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शुक्रवार, सितंबर 10, 2010

गणपति पूजन में तुलसी निषिद्ध क्यों?

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गणेश पूजन में तुलसी निषिद्ध क्यों

लेख साभार: गुरुत्व ज्योतिष पत्रिका (सितम्बर-2010)

तुलसी समस्त पौधों में श्रेष्ठ मानी जाती हैं। हिंदू धर्म में समस्त पूजन कर्मो में तुलसी को प्रमुखता दी जाती हैं। प्रायः सभी हिंदू मंदिरों में चरणामृत में भी तुलसी का प्रयोग होता हैं। इसके पीछे ऎसी कामना होती है कि तुलसी ग्रहण करने से तुलसी अकाल मृत्यु को हरने वाली तथा सर्व व्याधियों का नाश करने वाली हैं।

परन्तु यही पूज्य तुलसी को भगवान श्री गणेश की पूजा में निषिद्ध मानी गई हैं।

इनसे सम्बद्ध ब्रह्मकल्प में एक कथा मिलती हैं

एक समय नवयौवन सम्पन्न तुलसी देवी नारायण परायण होकर तपस्या के निमित्त से तीर्थो में भ्रमण करती हुई गंगा तट पर पहुँचीं। वहाँ पर उन्होंने गणेश को देखा, जो कि तरूण युवा लग रहे थे। गणेशजी अत्यन्त सुन्दर, शुद्ध और पीताम्बर धारण किए हुए आभूषणों से विभूषित थे, गणेश कामनारहित, जितेन्द्रियों में सर्वश्रेष्ठ, योगियों के योगी थे गणेशजी वहां श्रीकृष्ण की आराधना में घ्यानरत थे। गणेशजी को देखते ही तुलसी का मन उनकी ओर आकर्षित हो गया। तब तुलसी उनका उपहास उडाने लगीं। घ्यानभंग होने पर गणेश जी ने उनसे उनका परिचय पूछा और उनके वहां आगमन का कारण जानना चाहा। गणेश जी ने कहा माता! तपस्वियों का घ्यान भंग करना सदा पापजनक और अमंगलकारी होता हैं।

शुभे! भगवान श्रीकृष्ण आपका कल्याण करें, मेरे घ्यान भंग से उत्पन्न दोष आपके लिए अमंगलकारक न हो।

इस पर तुलसी ने कहा—प्रभो! मैं धर्मात्मज की कन्या हूं और तपस्या में संलग्न हूं। मेरी यह तपस्या पति प्राप्ति के लिए हैं। अत: आप मुझसे विवाह कर लीजिए। तुलसी की यह बात सुनकर बुद्धि श्रेष्ठ गणेश जी ने उत्तर दिया हे माता! विवाह करना बडा भयंकर होता हैं, मैं ब्रम्हचारी हूं। विवाह तपस्या के लिए नाशक, मोक्षद्वार के रास्ता बंद करने वाला, भव बंधन से बंधे, संशयों का उद्गम स्थान हैं। अत: आप मेरी ओर से अपना घ्यान हटा लें और किसी अन्य को पति के रूप में तलाश करें। तब कुपित होकर तुलसी ने भगवान गणेश को शाप देते हुए कहा कि आपका विवाह अवश्य होगा। यह सुनकर शिव पुत्र गणेश ने भी तुलसी को शाप दिया देवी, तुम भी निश्चित रूप से असुरों द्वारा ग्रस्त होकर वृक्ष बन जाओगी।

इस शाप को सुनकर तुलसी ने व्यथित होकर भगवान श्री गणेश की वंदना की। तब प्रसन्न होकर गणेश जी ने तुलसी से कहा हे मनोरमे! तुम पौधों की सारभूता बनोगी और समयांतर से भगवान नारायण कि प्रिया बनोगी। सभी देवता आपसे स्नेह रखेंगे परन्तु श्रीकृष्ण के लिए आप विशेष प्रिय रहेंगी। आपकी पूजा मनुष्यों के लिए मुक्ति दायिनी होगी तथा मेरे पूजन में आप सदैव त्याज्य रहेंगी। ऎसा कहकर गणेश जी पुन: तप करने चले गए। इधर तुलसी देवी दु:खित ह्वदय से पुष्कर में जा पहुंची और निराहार रहकर तपस्या में संलग्न हो गई। तत्पश्चात गणेश के शाप से वह चिरकाल तक शंखचूड की प्रिय पत्नी बनी रहीं। जब शंखचूड शंकर जी के त्रिशूल से मृत्यु को प्राप्त हुआ तो नारायण प्रिया तुलसी का वृक्ष रूप में प्रादुर्भाव हुआ।
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