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रविवार, दिसंबर 05, 2010

शास्त्रों के अनुसार विवाह के प्रकार

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शास्त्रों के अनुसार विवाह के प्रकार


सभी धर्म में विवाह कि अलग-अलग विधियां होती हैं। विवाह का तात्पर्य होता हैं कि स्त्री-पुरुष को जीवनभर के एक पवित्र रिश्ते में बांधा जाय। हिंदू शास्त्रों के अनुसार विवाह कि प्रमुख आठ विधियों का वर्णन किया गया हैं। इन आठ विधियों में 4 विधियों को श्रेष्ठ और नैतिक माना गया हैं। और अन्य 4 विधियों को पूर्णतः अनैतिक माना गया हैं।

शास्त्रों में ब्राह्म विवाह, देव विवाह, आर्श विवाह और प्राजान्य विवाह को श्रेष्ठ मानागया हैं।
शास्त्रों में असुर विवाह, गंधर्व विवाह, राक्षस विवाह और पिशाच विवाह को अनैतिक मानागया हैं।

भारतीय समाज में श्रेष्ठ और नैतिक विधियों से ही विवाह कराये जाते हैं।

ब्रह्म विवाह :
हिन्दु समाज में ब्रह्म विवाह (ब्राह्म विवाह) आदर्श, सबसे लोकप्रिय और प्रतिष्ठित विवाह का स्वरूप माना जाता हैं क्योकि ब्रह्म विवाह दोनो पक्ष की सहमति से किया जाता हैं। ब्रह्म विवाह में कन्या का पिता अपनी कन्या के लिए विद्ववान, सामर्थ्यवान एवं उत्तम चरित्र वाला सबसे सुयोग्य वर को अपनी कन्या से विवाह के लिए आमंत्रित कर अपनी पुत्री का कन्यादान करता हैं। ब्रह्म विवाह आजकल सामाजिक विवाह या कन्यादान विवाह कहा जाता हैं।

देव विवाह :
शास्त्रों के अनुशार देव विवाह के अंतर्गत कन्या का पिता अपनी सुपुत्री का विवाह यज्ञ (विशेषतः धार्मिक अनुष्टान) कराने वाले पुरोहित को सेवा कार्य के मूल्य के रूप अपनी कन्या को दान में दे देता था। देव विवाह को प्राचिन काल में एक आदर्श विवाह माना जाता था। आजकल देव विवाह आज लुप्त हो गया है।

आर्श विवाह :
शास्त्रों के अनुशार आर्श विवाह प्राचीन काल में सन्यासियों तथा ऋषियों में गृहस्थ बनने की इच्छा जागृत होने पर उन्हें विवाह कि स्वीकृती दिजाती थी। आर्श विवाह के अंतर्गत सन्यासि या ऋषि अपनी पसन्द की कन्या के पिता को गाय और बैल का एक जोड़ा भेंट स्वरुप देता था अर्थात कन्या-पक्ष वालों को कन्या का मूल्य दे कर (गौदान करके) विवाह प्रस्ताव रखे जाते थे। यदि कन्या के पिता को यह रिश्ता मंजूर होता था, तो वह गाय और बैल के जोडे कि भेंट स्वीकार कर लेता था और अपनी सुपुत्री का विवाह कर देता था। लेकिन रिश्ता मंजूर नहीं होने पर गाय और बैल के जोडे कि भेंट सादर लौटा दी जाती थी।

प्रजापत्य विवाह :
शास्त्रों के अनुशार प्रजापत्य विवाह ब्रह्म विवाह का एक कम विस्तृत, संशोधित रूप था। दोनों में मूल अंतर सपिण्ड बहिर्विवाह के नियम तक सीमित था। ब्राह्म विवाह में पिता की तरफ से सात एवं माता की तरफ से पांच पीढ़ियों तक जुड़े लोगों से विवाह संबंध निषेध होता था। लेकिन प्रजापत्य विवाह में पिता की तरफ से पांच एवं माता की तरफ से तीन पीढ़ियों के सपिण्डों में ही विवाह निषेध होता था। प्रजापत्य विवाह में पिता अपनी कन्या की सहमति के बिना उसका विवाह अभिजात्य वर्ग के वर से कर देना 'प्रजापत्य विवाह' कहलाता था।

आसुर विवाह :
शास्त्रों के अनुशार आसुर विवाह ब्रह्म विवाह से विपरीत कन्या के पिता को दान या कन्या का मूल्य देख उसे खरीदा जाता था या विवाह में कन्या के भाई और वर की बहन कि अदला-बदली कि जाती थी। ब्रह्म विवाह में कन्या मूल्य लेना कन्या के पिता के लिए निषिद्ध होता था। ब्रह्म विवाह में कन्या के भाई और वर की बहन का विवाह (अदला-बदली) भी निषिध्द होता है।

गंधर्व विवाह :
शास्त्रों के अनुशार गंधर्व विवाह को आधुनिक युग के प्रेम विवाह का पारंपरिक रूप था। पौराणिक काल में गंधर्व विवाह के अंतर्गत अपने परिवार वालों की सहमति के बिना वर और कन्या का बिना किसी रीति-रिवाज के आपस में विवाह कर लेते थे। उस काल में गंधर्व विवाह की कुछ विशेष परिस्थितियों एवं विशेष वर्गों में स्वीकृति थी परन्तु परंपरा में इसे आदर्श विवाह नहीं माना जाता था।

राक्षस विवाह :
शास्त्रों के अनुशार राक्षस विवाह को पौराणिक काल में कन्या की सहमति के बिना उसका अपहरण करके जबरदस्ती विवाह कर लेना जो लोकप्रिय हरण विवाह के रुप में प्रचलन में रहा
था। पौराणिक काल में राजाओं और दिवासि कबीलों ने युध्द में हारे राजा तथा सरदारों ने मैत्री संबंध बनाने के उद्देश्य से उनकी पुत्रियों से विवाह करने की प्रथा चलायी थी। राक्षस विवाह में स्त्री को युध्द में जीत के प्रतीक के रूप में पत्नी बनाया जाता था। यह स्वीकृत था परंतु आदर्श नहीं माना जाता था।

पैशाच विवाह :
शास्त्रों के अनुशार पैशाच विवाह को विवाह का निकृष्टतम रूप माना गया हैं। जिस के अंतर्गत कन्या की मदहोशी, गहन निद्रा, मानसिक दुर्बलता इत्यादि का लाभ उठा कर जबरदस्ती से शीलहरण कर उससे शारीरिक सम्बंध बना लेना और लड़की के अधिकारों की रक्षा के लिए अंतिम विकल्प के रूप में उसे विवाह रूप में स्वीकार किया जाता था। इस विवाह से उत्पन्न संतान को वैध संतान के सारे अधिकार प्राप्त होते थे।
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