाव में शुभ ग्रह स्थित हो या शुभ ग्रह कि द्रष्टी हो, तो उसे माता और ससुराल दोनों जगह मान-सम्मान प्राप्त होता हैं।
• यदि स्त्री कि कुंडली का चतुर्थ भाव अशुभ हो, चतुर्थ भाव में अशुभ ग्रह स्थित हो या अशुभ ग्रह कि द्रष्टी हो, तो उसे माता और ससुराल दोनों जगह मातृ सुख एवं अन्य सुखों में कमी रहती हैं।


विभिन्न ग्रहो का चतुर्थ भाव में प्रभाव
• यदि चतुर्थ भाव में सूर्य का शुभ प्रभाव हो, तो जातक कि माता उच्च पद वाली सूर्य के समान तेजस्वी होती हैं।
• यदि चतुर्थ भाव में चंद्र का शुभ प्रभाव हो, तो जातक कि माता शांत, दयालु स्वभाव कि मिलनसार होती हैं।
• यदि चतुर्थ भाव में मंगल का शुभ प्रभाव हो, तो जातक कि माता थोडी गुस्से वाली, भूमि-भवन कि स्वामी, परिवार का पोषण करने वाली होती हैं।
• यदि चतुर्थ भाव में बुध का शुभ प्रभाव हो, तो जातक कि माता चतुर, बुद्धिमान होती हैं।
• यदि चतुर्थ भाव में बृहस्पति का शुभ प्रभाव हो, तो जातक कि माता धार्मिक स्वभाव वाली होती हैं।
• यदि चतुर्थ भाव में शुक्र का शुभ प्रभाव हो, तो जातक कि माता सुंदर, तेजस्विनी होती हैं।
• यदि चतुर्थ भाव में शनि का शुभ प्रभाव हो, तो जातक कि माता धर्मपरायण होती हैं।
• यदि चतुर्थ भाव में राहु का शुभ प्रभाव हो, तो जातक कि माता राजनितिज्ञ होती हैं।
• यदि चतुर्थ भाव में केतु का शुभ प्रभाव हो, तो जातक कि माता सात्विक होती हैं।

यदि ग्रह अशुभ हो तो प्रतिकूल परिणाम प्राप्त होते देखे गये हैं।

मां के चरणों में निवास करते समस्त हैं तीर्थ

maa ke carano me nivasa karate samasta hai tirtha

मां के चरणों में निवास करते समस्त हैं तीर्थ


त्याग और नि:स्वार्थ प्रेम कि प्रति मूर्ति जन्म देने वाली मां अपनी संतान को नौ महिने गर्भ में उसका पोषण कर, असहनीय प्रसव कष्ट सहकर उसे जन्म देती हैं। मां के इस त्याग और नि:स्वार्थ प्रेम का बदला चाहकर भी कोई नहीं चुका सकता।

समस्त व्यक्ति कि प्रथन गुरु मां होती हैं। क्योकि मां से व्यक्ति को जीवन के आदर्श और संस्कार आदि ज्ञान प्राप्त होता हैं। हमारे धर्म शास्त्रो में उल्लेख मिलता हैं कि उपाध्याओं से दस गुना श्रेष्ठ आचार्य होते हैं, एवं आचार्य से सौ गुना श्रेष्ठ पिता और पिता से हजार गुना श्रेष्ठ माता होती है। क्योकि मां के शरीर में सभी देवताओं और सभी तीर्थों का वास होता है। इसी लिए विश्व कि सर्वश्रेष्ठ भारतीय संस्कृति में केवल मां को भगवान के समान माना गया हैं। इस लिये मां पूज्य, स्तुति योग्य और आह्वान करने योग्य होती हैं।

महाभारत में भी उल्लेख मिलता हैं कि जब यक्ष ने युधिष्ठिर से सवाल किया कि भूमि से भी भारी कौन हैं? तो युधिष्ठिर ने उत्तर दिया

माता गुरुतरा भूमे:।
अर्थातः मां इस भूमि से भी कहीं अधिक भारी होती हैं।


आदि शंकराचार्य का कथन हैं '

