विवाह के कुछ शास्त्रोक्त नियम
लेख साभार: गुरुत्व ज्योतिष पत्रिका (दिसम्बर-2010)
व्यक्ति के गृहस्थ जीवन में प्रवेश के लिए आवश्यक होता हैं विवाह संस्कार। विवाह संस्कारको ग्रंथों में संस्कार की संज्ञा दी गई हैं जिसका मुख्य उद्देश्य वर-कन्या अपने जीवन को संयमित बनाकर संतानोत्पत्ति करके जीवन के सभी ऋणों से उऋण होकर मोक्ष के लिये प्रयास करें। इसलिए विवाह वर्जितकरने के लिये भी हमारी ऋषि-मुनिओं ने कुछ आवश्यक नियम निर्धारित किये हैं।
• यदि वर-कन्या दोनों सगोत्रीय अर्थात दोंनो एक गोत्र के नहीं होने चाहिए। एसा हो, तो विवाह वर्जित हैं।
• कन्या का गोत्र एवं वर के ननिहाल पक्ष का गोत्र एक नहीं होने चाहिए। एसा हो, तो विवाह वर्जित हैं।
• दो सगे भाइयों से का विवाह दो सगी बहनों से करना वर्जित हैं।
• दो सगे भाइयों या दो सगी बहनों अथवा दो सगे भाई-बहनों का विवाह 6 मास के भितर करना शास्त्रों में वर्जित माना गया हैं।
• अपने कुल में विवाह के 6 माह के भीतर मुंडन, यज्ञोपवीत (जनेऊ संस्कार) चूड़ा आदि मांगलिक कार्य वर्जित माने गये हैं।(यदि 6 मास के भीतर संवत्सर हिंदू वर्ष बदल जाता है तो कार्य किए जा सकते हैं)
विवाह जेसे अन्य मांगलिक कार्यों के मध्य में श्राद्ध आदि अशुभ कार्य करना भी शास्त्रों में वर्जित है।
वर-कन्या के विवाह के लिए गणेश जी का पूजन हो जाने के पश्चात यदि दोनों में से किसी के भी कुल में किसी कि मृत्यु हो जाती हैं, तो वर, कन्या तथा उनके माता-पिता को सूतक नहीं लगता और तय किगई तिथि पर विवाह कार्य किया जा सकता है।
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