Search

Shop Our products Online @

www.gurutvakaryalay.com

www.gurutvakaryalay.in


रविवार, अप्रैल 03, 2011

नवरात्र व्रतकथा

चैत्र नवरात्र व्रत लाभ, चैत्र नबरात्र व्रत लाभ,चैत्र नवरात्री-2011, चैत्र नबरात्री, चैत्र नवरात्रि, नबरात्रि, नवरात्र व्रतकथा, नवरात्र व्रतकथा, नवरात्री, नवरात्रि, નવરાત્ર વ્રતકથા, નવરાત્ર વ્રતકથા, નવરાત્રી, નવરાત્રિ, ನವರಾತ್ರ ವ್ರತಕಥಾ, ನವರಾತ್ರ ವ್ರತಕಥಾ, ನವರಾತ್ರೀ, ನವರಾತ್ರಿ நவராத்ர வ்ரதகதா, நவராத்ர வ்ரதகதா, நவராத்ரீ, நவராத்ரி, నవరాత్ర వ్రతకథా, నవరాత్ర వ్రతకథా, నవరాత్రీ, నవరాత్రి, നവരാത്ര വ്രതകഥാ, നവരാത്ര വ്രതകഥാ, നവരാത്രീ, നവരാത്രി, ਨਵਰਾਤ੍ਰ ਵ੍ਰਤਕਥਾ, ਨਵਰਾਤ੍ਰ ਵ੍ਰਤਕਥਾ, ਨਵਰਾਤ੍ਰੀ, ਨਵਰਾਤ੍ਰਿ, নৱরাত্র ৱ্রতকথা, নৱরাত্র ৱ্রতকথা, নৱরাত্রী, নৱরাত্রি, navaratra vratakatha, navaratra vratakatha, navaratrI, navaratri, ନବରାତ୍ର ବ୍ରତକଥା, ନବରାତ୍ର ବ୍ରତକଥା, ନବରାତ୍ରୀ, ନବରାତ୍ରି,

नवरात्र व्रतकथा

प्राचीन काल में चैत्र वंशी सुरथ नामक एक राजा राज करते थे। एक बार उनके शत्रुओं ने आक्रमण कर दिया और उन्हें युद्ध में हरा दिया। राजा को बलहीन देखकर उसके दुष्ट मंत्रियों ने राजा की सेना और खजाना अपने अघिकार में ले लिया। जिसके परिणाम स्वरूप राजा सुरथ दुखी और निराश होकर वन की ओर चले गए और वहां महर्षि मेधा के आश्रम में निवास करने लगे।

एक दिन आश्रम में राजा की भेंट समाघि नामक एक वैश्य से हुई, जो अपनी स्त्री और पुत्रों के दुर्व्यवहार से अपमानित होकर वहां निवास कर रहा था।

समाघि ने राजा को बताया कि वह अपने दुष्ट स्त्री और पुत्र आदिकों से अपमानित होने के बाद भी उनका मोह नहीं छोड़ पा रहा है। उसके चित्त को शान्ति नहीं मिल पा रही है। इधर राजा का मन भी उसके अधीन नहीं था। राज्य, धनादि की चिंता अभी भी उसे बनी हुई थी, जिससे वह बहुत दुखी थे। तदान्तर दोनों महर्षि मेधा के पास गए।

महर्षि मेधा यथायोग्य सम्भाष्ण करके दोनों से वार्ता आरंभ की। उन्होने बताया "यद्यपि हम दोनों अपने स्वजनों से अत्यंत अपमानित और तिरस्कृत होकर यहाँ आए हैं, फिर भी उनके प्रति हमारा मोह नहीं छूटता । इसका क्या कारण है?