कुपुत्रो जायेत यद्यपि कुमाता न भवति।
अर्थातः पुत्र तो कुपुत्र हो सकता है, पर माता कभी कुमाता नहीं हो सकती।


भगवान श्री रामका वचन हैं।

जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी।
अर्थातः जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर होते हैं।


तैत्तिरीयोपनिषद् में उल्लेख किया गया हैं।

मातृ देवो भव:


शतपथ ब्राह्मण के वचन

मातृमान पितृमानाचार्यवान् पुरुषो वेद
अर्थातः जिसके पास माता, पिता और गुरु जेसे तीन उत्तम शिक्षक हों वहीं मनुष्य सही अर्थ में मानव बनता हैं।

संसार में मातृमान वह होता है, जिसकी माता गर्भाधान से लेकर जब तक गर्भ के शेष विधि-विधान पूरे न हो जाएं, तब तक संयमीत और सुशील व्यवहार करे। क्योकि मातृ गर्भ में संस्कारित होने का सबसे बड़ा आदर्श उदाहरण महाभारत में अभिमन्यु का देखने को मिलता हैं, जिसने अपनी मां से गर्भ में ही चक्रव्यूह तोड़ने का उपाय सीख लिया था।

इसी मां कि ममता और नि:स्वार्थ प्रेम को पाने के लिये मनुष्य हि नहीं देवता भी तरसते हैं। इस लिये बार-बार अवतार लेकर अपनी लीलाएं बिखेरने के लिये पृथ्वी पर जन्म लेते हैं। इस्से ज्ञात होता हैं कि मां के चरणों में ही सभी तीर्थ का पुण्य प्राप्त हो जाता है।

इस लिये बच्‍चा सबसे पहले जो बोल नीकलते हैं, वह मां शब्‍द होता हैं, एक बार में ही झटके से बच्‍चे के मुंह से मां निकल जाता है यानि मां का उच्‍चारण भी सबसे आसान। अन्य सभी सब्दो में उसे थोडी कठिनाई होती हैं जिस कारण वह उन शब्दो का उच्चराण धीरे-धीरे सिखता हैं। सबसे बडा उदाहरण हैं, जो आपने आये दिन देखा सुना और आजमाय होगा, व्यक्ति जब परेशानी में होता हैं, कष्ट झेल रहा होता हैं, या आकस्मिक संकट आने, किसी आघात से शरीर पर चोट लग जाये तो पर सबसे पेहले मां को याद करता हैं। इस लिये मां को कष्ट देने वाली संतान को दैवि आपदा, दुःख, कष्ट भोगना पडता हैं। अपने मां का निरादर न करें और उनकी सेवा अवश्य करें।

नवरात्र में कन्या पूजन अनुष्ठान

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नवरात्र में कन्या पूजन अनुष्ठान


नवरात्र में कुमारिका पूजन-व्रत-अनुष्ठान को अनिवार्य अंग माना जाता हैं। नवरात्रमें कुंवारी कन्याओं का विधि-विधान से पूजन कर उनको भोजन कराके वस्त्र-दक्षिणा आदि भेट देकर संतुष्ट करना चाहिए। कुमारिका पूजन हेतु कन्या दो से दस वर्ष तक ही होनी चाहिए।

दो वर्ष की कन्या को कुमारी माना जाता हैं।
कुमारी पूजन से व्यक्ति के दु:ख-दरिद्रता का शमन होता हैं।
कुमारी के पूजन का मंत्र-

कुमारस्यचतत्त्‍‌वानिया सृजत्यपिलीलया। कादीनपिचदेवांस्तांकुमारींपूजयाम्यहम्॥

अर्थातः जो कुमार कार्तिकेय कि जननी एवं ब्रह्मादि देवताओं की लीलापूर्वक रचना करती हैं, उन कुमारी देवी कि मैं पूजा करता हूं।


तीन वर्ष की कन्या को त्रिमूर्ति माना जाता हैं।
त्रिमूर्ति के पूजन से व्यक्ति को धर्म, अर्थ, काम कि प्राप्ति होती हैं। इसी के साथ घर में धन-धान्य में वृद्धि होता हैं, तथा पुत्र-पौत्रों का लाभ प्राप्त होता हैं।
त्रिमूर्ति के पूजन का मंत्र-