महर्षि मेधा ने कहा मन शक्ति के अधीन होता है। आदिशक्ति भगवती के दो रूप हैं- विद्या और अविद्या। विद्या मन का स्वरूप है तथा अविद्या अज्ञान का स्वरूप है। अविद्या मोह की जननी है किंतु लोग मां भगवती को संसार का आदि कारण मानकर भक्ति करते हैं, मां भगवती उन्हें जीवन मुक्त कर देती है।" राजा सुरध ने पूछा- भगवन वह देवी कौन सी है, जिसको आप महामाया कहते हैं?
हे ब्रह्मन्। वह कैसे उत्पन्न हुई। और उसका क्या कार्य है? उसके चरित्र कौन कौन से हैं?
प्रभो ! उसका प्रभाव, स्वरूप आदि के बारे में हमे विस्तार में बताइए।

महर्षि मेधा बोले - राजन्! वह देवी तो नित्यास्वरूप है, उनके द्वारा यह संसार रचा गया है। तब भी उसकी उत्पत्ति अनेक प्रकार से होती है, जिसे मैं बताता हूं। संसार को जलमय करके जब भगवान विष्णु यागनिद्रा का आश्रय लेकर, शेषशय्या पर सो रहे थे, तब मधु-कैटभ नाम के असुर उनके कानों के मैल से प्रकट हुए और वह श्री ब्रह्माजी को मारने के लिए तैयार हो गए। उनके इस भयानक रूप को देखकर ब्रह्माजी ने अनुमान लगा लिया कि भगवान विष्णु के सिवाय मेरा कोई रक्षक नहीं है। किन्तु विडम्बना यह थी कि भगवान विष्णु सो रहे थे। तब उन्होंने श्री भगवान को जगाने के लिए उनके नेत्रों में निवास करने वाली योगनिद्रा की स्तुति की।

तब सभीगुण अघिष्ठात्री देवी योगनिद्रा भगवान विष्णु के नेत्र, नसिका, मुख, बाहु और ह्वदय से निकलकर ब्रह्मा जी के सामने खड़ी हो गई। योगनिद्रा के निकलते ही श्रीहरि तुरंत जाग उठे। उन्हें देखकर राक्षस क्रोघित हो उठे और युद्ध के लिए उनकी तरफ दौड़े। भगवान विष्णु और उन राक्षसों में पाँच हजार वर्षो तक युद्ध हुआ। अंत में दोनों राक्षसों ने भगवान की वीरता देख कर उन्हें वर माँगने को कहा।

भगवान ने कहा यदि तुम मुझ पर प्रसन्न हो तो अब मेरे हाथों मर जाओ। बस, इतना ही वर में तुम से माँगता हूँ।

महर्षि मेधा बोले - इस तरह से जब वह धोखे में आ गए और अपने चारों ओर जल ही जल देखा तो भगवान से कहने लगे कि जहां जल न हो, उसी जगह हमारा वध कीजिए।
तथास्तु कहकर भगवान श्री हरि ने उन दोनो को अपनी जांघ पर लिटा कर सिर काट डाले।

महर्षि मेधा बोले इस तरह से यह देवी श्री ब्रह्माजी की स्तुति करने पर प्रकट हुई थी, अब तुम से उनके प्रभाव का वर्णन करता हूं, जिसको ध्यान से सुनो - प्राचीन काल में देवताओं के स्वामी इंद्र और असुरों के स्वामी महिषासुर के बीच पूरे सौ वर्षो तक युद्ध हुआ था। इस युद्ध में देवताओं की सेना परास्त हो गई और इस प्रकार देवताओं को जीत महिषासुर इन्द्र बन बैठा हारे हुए देवता श्री ब्रह्माजी को साथ लेकर भगवान शंकर व विष्णु जी के पास गए और अपनी हार का सारा वृतांत उन्हें कह सुनाया। उन्होने महिषासुर के वध की प्रथना के उपाय की प्रर्थना की। साथ ही राज्य वापस पाने के लिए उनकी कृपा की स्तुति की।

देवताओं की बातें सुनकर भगवान विष्णु और शंकर जी को देवताओं पर बड़ा गुस्सा आया। गुस्से से भरे हुए भगवान विष्णु के मुख से बड़ा भारी तेज निकला और उसी प्रकार का तेज भगवान शंकर, ब्रह्मा आदि देवताओं के मुख से प्रकट हुआ, जिससे दसों दिशाएं जलने लगी। अंत में यही तेज एक देवी के रूप में परिवर्तित हो गया।