सत्त्‍‌वादिभिस्त्रिमूर्तिर्यातैर्हिनानास्वरूपिणी। त्रिकालव्यापिनीशक्तिस्त्रिमूर्तिपूजयाम्यहम्॥

अर्थातः जो सत्व, रज, तम तीनों गुणों के तीन रूप धारण करती हैं, जिनके अनेक रूप हैं एवं जो तीनों कालों में व्याप्त हैं, उन भगवती त्रिमूर्ति कि मैं पूजा करता हूँ।

चार वर्ष की कन्या को कल्याणी माना जाता हैं।
कल्याणी के पूजन से व्यक्ति को विजय, विद्या, सत्ता एवं सुख कि प्राप्ति होकर व्यक्ति कि समस्त कामनाए पूर्ण होती हैं।
कल्याणी के पूजन का मंत्र-

कल्याणकारिणीनित्यंभक्तानांपूजितानिशम्। पूजयामिचतांभक्त्याकल्याणीम्सर्वकामदाम्॥

अर्थातः निरंतर सुपूजितहोने पर भक्तों का कल्याण करना जिसका स्वभाव ही है, सब मनोरथ पूर्ण करने वाली उन भगवती कल्याणी की मैं पूजा करता हूं।


पांच वर्ष की कन्या को रोहिणी माना जाता हैं।
रोहिणी के पूजन से व्यक्ति को उत्तम स्वास्थ्य कि प्ताप्ति होकर उसके समस्त रोग का विनाश होता हैं।
रोहिणी के पूजन का मंत्र-

रोहयन्तीचबीजानिप्राग्जन्मसंचितानिवै।
या देवी सर्वभूतानांरोहिणीम्पूजयाम्यहम्॥

अर्थातः जो सब प्राणियों के संचित बीजों का रोहण करती हैं, उन भगवती रोहिणी कि मैं उपासना करता हूं।


छ:वर्ष की कन्या को कालिका माना जाता हैं।
कालिका के पूजन से व्यक्ति के विरोधि तथा शत्रु का शमन हो कर उसपर विजय प्राप्त होती हैं।
कालिका के पूजन का मंत्र-

काली कालयतेसर्वब्रह्माण्डंसचराचरम्।
कल्पान्तसमयेया तांकालिकाम्पूजयाम्यहम॥

अर्थातः कल्प के अन्त में जो चर-अचर सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को अपने अंदर विलीन कर लेती हैं, उन भगवती कालिका कि मैं पूजा करता हूं।

सात वर्ष की कन्या को चण्डिका माना जाता हैं।
चण्डिका के पूजन से व्यक्ति को धन-सम्पत्ति की प्राप्ति होती हैं।
चण्डिका के पूजन का मंत्र-

चण्डिकांचण्डरूपांचचण्ड-मुण्ड विनाशिनीम्।
तांचण्डपापहरिणींचण्डिकांपूजयाम्यहम्॥

अर्थातः जो चण्ड-मुण्ड का संहार करने वाली हैं तथा जिनकी कृपा से घोर पाप भी तत्काल नष्ट हो जाता है, उन भगवती चण्डिका कि मैं पूजा करता हूं।

आठ वर्ष की कन्या को शाम्भवी माना जाता हैं।
शाम्भवी के पूजन से व्यक्ति कि निर्धनता दूर होती हैं, वाद-विवाद में विजय प्राप्त होता हैं।
शाम्भवी के पूजन का मंत्र-

अकारणात्समुत्पत्तिर्यन्मयै:परिकीर्तिता।
यस्यास्तांसुखदांदेवींशाम्भवींपूजयाम्यहम्॥

अर्थातः वेद जिनके प्राकट्य के विषय में कारण का अभाव बतलाते हैं तथा सबको सुखी बनाना जिनका स्वाभाविक गुण है, उन भगवती शाम्भवीकी मैं पूजा करता हूं।

नौ वर्ष की कन्या को दुर्गा माना जाता हैं।
दुर्गा के पूजन से व्यक्ति के दुष्ट से दुष्ट व्यक्ति का दमन होता हैं। व्यक्ति के कठिन से कठिन कार्य भी सरलता से सिद्धि होते हैं।
दुर्गा के पूजन का मंत्र-

दुर्गात्त्रायतिभक्तंया सदा दुर्गार्तिनाशिनी।
दुज्र्ञेयासर्वदेवानांतांदुर्गापूजयाम्यहम्॥

अर्थातः जो भक्त को सदा संकट से बचाती हैं, दु:ख दूर करना जिनका स्वभाव हैं तथा देवता लोग भी जिन्हें जानने में असमर्थ हैं, उन भगवती दुर्गा की मैं पूजा करता हूं।

दस वर्ष की कन्या को सुभद्रा माना जाता हैं।
सुभद्रा के पूजन से व्यक्ति को समस्त लोक में सुख प्राप्त होता हैं।
सुभद्रा के पूजन का मंत्र-

सुभद्राणि चभक्तानांकुरुतेपूजितासदा।
अभद्रनाशिनींदेवींसुभद्रांपूजयाम्यहम्॥

अर्थातः जो सुपूजित होने पर भक्तों का कल्याण करने में सदा संलग्न रहती हैं, उन अशुभ विनाशिनी भगवती सुभद्रा की मैं पूजा करता हूं।

नवरात्रकी अष्टमी अथवा नवमी के दिन कुमारिका-पूजन करने पर विशेष लाभ प्राप्त होता हैं।

तुलसी सेवन करते समय रखे सावधानी

tulasI sevana karate samaya rakhe savadhAni

तुलसी सेवन करते समय रखे सावधानी


हिन्दू धर्म में तुलसी के पौधे को पवित्र माना जाता है। माना जाता है कि जिस घर के आंगन में तुलसी का पौधा लगा होता हैं उस घर से कलह और दरिद्रता दूर होजाते हैं। धर्मग्रंथों में तुलसी को हरि प्रिया कहा गया हैं। पुराणों में भी भगवान विष्णु और तुलसी के विवाह का वर्णन मिलता हैं।
 
आयुर्वेद शास्त्र के अनुशार तुलसी को संजीवनी बूटी भी कहा जाता है। क्योकि तुलसी के पौधे में अनेको औषधीय गुण पाये जाते हैं। तुलसी का सेवन कफ द्वारा पैदा होने वाले रोगों से बचाने वाला और शरीर कि रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाने वाला माना गया हैं। इसलिए तुलसी के पत्तों का सेवन करना लाभकारी होता हैं।

हमारे शास्त्रों में तुलसी के पत्तों का उचित तरीके से सेवन करने का वर्णन किया गया हैं। जिसका पालन न करने पर यही तुलसी के पत्ते का सेवन हानिकारक भी हो सकते हैं। तुलसी सेवन का शास्त्रोक्त तरीका हैं कि जब भी तुलसी के पत्ते मुंह में रखें, उन्हें दांतों से न चबाकर सीधे ही निगल लेने चाहिये।

इसका विज्ञान कारण हैं, कि तुलसी के पत्तों में पारा (धातु) के अंश होते हैं। जिस कारण तुलसी चबाने पर बाहर निकलकर दांतों कि सुरक्षा परत को नुकसान पहुंचाते हैं। जिससे दंत और मुख रोग होने का खतरा बढ़ जाता है।

यदि तुलसी के पत्ते चबाकर खाने कि आत्याधिक आवश्यकता होतो, तुलसी सेवन के पश्चयात तुरंत कुल्ला कर लें। क्योकि इसका अम्ल दांतों के एनेमल को खराब कर देता हैं।

इसलिए ध्यान रहे कि विष्णुप्रिया की आराधना कर धर्म लाभ तो पाएं लेकिन उसका सेवन सावधानी से कर स्वास्थ्य लाभ भी पाएं।

तुलसी के प्रकार:
तुलसी दो तरह की होती है। काली तुलसी व कपूर तुलसी (बेल तुलसी)

तुलसी सेवन के लाभ
• तुलसी भोजन को शुद्ध करने वाला माना जाता हैं, इसी कारण ग्रहण लगने के पूर्व भोजन में डाला जाता हैं जिससे सूर्य या चंद्र कि विकृत किरणों का कुप्रभाव भोजन पर न पडे।
• तुलसी के पत्तो को मृत व्यक्ति के मुख में डाला जाता हैं, धार्मिक मत के अनुसार उस व्यक्ति को मोक्ष कि प्राप्ति होती हैं।
• तुलसी रक्त कि कमी के लिए रामबाण हैं। तुलसी के नियमित सेवन से हीमोग्लोबीन तेजी से बढ़ता हैं, शारीर कि स्फूर्ति बनी रहती हैं।
• तुलसी के सेवन से अस्थि भंग(टूटी हड्डियां) शीघ्रता से जुड़ जाती हैं।
• गृह निर्माण के समय नींव में घड़े में हल्दी से रंगे कपड़े में तुलसी कि जड़ रखने से भवन पर बिजली गिरने का डर नहीं होता।
• तुलसी कि सेवा करने वाले व्यक्ति को कभी चर्म रोग नहीं, चर्म रोग हैं तो उसमें सुधार होता हैं।

उपयोग में सावधानी बरतें-
• तुलसी कि प्रकृति गर्म हैं, शरीर से गर्मी निकालने के लिये। तुलसी को दही या छाछ के साथ सेवन करने से, उष्ण गुण हल्के हो जाते हैं।
• तुलसी संध्या एवं रात्री में नहीं तोड़ें, एका करने से शरीर में विकार उत्पन्न होते हैं। क्योकि अंधेरे में तुलसी से उठने वाली विद्युत तरंगे तीव्र हो जाती हैं।
• तुलसी के सेवन के बाद दूध पीने से चर्म रोग होता हैं।
• तुलसी के साथ दूध, नमक, प्याज, लहसुन, मूली, मांसाहार, खट्टे पदार्थ सेवन करना हानिकारक होता हैं।
• तुलसी के पत्ते दांतो से चबाकर ना खायें, अगर खायें हैं तो तुरंत कुल्लाकर लें। कारण इसका अम्ल दांतों के एनेमल को खराब कर देता है।

तुलसी सेवन का तरीका
• तुलसी के प्रातः खाली पेट सेवन से अत्याधिक लाभ प्राप्त होता है।
• तुलसी के पत्तों को या किसी भी अंग को सुखाना हो तो केवल छाया में सुखाएं। धुप में सुखाने से तुलसी के गुणों में कमी आती हैं।
• तुलसी के फायदे को देखते हुए एक साथ अधिक मात्रा में सेवन करना हानिकारक होता हैं।

अन्य लाभ
• तुलसी की माला धारण करने वाले व्यक्ति को टांसिल में लाभ होता।
• स्त्री रोग- मासिक धर्म, श्वेत प्रदर यदि मासिक धर्म ठीक से नहीं आता तो एक ग्लास पानी में तुलसी बीज को उबाले, आधा रह जाए तो इस काढ़े को पी जाएं, मासिक धर्म खुलकर होगा।
• मासिक धर्म के दौरान यदि कमर में दर्द भी हो रहा हो तो एक चम्मच तुलसी का रस सेवन करें।
• तुलसी का रस 10 ग्राम चावल के उबले पानी के साथ सात दिन पीने से प्रदर रोग ठीक होगा। इस दौरान दूध भात ही सेवन करें।
• तुलसी के बीज पानी में रातभर भिगो दें। सुबह मसलकर छानकर मिश्री के मिलाकर सेवन करें। प्रदर रोग ठीक होता हैं।
• तुलसी के रस में शहद मिलाकर नियमित कुछ दिनों तक सेवन करने से स्मरण शक्ति बढ़ती हैं।
• तुलसी के पत्तों का दो तीन चम्मच रस प्रातःकाल खाली पेट सेवन करने से स्मरण शक्ति बढ़ती है।
• तुलसी कि पिसी पत्तियों में एक चम्मच शहद मिलाकर नित्य एक बार सेवन कर ने से शरीर निरोगी रहता हैं, चहरे पर चमक आती हैं।पानी में तुलसी के पत्ते डालकर भिगोकर रखने से एवं यह पानी का सेवन करने से यह टॉनिक का काम करता हैं।

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नोट: कृप्या तुलसी का प्रयोग या सेवन करने पूर्व योग्य जानकार से उचित परामर्श अवश्य प्राप्त करें। उपरोक्त वर्णित सभी जनकारी अनुभव एवं अनुशंधान के आधार पर लिखी गई हैं, जनकारी द्वारा किये जाने वाले प्रयोग या उपाय कि प्रामाणिकता एवं लाभ-हानी कि जिन्मेदारी कार्यालय या संपादक कि नहीं हैं।

प्रमुख शक्ति पीठों में होती हैं विशेष पूजा

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प्रमुख शक्ति पीठों में होती हैं विशेष पूजा


दक्ष प्रजापति की कई पुत्रियां थी। सभी पुत्रियां गुणवती थीं। फिर भी दक्ष के मन में संतोष नहीं था। वे चाहते थे उनके घर में एक ऐसी पुत्री का जन्म हो, जो सर्व शक्ति-संपन्न हो एवं सर्व विजयिनी हो। जिसके कारण दक्ष एक ऐसी हि पुत्री के लिए तप करने लगे। तप करते-करते अधिक दिन बीत गए, तो भगवती आद्या ने प्रकट होकर कहा, 'मैं तुम्हारे तप से प्रसन्न हूं। तुम किस कारण वश तप कर रहे हों?

दक्ष नें तप करने का कारण बताय तो मां बोली मैं स्वय पुत्री रूप में तुम्हारे यहां जन्म धारण करूंगी। मेरा नाम होगा सती। मैं सती के रूप में जन्म लेकर अपनी लीलाओं का विस्तार करूंगी। फलतः भगवती आद्या ने सती रूप में दक्ष के यहां जन्म लिया। सती दक्ष की सभी पुत्रियों में सबसे अलौकिक थीं। इस लिये सतीने बाल्य अवस्था में ही कई ऐसे अलौकिक आश्चर्य चलित करने वाले कार्य कर दिखाए थे, जिन्हें देखकर दक्ष को भी आश्चर्य होता था।

जब सती विवाह योग्य होगई, तो दक्ष को उनके लिए वर की चिंता होने लगी। उन्होंने ब्रह्मा जी से इस विषय में परामर्श किया। ब्रह्मा जी ने कहा, सती आद्या का अवतार हैं। आद्या आदि शक्ति और शिव आदि पुरुष हैं। अतः सती के विवाह के लिए शिव ही योग्य और उचित वर हैं। दक्ष ने ब्रह्मा जी की बात मानकर सती का विवाह भगवान शिव के साथ कर दिया। सती कैलाश में जाकर भगवान शिव के साथ रहने लगीं। भगवान शिव के दक्ष के दामाद थे, किंतु एक ऐसी घटना घटीत होगई जिसके कारण दक्ष के ह्रदय में भगवान शिव के प्रति बैर और विरोध भाव पैदा हो गया। भगवान शिव के प्रति बैर और विरोध भाव पैदा हो गया।

संपूर्ण घटना इस प्रकार हैं।
एक बार देवलोक में ब्रह्मा ने धर्म के निरूपण के लिए एक सभा का आयोजन किया था। सभी बड़े-बड़े देवता सभा में एकत्र होगये थे। भगवान शिव भी इस सभा में उपस्थित थे। सभा मण्डल में दक्ष का आगमन हुआ। दक्ष के आगमन पर सभी देवता उठकर खड़े हो गए, पर भगवान शिव खड़े नहीं हुए। उन्होंने दक्ष को प्रणाम भी नहीं किया। फलतः दक्ष ने अपमान का अनुभव किया। केवल यही नहीं, उनके ह्रदय में भगवान शिव के प्रति ईर्ष्या की आग जल उठी। वे उनसे बदला लेने के लिए समय और अवसर की प्रतीक्षा करने लगे।

एक बार सती और शिव कैलाश पर्वत पर बैठे परस्पर वार्तालाप कर रहे थे। उसी समय आकाश मार्ग से कई विमान कनखल कि ओर जाते हुए दिखाई पड़े। भगवान शकंर ने उत्तर दिया आपके पिता ने बहोत बडे यज्ञ का आयोजन किया हैं। समस्त देवता और देवांगनाएं इन विमानों में बैठकर उसी यज्ञ में सम्मिलित होने के लिए जारहे हैं।

इस पर सती ने दूसरा प्रश्न किया क्या मेरे पिता ने आपको यज्ञ में सम्मिलित होने के लिए नहीं बुलाया?
भगवान शंकर ने उत्तर दिया, आपके पिता मुझसे बैर रखते हैं, फिर वे मुझे क्यों बुलायेंगे?

सती मन ही मन सोचने लगीं फिर बोलीं यज्ञ के इस अवसर पर अवश्य मेरी सभी बहनें आएंगी। उनसे मिले हुए बहुत दिन हो गए। यदि आपकी अनुमति हो, तो मैं भी अपने पिता के घर जाना चाहती हूं। भगवान शिव ने उत्तर दिया, इस समय वहां जाना उचित नहीं होगा। आपके पिता मुझसे जलते हैं हो सकता हैं वे आपका भी अपमान करें। बिना बुलाए किसी के घर जाना उचित नहीं होता हैं। इस पर सती ने प्रश्न किया एसा क्युं? भगवान शिव ने उत्तर दिया विवाहित लड़की को बिना बुलाए पिता के घर नही जाना चाहिए, क्योंकि विवाह हो जाने पर लड़की अपने पति कि हो जाती हैं। पिता के घर से उसका संबंध टूट जाता हैं। लेकिन सती पीहर जाने के लिए हठ करती रहीं। अपनी बात बार-बात दोहराती रहीं। उनकी इच्छा देखकर भगवान शिव ने पीहर जाने की अनुमति दे दी।
पीहर जाने पर घर में सतीसे किसी ने भी प्रेमपूर्वक वार्तालाप नहीं किया। दक्ष ने उन्हें देखकर कहा तुम क्या यहां मेरा अपमान कराने आई हो? अपनी बहनों को तो देखो वे किस प्रकार भांति-भांति के अलंकारों और सुंदर वस्त्रों से सुसज्जित होकर आई हैं। तुम्हारे शरीर पर मात्र बाघंबर हैं। तुम्हारा पति श्मशानवासी और भूतों का नायक हैं। वह तुम्हें बाघंबर छोड़कर और पहना ही क्या सकता हैं।
दक्ष के कथन से सती के ह्रदय में पश्चाताप का सागर उमड़ पड़ा। वे सोचने लगीं उन्होंने यहां आकर अच्छा नहीं किया। भगवान ठीक ही कह रहे थे, बिना बुलाए पिता के घर भी नहीं जाना चाहिए। पर अब क्या हो सकता हैं? अब तो आ ही गई हूं। पिता के कटु और अपमानजनक शब्द सुनकर भी सती मौन रहीं। वे उस यज्ञमंडल में गईं जहां सभी देवता और ॠषि-मुनि बैठे थे तथा यज्ञकुण्ड में धू-धू करती जलती हुई अग्नि में आहुतियां डाली जा रही थीं। सती ने यज्ञमंडप में सभी देवताओं के तो भाग देखे, किंतु भगवान शिव का भाग नहीं देखा। वे भगवान शिव का भाग न देखकर अपने पिता से बोलीं पितृश्रेष्ठ! यज्ञ में तो सबके भाग दिखाई पड़ रहे हैं किंतु कैलाशपति का भाग नहीं हैं। आपने उनका भाग क्यों नहीं रखा? दक्ष ने गर्व से उत्तर दिया मैं तुम्हारे पति शिव को देवता नहीं समझता। वह तो भूतों का स्वामी, नग्न रहने वाला और हड्डियों की माला धारण करने वाला हैं। वह देवताओं की पंक्ति में बैठने योग्य नहीं हैं। उसे कौन भाग देगा?

सती के नेत्र लाल हो उठे। उनकी भौंहे कुटिल हो गईं। उनका मुखमंडल प्रलय के सूर्य की भांति तेजोद्दीप्त हो उठा। उन्होंने पीड़ा से तिलमिलाते हुए कहा ओह! मैं इन शब्दों को कैसे सुन रहीं हूं मुझे धिक्कार हैं। देवताओ तुम्हें भी धिक्कार हैं! तुम भी उन कैलाशपति के लिए इन शब्दों को कैसे सुन रहे हो जो मंगल के प्रतीक हैं और जो क्षण मात्र में संपूर्ण सृष्टि को नष्ट करने की शक्ति रखते हैं। वे मेरे स्वामी हैं। नारी के लिए उसका पति ही स्वर्ग होता हैं। जो नारी अपने पति के लिए अपमान जनक शब्दों को सुनती हैं उसे नरक में जाना पड़ता हैं। पृथ्वी सुनो, आकाश सुनो और देवताओं, तुम भी सुनो! मेरे पिता ने मेरे स्वामी का अपमान किया हैं। मैं अब एक क्षण भी जीवित रहना नहीं चाहती। सती अपने कथन को समाप्त करती हुई यज्ञ के कुण्ड में कूद पड़ी। जलती हुई आहुतियों के साथ उनका शरीर भी जलने लगा। यज्ञमंडप में खलबली पैदा हो गई, हाहाकार मच गया। देवता उठकर खड़े हो गए। सती के साथ यज्ञ में आये यशिव के गन वीरभद्र क्रोध से कांप उटे। वे उछ्ल-उछलकर यज्ञ का विध्वंस करने लगे। यज्ञमंडप में भगदड़ मच गई। देवता और ॠषि-मुनि वहां से भाग खड़े हुए। वीरभद्र ने देखते ही देखते दक्ष का मस्तक काटकर फेंक दिया। समाचार भगवान शिव के कानों में भी पड़ा। वे प्रचंड आंधी की भांति कनखल जा पहुंचे। सती के जले हुए शरीर को देखकर भगवान शिव ने अपने आपको भूल गए। सती के प्रेम और उनकी भक्ति ने शंकर के मन को व्याकुल कर दिया। उन शंकर के मन को व्याकुल कर दिया जिन्होंने काम पर भी विजय प्राप्त कि थी और जो सारी सृष्टि को नष्ट करने की क्षमता रखते थे। वे सती के प्रेम में खो गए, बेसुध हो गए।
भगवान शिव ने उन्मत कि भांति सती के जले हुए शरीर को कंधे पर रख वे सभी दिशाओं में भ्रमण करने लगे। सृष्टि व्याकुल हो उठी भयानक संकट उपस्थित देखकर सृष्टि के पालक भगवान विष्णु आगे बढ़े। उन्हों ने भगवान शिव कि बेसुधी में अपने चक्र से सती के एक-एक अंग को काट-काट कर गिराने लगे। धरती पर इक्यावन स्थानों में सती के अंग कट-कटकर गिरे। जब सती के सारे अंग कट कर गिर गए, तो भगवान शिव पुनः अपने आप में वापस आए। फिर पुनः सृष्टि के सारे कार्य चलने लगे।

धरती पर जिन इक्यावन स्थानों में सती के अंग कट-कटकर गिरे थे, वे ही स्थान आज शक्ति पीठ के स्थान माने जाते हैं। आज भी उन स्थानों में सती का पूजन होता हैं, उपासना होती हैं।

• विभिन्न शास्त्रो एवं पुराणों में शक्ति पीठों कि संख्या के वर्णन में भिन्नता हैं।
• तंत्रचूड़ा मणि में 52 शक्ति पीठों का उल्लेख किया गया हैं।
• श्रीमद्देवीभागवत में 908 शक्ति पीठों का उल्लेख किया गया हैं।
• देवी गीता में 72 शक्ति पीठों का उल्लेख किया गया हैं।
• देवीपुराण में 51 शक्ति पीठों का उल्लेख किया गया हैं।
• देवी के मुख्य अंगों-प्रत्यंगों कि गणना में प्रमुख 51 शक्ति पीठ माने जाते हैं।