देवी ने सभी देवताओं से आयुध, शक्ति तथा आभूषण प्राप्त कर उच्च स्वर में गगनभेदी गर्जना की। जिससे समस्त विश्व में हलचल मच गई पृथ्वी, पर्वत आदि डोल गए। क्रोघित महिषासुर दैत्य सेना लेकर इस सिंहनाद की ओर दौड़ा। उसने देखा कि देवी की प्रभा से तीनों लोक प्रकाशित हो रहे हैं। महिषासुर ने अपना समस्त बल और छल लगा दिया परंतु देवी के सामने उसकी एक न चली। अंत में वह देवी के हाथों मारा गया। आगे चलकर यही देवी शुम्भ-निशुम्भ नामक असुरों का वध करने के लिए गौरी देवी के शरीर से उत्पन्न हुई।

उस समय देवी हिमालय पर विचर रहीं थी। जब शुम्भ-निशुम्भ के सेवकों ने उस परम मनोहर रूप वाली जगदंबा देवी को देखा और तुरन्त अपने स्वामी के पास जाकर कहा कि "हे महाराज ! दुनिया के सारे रत्न आपके अघिकार में हैं। वे सब आपके यहाँ शोभा पाते हैं। ऎसे ही एक स्त्री रत्न को हमने हिमालय की पहाडियों में देखा है। आप हिमालय को प्रकाशित करने वाली दिव्य क्रांति युक्त इस देवी का वरण कीजिए। यह सुनकर दैत्यराज शुम्भ ने सुग्रीव को अपना दूत बनाकर देवी के पास अपना विवाह प्रस्ताव भेजा। देवी ने प्रस्ताव को ना मानकर कहा जो मुझसे युद्ध में जीतेगा। मैं उससे विवाह करूँगी। यह सुनकर असुरेन्द्र के क्रोध का पारावार न रहा और उसने अपने सेनापति धूम्रलोचन को देवी के केशों से पकड़कर लाने का आदेश दिया। इस पर धूम्रलोचन साठ हजार राक्षसों की सेना साथ लेकर देवी से युद्ध के लिए वहाँ पहुँचा और देवी को ललकारने लगा। देवी ने सिर्फ अपनी हुंकार से ही उसे भस्म कर दिया और देवी के वाहन सिंह ने बाकी असुर सेना का संहार कर दिया।

इसके बाद चण्ड मुण्ड नामक दैत्यों को एक बड़ी सेना के साथ युद्ध के लिए भेजा गया। जब असुर देवी को तलवारें लेकर उनकी ओर बढ़े तब देवी ने काली का विकराल रूप धारण कर उन पर टूट पड़ी। कुछ ही देर में सम्पूर्ण सेना को नष्ट कर दिया। फिर देवी ने "हूँ" शब्द कहकर चण्ड का सिर काट दिया और मुण्ड को यमलोक पहुँचा दिया। तब से देवी काली की संसार में चामुंडा के नाम से ख्याति होने लगी।

महर्षि मेधा ने आगे बताया - चण्ड मुण्ड और सारी सेना के मारे जाने की खबर सुनकर असुरों के राजा शुम्भ ने अपनी सम्पूर्ण सेना को युद्ध के लिए तैयार होने की आज्ञा दी। शुम्भ की सेना को अपनी ओर आता देखकर देवी ने अपने धनुष की टंकार से पृथ्वी और आकाश के बीच का भाग गुंजा दिया। ऎसे भयंकर शब्द सुनकर राक्षसी सेना ने देवी और सिंह को चारों ओर से घेर लिया। उस समय दैत्यों के नाश के लिए और देवताओं के हित के लिए समस्त देवताओं की शक्तियाँ उनके शरीर से निकलकर उन्हीं के रूप में आयुधों से सजकर दैत्यों से युद्ध करने के लिए प्रस्तुत हो गई। इन देव शक्तियों से घिरे हुए भगवान शंकर ने देवी से कहा मेरी प्रसन्नता के लिए तुम शीघ्र ही इन असुरों को मारो।

इसके पश्चयात् देवी के शरीर से अत्यंत उग्र रूप वाली और सैंकड़ों गीदडियों के समान आवाज करने वाली चण्डिका शक्ति प्रकट हुई। उस अपराजिता देवी ने भगवान शंकर को अपना दूत बनाकर शुम्भ, निशुम्भ के पास इस संदेश के साथ भेजा जो तुम्हे अपने जीवित रहने की इच्छा हो तो त्रिलोकी का राज्य इन्द्र को दे दो, देवताओं को उनका यज्ञ भाग मिलना आरंभ हो जाए और तुम पाताल को लौट जाओ, किन्तु यदि बल के गर्व से तुम्हारी लड़ने की इच्छा हो तो फिर आ जाओ, तुम्हारे माँस से मेरी योनियाँ तृप्त होंगी।"

चूंकि उस देवी ने भगवान शंकर को दूत के कार्य में नियुक्त किया था, इसलिए वह संसार में शिवदूती के नाम से विख्यात हुई। मगर दैत्य भला कहां मानने वाले थे। वे तो अपनी शक्ति के मद में चूर थे। उन्होने देवी की बात अनसुनी कर दी और युद्ध को तत्पर हो उठे। देखते ही देखते पुन: युद्ध छिड़ गया। किंतु देवी के समक्ष असुर कब तक ठहर सकते थे। कुछ ही देर में देवी ने उनके अस्त्र, शस्त्रों को काट डाला। जब बहुत से दैत्य काल के मुख में समा गए तो महादैत्य रक्तबीज युद्ध के लिए आगे बढ़ा। उसके शरीर से रक्त की बूंदे पृथ्वी पर जैसे ही गिरती थीं। तुरंत वैसे ही शरीर वाला दैत्य पृथ्वी पर उत्पन्न हो जाता था। यह देखकर देवताओं को भय हुआ, देवताओं को भयभीत देखकर चंडिका ने काली से कहा "हे चामुण्डे" तुम अपने मुख को फैलाओ और मेरे शस्त्राघात से उत्पन्न हुए रक्त बिन्दुओं तथा रक्त बिन्दुओं से उत्पन्न हुए महाअसुरों को तुम अपने इस मुख से भक्षण करती हुई रणभूमि में विचरो। इस प्रकार उस दैत्य का रक्त क्षीण हो जाएगा और वह स्वयं नष्ट हो जाएगा। इस प्रकार अन्य दैत्य उत्पन्न नहीं होंगे।

काली के इस प्रकार कहकर चण्डिका देवी ने रक्तबीज पर अपने त्रिशुल से प्रहार किया और काली देवी ने अपने मुख में उसका रक्त ले लिया। चण्डिका ने उस दैत्य को बज्र, बाण, खड्म इत्यादि से मार डाला। महादैत्य रक्तबीज के मरते ही देवता अत्यंत प्रसन्न हुए और माताएं उन असुरों का रक्त पीने के पश्चयात उद्धत होकर नृत्य करने लगीं। रक्तबीज के मारे जाने पर शुम्भ व निशुम्भ को बड़ा क्रोध आया और अपनी बहुत बड़ी सेना लेकर महाशक्ति से युद्ध करने चल दिए। महापराक्रमी शुम्भ भी अपनी सेना सहित मातृगणों से युद्ध करने के लिए आ पहुँचा। किन्तु शीघ्र ही सभी दैत्य मारे गए और देवी ने शुम्भ निशुम्भ का संहार कर दिया। सारे संसार में शांति छा गई और देवता गण हर्षित होकर देवी की वंदना करने लगे।

इन सब उपाख्यानों को सुनकर मेधा ऋषि ने राजा सुरध तथा वणिक समाघि से देवी स्तुवन की विघिवत व्याख्या की, जिसके प्रभाव से दोनों नदी तट पर जाकर तपस्या में लीन हो गए। तीन वर्ष बाद दुर्गा माता ने प्रकट होकर दोनों को आशीर्वाद दिया। इस प्रकार वणिक तो संसारिक मोह से मुक्त होकर आत्मचिंतन में लग गया तथा राजा ने शत्रुओं को पराजित कर अपना खोया हुआ राज वैभव पुन: प्राप्त कर लिया।
इससे जुडे अन्य लेख पढें (Read Related Article)


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें