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रविवार, फ़रवरी 28, 2010

भूमि परीक्षण और वास्तु भाग: ३

Bhoomi Parikshan aur vastu bhaga : 3, Bhumi Pareekshan or Vastu Part: 3

भूमि परीक्षण और वास्तु भाग: ३

भूमि के मध्य भाग पर एक हाथ लंबा, एवं एक हाथ चौडा और हाथ गहरा गड्‍ढा करवाके उस गड्ढे में उपर तक पानी भर दें । पानी भरकर भूमि की उत्तर दिशाकी ओर सौ कदम चलें और वापस पानी भरे गड्ढे के पास लौटकर देखे।


  • गड्ढे में उतना ही पानी रहे या अल्प पानी कम हुवा हो तो वह सर्व श्रेष्ठ भूमि हैं । यहा निवास करने से सुख समृद्धि बढती हैं।

  • गड्ढे में आधा पानी बच जाये तो वह भूमि निवास हेतु मध्यम फल देने वाली होती हैं।

  • गड्ढे में पानी आधे से ज्यादा कम बच जाये तो वह भूमि निवास हेतु उचित नहीं हैं। वहा निवास करने से सुख एवं सौभाग्य का नाश होकर धन एवं संपत्तिकी हानि होती है ।

गुरुवार, फ़रवरी 25, 2010

भवन निर्माण और गौ सेवा (भाग:२)

Bhavan Nirman aur Gao Seva Bhag:2 , Bhavan Nirmaan or Gou Seva Part:2, Bhag:2

भवन निर्माण और गौ सेवा (भाग:२)

  • जिस घर में नियमित गौ सेवा होती हैं उस घर सें सर्व प्रकार की बाधाओं और विघ्नों का स्वतः निवारण होता रहता हैं।

  • विष्णु पुराण में उल्लेखित हैं जब भगवान कृष्ण पूतना के दुग्धपान से डर गएथे तो नंद दंपती ने गाय की पूंछ को घुमाकर कृष्ण की नजर उतार कर उनके भय का निवारण कियाथा।

  • हमारे प्राचिन पुराणों में उल्लेख किया गया है कि कभी भी गाय को लांघकर नहीं जाना चाहिए।

  • किसी भी महत्व पूर्ण कार्य के लिए जाते समय गाय के रंभाने की ध्वनि कान में पड़ना अत्यंत शुभदायक होता हैं।

  • संतान प्राप्ति हेतु घर में गाय की प्रतिदिन सेवा सरने से लाभ प्राप्त होता हैं।

  • शिवपुराण एंव स्कंदपुराण में वर्णन किया गया हैं कि गो सेवा और गोदान से व्यक्ति को असुरी शक्ति या यम का भय नहीं रहता।

  • गरुड़पुराण और पद्मपुराण में उल्लेख हैं, गाय के पैर की धूल समस्त पापो का विनाश करने मे समर्थ हैं।
 

मंगलवार, फ़रवरी 23, 2010

भूमि परीक्षण और वास्तु भाग: २

Bhoomi Parikshan aur vastu bhaga :2 , Bhumi Pareekshan or Vastu Part: 2

भूमि परीक्षण और वास्तु भाग: २

भूमि के मध्य भाग पर एक हाथ लंबा, एवं एक हाथ चौडा और हाथ गहरा गड्‍ढा करवाके, खोदी गई सारी मिट्टी फिरसे उसी गड्ढेमें डालकर उसे भरने का प्रयास करें।


  • गड्‍ढा भर जाने पर भी यदि मिट्टी बच जाय तो वह सर्व श्रेष्ठ भूमि हैं । भूमि पर गृह निर्माण कर निवास करने से धन एवं सम्पत्तिकी वृद्धि होकर सभी प्रकार के लाभ प्राप्त होते हैं।

  • गड्‍ढा भरने पर यदि मिट्टी कम पडे अर्थात जितनी मिट्टी निकाली थी वस उमें समाजाने के वाद भी यदि भूमि पर गड्‍ढा रहजाये या खोदा हुवा गड्‍ढा पूर्ण न भरे तो वह भुमि पर गृह निर्माण कर निवास करने से सुख एवं सौभाग्य का नाश होकर धन एवं संपत्तिकी हानि होती है ।

रविवार, फ़रवरी 21, 2010

होलाष्टक एवं मान्यता

HolaShtak evm manyata, HolaaShtaka or maanyata,

होलाष्टक एवं मान्यता
  • होली का पर्व फाल्गुन मास की पूर्णिमा को मनाया जाता हैं । इस लिये होली के ठिक आठ दिन को होलाष्टक होते हैं।
  • शास्त्रीय मान्यताओं के अनुसार होलाष्टक में कोई भी नया कार्य, कोई भी शुभ कार्य एंव मांगलिक कार्य करना उचित नहीं हैं।
  • होलाष्टक होलिका दहन के पश्चयात समाप्त होते हैं।
  • होलाष्टक के दौरान हिंदू संस्कृतिके १६ संस्कारो को वर्जित मने जाते हैं।
  • एसी मान्यता है कि होली के आठ दिन पूर्व के दिनो को ज्यादातर अमांगल प्रदान करने वाले होते हैं।
  • देश के कई हिस्से में होलाष्टक नहीं मानते हैं।
  • एसी मान्यता हैं कि कुछ तीर्थस्थान जेसे शतरुद्रा, विपाशा, इरावती एवं पुष्कर सरोवर के अलाव बाकी सब स्थानो पर होलाष्टक का अशुभ प्रभाव नहीं होता बकी सब स्थान पर सर्वत्र विवाह इत्यादि शुभ कार्य बिना परेशानि से हो सकते हैं।
  • लेकिन शास्त्रीय मान्यताओं से होलाष्टक के दौरान शुभ कार्य वर्जित मानागया हैं।

होलाष्टक पर आपकी राय हमे अवश्य बताए।
आप होलाष्टक से संबंधित अपने अनुभव भी बांट सकते हैं।

विवाह के बाद भाग्योदय

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विवाह के बाद भाग्योदय

हमारे जीवन मे घटने वाली तमात छोटी-बडी घटनाए जन्म समय पर ग्रहोकी स्थिती के अनुरुप निश्चित हो जाती हैं। अतः मनुष्य से जन्म के समय पर ही उसका भाग्य केसा रहेगा वह निश्चित होता हैं, व्यक्ति की जन्म कुंडली में नवम भाव को भाग्य भाव कहा जाता हैं, एवं भाग्य भाव को ज्योतिष मे विषेष महत्व दिया जाता हैं। क्योकि नवम भाव से व्यक्ति का भाग्य केसा रहेगा इसका अन्दाजा लगायाजा सकता हैं।

विवाह के पूर्व एवं विवाह के बाद मे पति-पत्नि दोनों की जन्म कुंडली को देखने पर जो योग बनता हैं, उसके अनुरुप भाग्य का आंकलन किया जासकता हैं।
ज्योतिष शास्त्र के प्रमुख ग्रंथो में से एक 'मानसागरी’ के अनुशार

विहाय सर्व गणकैविचिन्त्यो भाग्यालय: केवलमत्र यत्रात्।
आयुश्च माता च पिता च बन्धुर्भाग्यान्वितेनैव भविन्त धन्याः॥

यस्यास्ति भाग्यं स नर: कुलीन: स पण्डित: स श्रुतिमान् गुणज्ञः।
ए एव वक्ता स च दर्शनीयो भाग्यान्वित: सर्वगुणरूपेतः॥

अर्थात: जो व्यक्ति भाग्यवान होता हैं वह कुलीन, सुवक्ता, विद्वान एवं सर्व गुण संपन्न होता हैं, क्योकि उसे यह जो सब प्राप्त हुवा हैं वह भाग्य के हिसाब से मिला हैं। 
व्यक्ति की आयु, भाई, बहन, माता, पिता की स्थिति इत्यादि का अंदाजा इस भाग्य भाव से किया जाता हैं। आज के भौतिकता भरे युग में भाग्य बिना संसार में कुछ भी संभव नहीं हैं।
  • संसार में कुछ व्यक्ति जन्म से भाग्यवान होते हैं।
  • तो कुछ व्यक्ति अपने कर्म द्वारा भाग्यवान बनाते हैं।
  • तो कुछ व्यक्ति विवाह के बाद भाग्यवान बनाते हैं।
ज्योतिष और विवाह के पश्चयात भाग्योदय कारक योग
  • जिस व्यक्ति कि कुंडली में सप्तम भाव, सप्तम भाव का कारक ग्रह, एवं सप्तमेश की स्थिति के बलवान होने पर व्यक्ति का भाग्योदय विवाह के पश्चयात होता हैं।
  • जिस व्यक्ति कि कुंडली में शुक्र, सप्तमेश नवमांश में बली हो। सप्तमेश नवम भाव में नवमेश के साथ हो अथवा दशमेश या लग्नमेश या चतुर्थेश के साथ हो तो भी विवाह के बाद भाग्योदय होता हैं।
  • जिस व्यक्ति कि कुंडली में सप्तमेश उच्चराशिगत, स्वाराशिगत या मूल त्रिकोण राशि में हो, सप्तम भाव को कोई शुभग्रह देखते हों तो व्यक्ति कि तरक्की विवाह के बाद निश्चित है।
  • कुण्डली में सप्तम भाव का कारक शुक्र बलवान, शुभ स्थिति में हो एवं षड्वर्ग में बलवान हो, सप्तमेश गुरू अथवा शुक्र के साथ शुभ हो। शुक्र लग्न, पंचम, नवम, एकादश भाव में हो तो विवाह के बाद भाग्योदय होता हैं।
*  केवल उपरोक्त योग के होने से भाग्योदय संभव नहीं हैं ज्योतिष में अन्य योग अपना महत्व 
    रखते  हैं, उसे भी देखना आवश्यक होता हैं।
*  विवाह के पश्चयात भाग्योदय कारक योग और भी हैं।

गुरुवार, फ़रवरी 18, 2010

भवन निर्माण और गौ सेवा (भाग:१)

Bhavan Nirman aur Gao Seva Bhag:1 , Bhavan Nirmaan or Gou Seva Part:1, Bhag:1

भवन निर्माण और गौ सेवा (भाग:१)

जिस भूमि पर भवन निर्माण का शुभारंभ करना हो उस जगह पर निर्माण कार्य प्रारंभ करने से कुछ दिन पूर्व यदि गाय को वहा रख कर गाय की संपूर्ण श्रद्धा से सेवा की जाये तो उस भूमि पर बनने वाला भवन बिना किसी परेशानि और बिना धन के अभाव में गृह का निर्माण कार्य समाप्त हो जाता हैं।

वास्तुशास्त्र के सभी प्रमुख ग्रंथो में भवन निर्माण से पूर्व गाय को ताजे जन्मे बछडे के साथ में बाधने पर विशेष जोर दिया गया हैं।

यदि गाय को प्रसव से पूर्व बांधना और भी उत्तम होता हैं एसी मान्यता प्रचलन में हैं, क्योकि गाय के भीतर प्रसव के बादमें जो ममता का भाव होता हैं वह अतुल्य होता हैं जिसे शब्दों में बया करना संभव नहीं हैं, एसे में यदि उस भूमि पर उस गाय की सेवा की जाये तो गाय के भीतर से जो भाव निकलते हैं वह उस भूमि पर बनने वाले भवन में सकारत्मन उर्जा को बढाने हेतु सहायक होता हैं। एवं सकारात्मक उर्जावाले स्थान पर निवास करना अति उत्तम मानागया हैं।

निविष्टं गोकुलं यत्र श्वांस मुंचति निर्भयम्।
विराजयति तं देशं पापं चास्याप कर्षति॥

अर्थात:- जिस स्थान पर गाय विराजमान हो कर निर्भयता पूर्वक श्वास लेती हैं, उस भूमि पर से सारे पापों को खींच लेती हैं।

बुधवार, फ़रवरी 17, 2010

नवरत्न स्थिति

Navaratna Sthiti, Navratna
नवरत्न  स्थिति


यदि आप नवरत्न पहने हेतु इच्छुक हैं तो नवरत्न पहने हेतु ग्रह स्थिति के अनुरुप नवरत्न बनवाये


केतु
लहसुनिया
बृहस्पति

पुखराज
बुध

पन्न
शनि

निलम
सूर्य

माणिक
शुक्र

हीरा
राहु

गोमेद
मंगल

मूंगा
चन्द्र

मोति




मंगलवार, फ़रवरी 16, 2010

भूमि परीक्षण और वास्तु भाग: १

Bhoomi Parikshan aur vastu bhaga :1, Bhumi Pareekshan or Vastu Part: 1

भूमि परीक्षण और वास्तु भाग: १

वास्तु सिद्धान्त के अनुरुप गृह निर्माण से पूर्व भूमि पर गृह निर्माण करना आपाके लिये उपयुक्त होगा या नहीं यह जानने हेतु आपके मार्गदर्शन एवं सुविधा हेतु कुछ सरल प्रयोग को अपना कर देखे की आपके लिये वह भूमि पर गृह निर्माण करना उचित होगा या नहीं?

जीवीत भूमि
जिस स्थान पर हरेभरे फल-फूल देने वाले पेड़-पौधे हों, घास इत्यादि हों, उस भूमि को जीवीत भूमि कहा जाता हैं। एसी भूमि निवास हेतु अति उत्तम होती हैं, यहा गृह निर्माण करने से धन-धान्य की वृद्धि एवं सुख सौभाग्य की प्राप्ति होती हैं।


मृत भूमि
जिस स्थान पर चूहे के बिल, दिमग, भूमि ऊबड़ - खाबड हों, दरार पडी हुइ भूमि, काटेदार खेतीकी उपज भी अच्छी होती हो, ऊसर, चूहेके बिल, दिमग आदिसे युक्त, ऊबड़ - खाबड, हड्डियों का ढेरवाली, काटेदार पेड़-पौधे हो, जो दुर्गन्ध युक्त हो, जो भूमि बंजर हो उअ भूमि को मृत कहते हैं, एसी मृतभूमि निवास स्थान हेतु कष्टदायी होती हैं।

  • चूहेके बिलवाली भूमि पर गृह निर्माण करने से धन एवं सौभाग्य का नाश होता हैं।

  • दीमक वाली भूमि पर गृह निर्माण करने से संतान पक्षका नाश होता हैं।

  • फटी हुई भूमि पर गृह निर्माण करने से मृत्यु या मृत्यु समान कष्ट प्राप्त होता हैं।

  • हड्डियों से युक्त भूमि पर गृह निर्माण करने से घर में क्लेश होता हैं। शांति प्राप्त नहीं होती।

  • ऊबड़ खाबड भूमि अर्थात ऊंची-नीची भूमि पर गृह निर्माण करने से शत्रु पक्षकी वृद्धि होती हैं।

  • दुर्गन्ध युक्त भूमि पर गृह निर्माण करने से संत्तति का नाश होता हैं।

नये कपडे और ज्योतिष (भाग : २)

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नये कपडे और ज्योतिष (भाग : २)

चित्रा (स्वामी-मंगल):
चित्रा नक्षत्र में नए कपड़े पहने से रिश्तेदार या मित्र वर्ग से अन्य कपड़े उपहार में मिलते हैं।

स्वाती (स्वामी-राहू):
स्वाती नक्षत्र में नए कपड़े पहने से मित्र वर्ग द्वारा उत्तम उपहार की प्राप्ति होती हैं।

विशाखा (स्वामी-गुरू):
विशाखा नक्षत्र में नए कपड़े पहने से रिश्तेदार एवं मित्र वर्ग द्वारा प्रसिद्धि के योग प्रबल होते हैं।

अनुराधा (स्वामी-शनि):
अनुराधा नक्षत्र में नए कपड़े पहने से नये दोस्त एवं सहकर्मी सें लाभ प्राप्त होता हैं।

ज्येष्ठा (स्वामी-बुध):
ज्येष्ठा नक्षत्र में नए कपड़े पहने से किसी भी स्त्रोत से उत्तम धन की प्राप्ति होती हैं।

मूला (स्वामी-केतु):
मूला नक्षत्र में नए कपड़े पहने से बचे चाहिये इस नक्षत्र में नए कपड़े पहने से कपड़ो का विनाश शीघ्र हो जाता हैं।

पूर्वाषाढ़ा (स्वामी-शुक्र):
पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र में नए कपड़े पहने से बचना चाहिये इस नक्षत्र में नए कपड़े पहने से स्वास्थ्य समस्या होकर रोग उत्पन्न होते हैं।

उत्तराषाढ़ा (स्वामी-सूर्य):
उत्तराषाढ़ा नक्षत्र में नए कपड़े पहने से सबके साथ मे अच्छे सम्बन्ध विकसित होते हैं।

श्रवण (स्वामी-चंद्रमा):
श्रवण नक्षत्र में नए कपड़े पहने से बचे इस नक्षत्र में नए कपड़े पहने से आंखो से संबंधित समस्या उत्पन्न होती हैं।

धनिष्ठा (स्वामी-मंगल):
धनिष्ठा नक्षत्र में नए कपड़े पहने से नौकरी व्यवसाय में नये आय के स्त्रोत का योग बनते हैं।

शतभिषा (स्वामी-राहू):
शतभिषा नक्षत्र में नए कपड़े पहने से बचे क्योकि इस्स नक्षत्र में नए कपड़े पहने से विष या किसी जिव जंतु के काटने का भय रेहता हैं।

पूर्वा भाद्रपद (स्वामी-गुरू):
पूर्वा भाद्रपद नक्षत्र में नए कपड़े पहने से बचना चाहिये ये इस नक्षत्र में नए कपड़े पहने से स्वयं के लिये हानिकारक होता हैं।

उत्तर भाद्रपद (स्वामी-शनि):
उत्तर भाद्रपद मे यदि आपका जन्म हुवा हैं तो आपकी संतान को इस नक्षत्र में नए कपड़े नहीं पहना ने चाहिये नहीं तो उनके लिये हानिकारक हैं।

रेवती (स्वामी-बुध):
रवती नक्षत्र में नए कपड़े पहने से एकाधिक स्त्रोत से धन लाभ प्राप्त होता हैं।

सोमवार, फ़रवरी 15, 2010

वैदिक धर्म क्या है? (हिन्दू धर्म)

Vedic Dharam Kya Hai? (hindu Dharma)
वैदिक धर्म क्या है? (हिन्दू धर्म)


वैदिक धर्म वह है जिस में आत्मा की एकता पर सबसे अधिक जोर दिया जाता है।

जो व्यक्ति इस तत्व को समझ लेता है, परम सत्य-परम पिता परमात्मा के अलावा अन्य किसी और से अधिक प्रेम नहीं करेगा? जो व्यक्ति यह समझ जाएगा कि कण-कण मे केवल इश्वर का वास होता है!' वह व्यक्ति ना किस पर नाराज होगा? ना किसी से लडाई-झगडा करेगा ?  ना किसी को सताएगा? ना किसी को गाली देगा? ना किसी के साथ बुरा व्यवहार करेगा?

यस्मिन्सर्वाणि भूतानि आत्मैवाभूद्विजानतः ।
तत्र को मोहः कः शोक एकत्वमनुपश्यतः ॥

जो व्यक्ति संसार के समस्त प्राणि मात्र में एक ही आत्मा को समझता और देखता है, उसके लिए उसके जीवन मे किसका मोह, किसका शोक रहेगा ?

इसि को वैदिक धर्म का मूल तत्व कहते है। इस सारे जगत में ईश्वर ही सर्वत्र व्याप्त है। ईश्वरी कृपा एवं उस कृपाको पाने के लिए, उसी को समझने के लिए हमें मनुष्य को यह मानव जीवन मिला है। उसे पाने का जो रास्ता है,  उसका नाम धर्म है।

अपने दिन को मंगलमय केसे बनाये ? (भाग: २)

Apane Din ko Mangalmay Kese Banaye ? (Bhag :2 )


अपने दिन को मंगलमय केसे बनाये ? (भाग: २)


नित्य कर्म से निवृत होकर ही पूजा-पाठ (इष्ट आराधना) अवश्य करनी चाहिये।

सर्व प्रथम इष्ट आराधना से पूर्व अपने गुरु को स्मरण (गुरु मंत्र का जाप) करे ताकी उनकी कृपा आप पर बनी रहे जिस्से इष्ट आराधना सफलता से पूर्ण हो एवं आप को पूर्ण सिद्धि प्राप्त होसके।

यदि जीवन मे किसी को गुरु के रूप मे नही बनया तो गणेश मंत्र का जाप करे या आप गयत्री मंत्र का जाप करे अन्यथा भगवान भोले भंडारी (शिव मंत्र) को अपना गुरु बनाले और उनके मंत्रो का जप करे। क्योकि शिवजी एक एसे भगवान है जो अत्यंत शीघ्र प्रसन्न होते है इसी लिये उन्हे भोले भंडारी कहाजाता हैं।

यदि आप अत्याधिक परेशानिओं या संकटो से घीरे होतो आप राम भक्त हनुमान जी को अपना गुरु बाना कर उनकी कृपा से आप सभी अष्टसिद्धि और नव निधिओं को सरलता से प्राप्त कर सकते है क्योकि हनुमान कल्युग के एसे देव है जो सरलता से प्रसन्न होते है एवं अपअने भक्तो की रक्षा करने हेतु तत्पत होते है।

(आप हमारे पूर्व प्रकाश लेखो मे हनुमान चालीसा एवं बजरंग बाण का चमत्कार अवश्य देखे इस्से आपको सहायता होगी, यदि लेखके बारे मे आपके कोइ सुझाव होतो हमे अवश्य बताये हम उसके सुझावो का स्वागत करते हैं।)

गणेश मंत्र (अन्य गणेश मंत्र)

ॐ गं गणपतये नमः ।



गायत्री मंत्र (अन्य मंत्र)

ॐ भूर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं।

भर्गो देवस्य धीमहि धियो योन: प्रचोदयात्॥



महामृत्युंजय मंत्र (अन्य शिव मंत्र)

ॐ त्रयंम्बकं यजामहे सुगंधिम् पुष्टिवर्धनम्।


उर्वारुकमिव बंधनान् मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्॥



अपने गुरु मंत्र के साथ अथवा उपरोक्त मंत्र के माध्यम से आप गुरुकृपा सरलता से प्राप्त कर सकते है।
 गुरुकृपा के बाद अन्य किसी पूजा-अर्चना करे तो वह पूजा-  मंत्र जाप अत्यंत फलदायी सिद्ध होते हैं।

रविवार, फ़रवरी 14, 2010

नये कपडे और ज्योतिष (भाग : १)

Naye Kapade aur Jyotish Bhaga :1 , new dress and astrology Part : 1, naye Kapade or Jyotish Bhaga :1

नये कपडे और ज्योतिष (भाग : १)

ज्योतिष के अनुशार कुछ विशेष नक्षत्रो में नए कपड़े पहने से इसका शुभ फल प्राप्त होता हैं, एवं कुछ नक्षत्रो में नए कपड़े पहनने से स्वास्थ्य, आर्थिक परेशानि इत्यादि समस्याए उत्पन्न होती हैं।

नये कपड़े धारण करने हेतु अश्विनी, रोहिणी, पुष्य, चित्रा, पूनर्वसु, उत्तर फाल्गुनि, हस्त, विशाखा, अनुराधा, उत्तरषाढ, धनिष्ठा, उत्तर भाद्रपद, रेवति, शुभ माने गये हैं।


अश्विनी (स्वामी-केतु):
अश्विनी नक्षत्र में नए कपड़े पहने से किसी भी दोस्त या रिश्तेदार के द्वारा उपहार प्राप्त होता हैं।

भरणी (स्वामी-शुक्र):
भरणी नक्षत्र में नए कपड़े पहने से बचना चाहिये इस नक्षत्र में नए कपड़े पहने से बदनामी होने की आशंका अधिक रेहती हैं।

कृतिका (स्वामी-सूर्य):
कृतिका नक्षत्र में नए कपड़े पहने से बचना चाहिये इस नक्षत्र में नए कपड़े पहने से घर या व्यवाय के स्थान पर अग्नि भय बना रहता हैं। हैं।

रोहिणी (स्वामी-चंद्रमा):
रोहिणी नक्षत्र में नए कपड़े पहने से किसी भी स्त्रोत से अत्याधिक धनलाभ के योग बनता हैं।

मृगशिरा (स्वामी-मंगल):
मृगशिरा नक्षत्र में नए कपड़े पहने से उन कपडो के जल्द खराब होने की संभावना रेहती हैं।

आद्रा (स्वामी-राहू):
आद्रा नक्षत्र में नए कपड़े पहने से धन नाश की आशंका रेहती हैं।

पूनर्वसु (स्वामी-गुरू ):
पूनर्वसु नक्षत्र में नए कपड़े पहने से अस्वीकृति या मानसिक त्रासदी जेसि कठिनाई का सामना करना पडता हैं।

पुष्य (स्वामी-शनि ):
पुष्य नक्षत्र में नए कपड़े पहने से किसी भी स्रोत द्वारा उच्च स्तर का धन लाभ होने का योग बनता हैं।

आशलेषा (स्वामी-बुध):
आशलेषा नक्षत्र में नए कपड़े पहने से बचे इस नक्षत्र में नए कपड़े पहने से कपड़े के नाश होने की संभावना होती हैं।

मघा (स्वामी-केतु):
मघा नक्षत्र में नए कपड़े पहने से बचना चाहिये इस नक्षत्र में नए कपड़े पहने से जीवन मी उन्नति हेतु कठिनाई उतपन्न होती हैं।

पूर्वा फालगुनि (स्वामी-शुक्र):
पूर्वा फालगुनि नक्षत्र में नए कपड़े पहने से बचना चाहिये इस नक्षत्र में नए कपड़े पहने से बहोत सारी परेशानियों से सम्मुखीन होना पडता हैं।

उत्तर फाल्गुनि (स्वामी-सूर्य):
उत्तर फाल्गुनि नक्षत्र में नए कपड़े पहने से आमदनी में वृद्धि होकर जीवन में उन्नति प्राप्त होती हैं।

हस्त (स्वामी-चंद्रमा):
हस्त नक्षत्र में नए कपड़े पहने से भाग्य एवं धन की वृद्धि होकर सभी प्रकार की सुख सुविधा प्राप्त होती हैं।

चित्रा से रेवती नक्षत्रो के बारे में अगली पोस्टमें

अंगुलि से व्यक्तित्व

Ungali Se Vyaktitva,

अंगुलि से व्यक्तित्व

  • जिस व्यक्ति की अंगुलियां पतली हो, उसकी स्मरण शक्ति तीव्र होती हैं।

  • जिस व्यक्ति की अंगुलियां मोटी हो, उसे हमेशा धन की तंगी होती हैं।

  • जिस व्यक्ति की अंगुलियां चपटी हो, उसे जीवन भर किसी के दवाब मे रहकर कार्य करना पडता हैं। व्यक्ति आत्मविश्वासी, परिश्रमी, लगनशील होते हैं। एसे व्यक्ति हमेशा व्यवस्थित जीवन जीने का प्रयाश करते हैं।

  • जिस व्यक्ति की अंगुलियां आगे के भाग से पतली हों, उसकी रुचि कला के प्रति अधिक होती हैं एवं वह दया, प्रेम, करूणावान होता हैं। एसे व्यक्ति में हमेशा आत्मविश्वास की कमी पाई जाती है। जीवन में उतार-चढ़ाव बहुत आते हैं। जीवन मे स्थिरता का अभव रेहता हैं।

  • जिस व्यक्ति की अंगुलियां आगे से मोटी हों, वह व्यक्ति दूरदर्शी, अनुशासन प्रिय, अधिक आत्मविश्वास से भरे हुए होते हैं।
भविष्य पुराण के अनुसार अंगुलि जोड ने पर भी जिनकी अंगुलियों के बीच छिद्र रेहता हैं, उन्हें आमतौर पर जीवन में धन की तंगी रहती हैं। एवं जिन लोगों की अंगुलियां आपस में जुडि हुई होती हैं वह व्यक्ति धनी होते हैं।

शनिवार, फ़रवरी 13, 2010

रुद्राक्ष

Rudraksha

रुद्राक्ष

रुद्राक्ष को भगवान शिव का प्रतिक मानाजाता है. रुद्राक्ष की उत्पत्ति भगवान शिव के अश्रु से हुइथी इस लिये इसे रुद्राक्ष कह जाता है.

रुद्राक्ष शब्द "रुद्र+अक्ष" - रुद्र = शिव
अक्ष = आशु/अश्रु

रूद्राक्ष : 1 मुखी
भगवान : शिव
ग्रह : सूरज
लाभ : विद्वानो के मत से एक मुखी रुद्राक्ष धारण करने से आंतरिक चेतना प्रबुद्ध होती है एवं मानसिक शक्ति क विकास होत है. धारण करता को सभी सांसारिक सुखो कि प्राप्ति होती है.

रूद्राक्ष : 2 मुखी
भगवान : अर्धनारीश्वर
ग्रह : चंद्रमा
लाभ : विद्वानो के मत से दो मुखी रुद्राक्ष धारण करने से गुरु-शिष्य, माता-पिता, बच्चे, पति-पत्नी एवं  अन्य रिस्तो के मध्य एकता बनाए रखने सहायक सिद्ध होता है

रूद्राक्ष : 3 मुखी
भगवान : अग्नि
ग्रह : मंगल
लाभ : विद्वानो के मत से तीन मुखी रुद्राक्ष धारण करने से खरब विचार धारा (कुमति) ओर सर्व प्रकार के भय और पीडा दुर होति है

रूद्राक्ष : 5 मुखी
भगवान : कालाग्नि रुद्र
ग्रह : बृहस्पति
लाभ : विद्वानो के मत से पांच मुखी रुद्राक्ष धारण करने से स्वास्थ्य लाभ और शांति कि प्राप्ति होती है.

रूद्राक्ष : 6 मुखी
भगवान : कार्तिकेय
ग्रह : शुक्र
लाभ : विद्वानो के मत से छ मुखी रुद्राक्ष धारण करने से सांसारिक दुखों से रक्षा होति है ज्ञान और बुद्धि कि प्राप्ति होती है. एवं प्यार, संगीत और व्यक्तिगत संबंधों की सराहना करता है.

रूद्राक्ष : 7 मुखी
भगवान : महालक्ष्मी
ग्रह : शनि
लाभ : विद्वानो के मत से सात मुखी रुद्राक्ष धारण करने से व्यापार ओर आदमी वृद्धि होति है. समस्त प्रकार के भौतिक सुखो कि प्राप्ति होति है

रूद्राक्ष : 8 मुखी
भगवान : गणेश
ग्रह : राहू
लाभ : विद्वानो के मत से आठ मुखी रुद्राक्ष धारण करने से रिद्धि- सिद्धि कि प्राप्ति होति है ओर समस्त प्रकार के शत्रु पर विजय प्राप्त कर समस्त बाधा दुर होति है

रूद्राक्ष : 9 मुखी
भगवान : दुर्गा
ग्रह : केतु
लाभ : विद्वानो के मत से नव मुखी रुद्राक्ष धारण करने से उर्जा शक्ति मे इजफा होत है एवं जीवन मे सफलता प्राप्त कर गतिशीलता कि प्राप्ति होति है.

रूद्राक्ष : 10 मुखी
भगवान : विष्णु
ग्रह : कोई नहीं
लाभ : विद्वानो के मत से दश मुखी रुद्राक्ष धारण करने से शरीर कि रक्षा होति है

रूद्राक्ष : 11 मुखी
भगवान : हनुमान
ग्रह : कोई नहीं
लाभ : विद्वानो के मत से एकादश मुखी रुद्राक्ष धारण करने से ताकत, वाक शक्ति, साहसी जीवन, उत्तम ज्ञान एवं दुर्घटना में मृत्यु से बचाता है. ध्यान ओर योगाभयास मे सहायक होत है

रूद्राक्ष : 12 मुखी
भगवान : सूरज
ग्रह : कोई नहीं
लाभ : विद्वानो के मत से द्वादश मुखी रुद्राक्ष धारण करने से व्यक्ति सूरज के समान तेज ओर गुणवत्ता प्राप्त होति है एवं चिंता, शक और डर को दुर करता है ओर आत्म शक्ति का विकास होता है

बोलते हैं हस्ताक्षर। भाग -२

Bolate hain hastakshar Bhag-2  (Part -2)

बोलते हैं हस्ताक्षर। भाग -२

किसी भी व्यक्ति के व्यक्तिगत एवं सामाजिक व्यवहार को जानने का सरल तरीका हैं उसके हस्ताक्षर कि लिखावट।
 
यहा हम आपकी सुविधा हेतु इसे श्रेणीयों में विभाजीत कर रहे हैं।
  • बहिर्मुखी व्यक्तित्व,
  • अन्तर्मुखी व्यक्तित्व और
  • मघ्यम ( यानी ना ज्यादा बहिर्मुखी ना अन्तर्मुखी)
 
बहिर्मुखी व्यक्तित्व
जो व्यक्ति अपने हस्ताक्षर को थोडा भार देकर लिखता है, हस्ताक्षर की छाप एक पेपर से दूसरे पेपर पर जाती हों, हस्ताक्षर को बडे एवं गोलाई में लिखता हों, जिसकी लिखावट दायीं बाजुसे थोडी झुकती हुई हों,

एसे व्यक्ति समाजिक जीवन में प्रत्येक व्यक्ति के साथ मिलझुल कर कार्य करने मे विश्वार रखते हैं। समाज सेवा के लिये अपना सब कुछ नौछावर करने हेतु तत्पर रेहते हैं, एवं अपने किये गये कार्यो हेतु गर्व अनुभव करते हैं। कई लोग में समाज से कुछ पाने की प्रबल इच्छा देखी जाती हैं।
 
 
अन्तर्मुखी व्यक्तित्व
जो व्यक्ति अपने हस्ताक्षर को हलके हाथ से लिखता है, हस्ताक्षर की कोई छाप एक पेपर से दूसरे पेपर पर नहीं जाती हों, हस्ताक्षर छोटे एवं अस्पस्ट लिखते हों, जिसकी लिखावट बायीं बाजुसे थोडी झुकती हुई हों,

एसे व्यक्ति का समाजिक जीवन बचपन में उपेक्षा का शिकार होने के कारण हिन भावना, उदासी जेसे कारण अन्तर्मुखी बनजाते हैं। एसे व्यक्ति को समाज से ज्यदा लगाव नहीं होता अपनीही धून में रमे रहने वाले होते हैं। उनका व्यवहार दूसरो के प्रति अच्छानहीं रेहता लेकिन खुद दूसरों से अच्छे व्यवहार की सदैव आश लागये रहते हैं। अपने अंदरकी बात किसी को सरलता से नहीं बतातें।
 
मघ्यम व्यक्तित्व (ना बहिर्मुखी ना अन्तर्मुखी)
जो व्यक्ति अपने हस्ताक्षर को ना हलके हाथ से नाहीं ज्यदा जोर देकर लिखता है, हस्ताक्षर की लिखावट सीघी हो, हस्ताक्षर छोटे अथवा मधयम होकर एकदम स्पस्ट लिखते हों,

एसे व्यक्ति का समाजिक जीवन सामन्य होता हैं। यह लोग नातो दिखाने मे विश्वास रखते हैं नाहीं छुपाने में यह लोग हर समय असामन्य परिस्थिती में होने पर भी सामान्य बने रेहने का प्रयाश करते हैं।

वास्तु सिद्धांत (भाग: ३)

Vastu Sidhant (Part: 3) (Bhaga: 3)

वास्तु सिद्धांत (भाग: ३)

वास्तुशास्त्रके नियम केवल भवन या घर के भीतर हीं लागू होते हैं। ईंट, पत्थर आदि से बानी दीवार के भीतर ही लागू होते हैं । तूटे-फूटे भवन या कच्चे घर जहा से वायु का सहजता से आवा-गमन होता हैं, एसे घरमें या भवन में वास्तुशास्त्रके कोई नियम लागू नहीं होते हैं।

वास्तु शास्त्र में दिशा बडा महत्त्व हैं। सूर्य को देख कर दिशा का अंदाजा लगान वास्तुशास्त्र में थिक नहीं होता क्योकी सूर्य के उत्तरायण या दक्षिणायन में दिशा परिवर्तन होने पर उत्तर और दक्षिण तो वही रहते हैं, लेकिन पूर्व और पश्चिम की दिशा में अन्तर पड़ जाता हैं । इस लिये सही दिशाका चुनाव केवल दिशासूचक यंत्र ( कम्पास ) के द्वारा ही करना उचित होता हैं।
दिशासूचक यंत्र 360 डिग्री रहती है,

जिससे चार मुख्य दिशाए एवं चार कोण (विदिशाए) अर्थात (ईशान, अग्निय, नैऋत्य वायव्य) को मिलाकर आठों दिशाओं का सहीं अंदाजा लगाया जासकता हैं। क्योकि कम्पास से देखकर दिशा निर्धारण मे प्रत्येक दिशा एवं प्रयेक कोण कि 45 डिग्री होति हैं, जिस्से स्ठिक दिशा निर्णय में सहायक होता हैं।

दिशा और उसके  देवता एवं ग्रह

पूर्व दिशा:
देवता: इंद्र
ग्रह: सूर्य

पश्चिम दिशा:
देवता: वरुण
ग्रह: शनि

दक्षिण दिशा:
देवता: यम
ग्रह: मंगल

उत्तर दिशा:
देवता: कुबेर
ग्रह: बुध

आग्नेय कोण:
देवता: अग्निदेव
ग्रह: शुक्र

नैऋत्य कोण:
देवता: राक्षस
ग्रह: राहु-केतु

वायव्य कोण:
देवता: वायुदेव
ग्रह: चंद्र

ईशान कोण:
देवता: शंकर
ग्रह: बृहस्पति

शुक्रवार, फ़रवरी 12, 2010

बोलते हैं हस्ताक्षर। भाग-1

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बोलते हैं हस्ताक्षर। भाग -१
हस्ताक्षर साक्षर(शिक्षित) व्यक्ति के जीवन मे अहम हिस्सा है जो उस्के जीवन की सफ़लता एवं असफ़लता निश्चित करती है।


किसी व्यक्ति के हस्ताक्षर को देखकर जीवन के प्रति उसकी मानसिकता, सफ़लता, कार्य करने के शैलि, लोगो से उस्क संबंध, पूर्ण विश्वास और चरित्र आदि का अनुमान सरलता से लगाया जा सकता है।

 हस्ताक्षर व्यक्ति की संपुर्ण मानसिक स्थिति को प्रकट करता है। हस्ताक्षर की जाच करते (नमूना लेते वक्त)या करवाते वक्त (नमूना देते वक्त) अपनी सोच को स्वतन्त्र रखे बिना हिचकिचाए और बिना कुछ सोचे एवं पूरी दृढ़ता से हस्ताक्षर करे, तो वह हस्ताक्षर नमूना अध्ययन की दृष्टि से उचित होता है।
  • हम ने कुछ एसे लोग को देखा है जो वास्तविक जीवन मे अलग तरह के हस्ताक्षर करते है, परंतु जाच के समय या उस्का विश्लेशण करते समय अलग तरह का हस्ताक्षर करते है ! यह अनुचित है।
  • वही हस्ताक्षर करे जो आप अपने वास्तविक जीवन मे करते है।
  • बिना रुके होना चाहिए अर्थात हस्ताक्षर पूर्ण गति में बिना ज्यादा समय कलम रोके करे।



जो व्यक्ति अपने हस्ताक्षर मे सभी अक्षर एक ही आकार (संतुलित हस्ताक्षर) के हो ।

  • व्यक्ति अत्यंत व्यवहारकुशल होते हैं।
  • व्यक्ति अपने कार्यों एवं इरदो पर दृढ़ रहते हैं।
  • ऐसे व्यक्ति जो भी निर्णय लेते हैं, वह स्वतंत्र होता है।
  • एसे व्यक्ति व्यवसाय से ज्यादा नौकरी मे सफ़ल हो एसा संभव है।
  • जल्द कामयाबी हासल करने की तीव्र इच्छा इनमें रहती है।
  • इनका व्यक्तित्व दूसरो आकर्षित करने मे प्रबल होता है।
  • इनके विचारों से प्रभावित होने वालो की संख्या ज्यादा होती हैं।



जो व्यक्ति अपने हस्ताक्षर का प्रथाम अक्षर काफी बडा रखता हो।

  • वह व्यक्ति उतना ही विलक्षण प्रतिभा का घनी, समाज में काफी लोकप्रिय होता है।
  • व्यक्ति समाज मे उच्चा पद प्राप्त करने वाला होता है।
  • दिखावा करने मे माहीर होता है।

जो व्यक्ति अपने हस्ताक्षर में पहला शब्द बडा व बाकी के शब्द सुन्दर व छोटे आकार में होते हैं,

  • ऎसा व्यक्ति घीरे-घीरे उच्चा पद प्राप्त करते हुए सर्वोच्चा स्थान प्राप्त करते है।
  • ऎसा व्यक्ति जीवन में पैसा बहुत कमाता है।
  • कई भूमि-भवनो का मालिक बनता है व समाज में काफी लोकप्रिय होता है,
  • कला प्रेमि व संकोची स्वभाव का उत्तम श्रेणी का विद्वान होता है।
  • वह अपने परिवार का काफी नाम रोशन करता है।


जो व्यक्ति अपने हस्ताक्षर में पहला शब्द बडा व बाकी के शब्द अस्पष्ट व छोटे आकार में होते हैं,

  • ऎसा व्यक्ति जीवन को असामान्य रूप से व्यतीत करता है।
  • हर समय ऊँचाई पर पहुँचने की ललक होती है, लेकिन शत्रु कि वजह से पहोच नही पाता।
  • व्यक्ति राजनीति, अपराघी, कूटनीतिज्ञ या बहुत बडा व्यापारी बनता है।  
  • जीवन असामान्य रूप में व्यतीत करने के कारण परिवार के लोगों की अपेक्षा का शिकार होते है।
  • कोइ व्यक्ति इनहे घोखा खा नहीं दे सकता है। यह इनकी विशेष सोच होती है।
  • लेकिन यह लोग दूसरोको आसनी से अपनी बातो मे उलझाना बखुबी जानते है।


जो व्यक्ति अपने हस्ताक्षर अस्पष्ट तथा जल्दी-जल्दी मे लिखते हो।
  • अपने मन कि बात किसी को नही बताने वाले।
  • अपनी मन की करने वाले लापरवाह होते है।
  • हर समय दूसरो के लिये नारजगी बनी रहती है।
  • दिमाग मे हर समय कुछ एसा सोचते रहते है जो जल्द से जल्द कामयाबी के शिखर पर पहोचा दे।
  • लेकिन ज्यादा तर इनकी सोच असफ़ल ही रहती है।
भाग -२ (हम जल्द ही उपलब्ध कराने के प्रयास मे है, और आप के सहयोग कि आशा करते है।)

महामृत्युंजय मंत्र जाप कब करें?

Mahamrutyunjay mantra jaap kis samay kare?, jap

महामृत्युंजय मंत्र जाप कब करें?


 

महामृत्युंजय मंत्र का जाप स्नान इत्यादि से निवृत होकर प्रतिदिन भी कर सकते हैं इस्से वर्त्मान समय के कष्ट तो दूर होते ही हैं साथ में आने वाले कष्टों काभी स्वतः ही निवारण हो जाता हैं।
 
महामृत्युंजय मंत्र के नियमित यथासंभव जाप करने से बहुत बाधाएँ दूर होती एसा हमने हमारे अनुभवो से जाना हैं।
 
परंतु यदि विशेष स्थितियों में महामृत्युंजय मंत्र के जाप की आवश्यक्ता हो तो भी करयाजा सकता हैं।
 
  • यदि घरका कोइ सदस्य रोग से पीड़ित हों। या उसकी सेहत बार बार खराब हो रही हों।
  • भयंकर महामारी से लोग मर रहे हों, तो जाप कर अपनि और अपने परिवार की सुरक्षा हेतु।
  • यदि सामुहिक यज्ञ द्वारा जाप किया जाये तो अत्याधिक लोगो को लाभ होता हैं।
  • राजभय अर्थान्त सरकार से संबंधित कोइ पीडा या कष्ट हों।
  • साधक का मन धार्मिक कार्यों नहीं लग रहा हों।
  • शत्रु से संबंधित परेशानि एवं क्लेश हों।
  • यदि सामुहिक यज्ञ द्वारा जाप किया जाये तो समग्र विश्व, देश, राज्य, शहर आदि के हितार्थ उद्देश्य से भी जप किये जासकते हैं। इस्से अत्याधिक लोगो को लाभ होता हैं।
 
ज्योतिष
  • मारक ग्रहो द्वारा प्रतिकूल (अशुभ) फल प्राप्त हो रहें हों।
  • यदि जन्म, मास, गोचर और दशा, अंतर्दशा, स्थूलदशा आदि में ग्रहपीड़ा होने की आशंका हों।
  • कुंडाली मेलापक में यदि नाड़ीदोष, षडाष्टक आदि दोष हों।
  • एक से अधिक अशुभ ग्रह रोग एवं शत्रु स्थान(षष्टम भाव में) हों।

सर्व रोग नाशक महामृत्युन्जय मंत्र

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महामृत्युंजय मंत्र के विधि विधान के साथ में जाप करने से अकाल मृत्यु तो टलती ही हैं, रोग, शोक, भय इत्यादि का नाश होकर व्यक्ति को स्वस्थ आरोग्यता की प्राप्ति होती हैं।

यदि स्नान करते समय शरीर पर पानी डालते समय महामृत्युन्जय मंत्र का जप करने से त्वचा सम्बन्धित समस्याए दूर होकर स्वास्थ्य लाभ होता हैं।

यदि किसी भी प्रकार के अरिष्ट की आशंका हो, तो उसके निवारण एवं शान्ति के लिये शास्त्रों में सम्पूर्ण विधि-विधान से महामृत्युंजय मंत्र के जप करने का उल्लेख किया गया हैं। जिस्से व्यक्ति मृत्यु पर विजय प्राप्ति का वरदान देने वाले देवो के देव महादेव प्रसन्न होकर अपने भक्त के समस्त रोगो का हरण कर व्यक्ति को रोगमुक्त कर उसे दीर्घायु प्रदान करते हैं।

मृत्यु पर विजय प्राप्त करने के कारण ही इस मंत्र को मृत्युंजय कहा जाता है। महामृत्यंजय मंत्र की महिमा का वर्णन शिव पुराण, काशीखंड और महापुराण में किया गया हैं। आयुर्वेद के ग्रंथों में भी मृत्युंजय मंत्र का उल्लेख है। मृत्यु को जीत लेने के कारण ही इस मंत्र को मृत्युंजय कहा जाता है।


महत्व:
मृत्युर्विनिर्जितो यस्मात् तस्मान्मृत्युंजय: स्मृत: या मृत्युंजयति इति मृत्युंजय,
अर्थात जो मृत्यु को जीत ले, उसे ही मृत्युंजय कहा जाता है।


मानव शरीर में जो भी रोग उत्पन्न होते हैं उसके बारे में शास्त्रो में जो उल्लेख हैं वह इस प्रकार हैं
"शरीरं व्याधिमंदिरम्" ब्रह्मांड के पंच तत्वों से उत्पन्न शरीर में समय के अंतराल पर नाना प्रकार की आधि-व्यघि उपाधियां उत्पन्न होती रहती हैं। इस लिए हमें अपने शरीर को स्वस्थ्य रखने के लिए आहार-विहार, खान-पान और नियमित दिनचर्या निश्चित समय पर करना पडता हैं। यदि इन सब को निश्चित समय अवधि पर करते रहने के बाद भी यदि कोई रोग या व्याधि हो जाए एवं वह रोग इलाज कराने के बाद भी यदि ठीक नहीं हो एवं सभी जगा से निराशा हाथ लगरही हो तो एसे अरिष्ट की निवृत्ति या शांति के लिए महामृत्युज्य मंत्र जप का प्रयोग अवश्य करें।

शास्त्रों में मृत्यु भयको विपत्ति या संकट माना गया हैं, एवं शास्रो के अनुशार विपत्ति या मृत्य के निवारण के देवता शिव हैं। एवं ज्योतिषशास्त्र के अनुशार दुख, विपत्ति या मृत्य के प्रदाता एवं निवारण के देवता शनिदेव हैं, क्योकि शनि व्यक्ति के कर्मो के अनुरुप व्यक्ति को फल प्रदान करते हैं। शास्त्रो के अनुशार मार्कण्डेय ऋषि का जीवन अत्यल्प था, परंतु महामृत्युंजय मंत्र जप से शिव कृपा प्राप्त कर उन्हें चिरंजीवी होने का वरदान प्राप्त हुवा।


महामृत्युंजय का वेदोक्त मंत्र निम्नलिखित है-

ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्‌।
उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात्‌॥


 
मंत्र उच्चारण विचार :
इस मंत्र में आए प्रत्येक शब्द का उच्चारण स्पष्ट करना अत्यंत आवश्यक है, क्योंकि स्पष्ट शब्द उच्चारण मे ही मंत्र है। इस मंत्र में उल्लेखित प्रत्येक शब्द अपने आप में एक संपूर्ण बीज मंत्र का अर्थ लिए हुए है।

गुरुवार, फ़रवरी 11, 2010

आपकी राशि और शिव पूजा

Aapki rashi aur shiv pooja

आपकी राशि और शिव पूजा

शिव पुराण में उल्लेख हैं की महाशिवरात्रि के दिन शिवलिंग की उत्पत्ति हुई थी, शिववरात्रि के दिन शिव पूजन, व्रत और उपवास से व्यक्ति को अनंत फल की प्राप्ति होती हैं।

ज्योतिष शास्त्र के अनुसार व्यक्ति अपनी राशि के अनुसा भगवान शिव की आराधना और पूजन कर विशेष लाभ प्राप्त कर सकते हैं ।

जिसे अपनी जन्म राशि या नाम राशि पता हो वह व्यक्ति निम्न सामग्री से शिवलिंग पर अभिषेक करें तो विशेष लाभ प्राप्त होते देखा गया हैं।

मेष : जल या दूध के साथ में गुड़, शहद (मधु, महु, मध) लाल चंदन, लाल कनेर के फूल सब मिला कर या किसी भी एक वस्तु को जल/ दूध के साथ मिला कर अभिषेक करने से विशेष लाभ मिलता हैं।

वृषभ : जल या दही के साथ में शक्कर(मिश्री), अक्षत(चांवल), सफेद तिल, सफेद चंदन, श्वेत आक फूल सब मिला कर या किसी भी एक वस्तु को जल या दही के साथ मिला कर अभिषेक करने से विशेष लाभ मिलता हैं।

मिथुन: गंगा जल या दूध के साथ में दूब, जौ, बेल पत्र सब मिला कर या किसी भी एक वस्तु को गंगा जल या दूध के साथ मिला कर अभिषेक करने से विशेष लाभ मिलता हैं।

कर्क : दूध या जल के साथ में शुद्ध घी, सफेद तिल, सफेद चंदन, सफेद आक सब मिला कर या किसी भी एक वस्तु को दूध या जल के साथ मिला कर अभिषेक करने से विशेष लाभ प्राप्त होता हैं।

सिंह: जल या दूध के साथ में शुद्ध घी, गुड़, शहद (मधु, महु, मध) लाल चंदन सब मिला कर या किसी भी एक वस्तु को जल या दूध के साथ मिला कर अभिषेक करने से विशेष लाभ प्राप्त होता हैं।

कन्या : गंगा जल या दूध के साथ में दूब, जौ, बेल पत्र सब मिला कर या किसी भी एक वस्तु को गंगा जल या दूध के साथ मिला कर अभिषेक करने से विशेष लाभ मिलता हैं।

तुला : गंगा जल या दही के साथ में शक्कर(मिश्री), अक्षत(चांवल), सफेद तिल, सफेद चंदन, श्वेत आक फूल, सुगंधित इत्र सब मिला कर या किसी भी एक वस्तु को जल या दही के साथ मिला कर अभिषेक करने से विशेष लाभ मिलता हैं।

वृश्चिक : जल या दूध के साथ में घी, गुड़, शहद (मधु, महु, मध) लाल चंदन, लाल रंग के फूल सब मिला कर या किसी भी एक वस्तु को जल/ दूध के साथ मिला कर अभिषेक करने से विशेष लाभ मिलता हैं।

धनु : जल या दूध के साथ में हल्दी , केसर, चावल, घी, शहद, पीले फुल, पीली सरसों, नागकेसर सब मिला कर या किसी भी एक वस्तु को जल/ दूध के साथ मिला कर अभिषेक करने से विशेष लाभ प्राप्त होता हैं।

मकर : गंगा जल या दही के साथ में काले तिल, सफेद चंदन, शक्कर(मिश्री), अक्षत(चांवल),सब मिला कर या किसी भी एक वस्तु को अभिषेक गंगा जल या दही के साथ मिला कर अभिषेक करने से विशेष लाभ प्राप्त होता हैं।

कुंभ : गंगा जल या दही के साथ में काले तिल, सफेद चंदन, शक्कर(मिश्री), अक्षत(चांवल),सब मिला कर या किसी भी एक वस्तु को अभिषेक गंगा जल या दही के साथ मिला कर अभिषेक करने से विशेष लाभ प्राप्त होता हैं।

मीन : जल या दूध के साथ में हल्दी , केसर, चावल, घी, शहद, पीले फुल, पीली सरसों, नागकेसर सब मिला कर या किसी भी एक वस्तु को जल/ दूध के साथ मिला कर अभिषेक करने से विशेष लाभ प्राप्त होता हैं।

महाशिव रात्रि के दिन कोइ भी व्यक्ति जिसे अपनी राशि पता नहीं हैं वह व्यक्ति पंचामृत से शिवलिंग का अभिषेक कर सकते हैं ।

रुद्राष्टकम

Shree Rudrashtakam shri rudrashtakam

श्री रुद्राष्टकम

नमामीशमीशान निर्वाणरूपं। विभुं व्यापकं ब्रह्मवेदस्वरूपं।
निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं। चिदाकाशमाकाशवासं भजेडहं॥१॥

निराकारमोंकारमूलं तुरीयं। गिरा ग्यान गोतीतमीशं गिरीशं।
करालं महाकाल कालं कृपालं। गुणागार संसारपारं नतोडहं॥२॥

तुषाराद्रि संकाश गौरं गम्भीरं। मनोभूत कोटि प्रभा श्री शरीरं।
स्फुरन्मौलि कल्लोलिनी चारु गंगा। लसद्भालबालेन्दु कण्ठे भुजंगा॥३॥

चलत्कुण्डलं भ्रू सुनेत्रं विशालं। प्रसन्नाननं नीलकण्ठं दयालं।
मृगाधीशचर्माम्बरं मुण्डमालं। प्रियं शंकरं सर्वनाथं भजामि॥४॥

प्रचण्डं प्रकृष्टं प्रगल्भं परेशं। अखण्डं अजं भानुकोटिप्रकाशम्।
त्रय: शूल निर्मूलनं शूलपाणिं। भजेडहं भवानीपतिं भावगम्यं॥५॥

कलातीत कल्याण कल्पांतकारी। सदासज्जनानन्ददाता पुरारी।
चिदानन्द संदोह मोहापहारी। प्रसीद प्रसीद प्रभो मन्मथारी॥६॥

न यावद् उमानाथ पादारविंदं। भजंतीह लोके परे वा नराणां।
न तावत्सुखं शान्ति सन्तापनाशं। प्रसीद प्रभो सर्वभूताधिवासं॥७॥

न जानामि योगं जपं नैव पूजां। नतोडहं सदा सर्वदा शम्भु तुभ्यं।
जराजन्म दु:खौघ तातप्यमानं। प्रभो पाहि आपन्न्मामीश शंभो॥८॥

रुद्राष्टकमिदं प्रोक्तं विप्रेण हरतोषये।
ये पठन्ति नरा भक्तया तेषां शम्भु: प्रसीदति॥९॥

॥इति श्रीरुद्राष्टकम संपूर्ण॥

शिवाष्टकम

Shiva Ashtakam शिव अष्टकम्

शिवाष्टकम


तस्मै नम: परमकारणकारणाय, दिप्तोज्ज्वलज्ज्वलित पिङ्गललोचनाय ।
नागेन्द्रहारकृतकुण्डलभूषणाय, ब्रह्मेन्द्रविष्णुवरदाय नम: शिवाय ॥ १ ॥

श्रीमत्प्रसन्नशशिपन्नगभूषणाय, शैलेन्द्रजावदनचुम्बितलोचनाय ।
कैलासमन्दरमहेन्द्रनिकेतनाय, लोकत्रयार्तिहरणाय नम: शिवाय ॥ २ ॥

पद्मावदातमणिकुण्डलगोवृषाय, कृष्णागरुप्रचुरचन्दनचर्चिताय ।
भस्मानुषक्तविकचोत्पलमल्लिकाय, नीलाब्जकण्ठसदृशाय नम: शिवाय ॥ ३ ॥

लम्बत्स पिङ्गल जटा मुकुटोत्कटाय, दंष्ट्राकरालविकटोत्कटभैरवाय ।
व्याघ्राजिनाम्बरधराय मनोहराय, त्रिलोकनाथनमिताय नम: शिवाय ॥ ४ ॥

दक्षप्रजापतिमहाखनाशनाय, क्षिप्रं महात्रिपुरदानवघातनाय ।
ब्रह्मोर्जितोर्ध्वगक्रोटिनिकृंतनाय, योगाय योगनमिताय नम: शिवाय ॥ ५॥

संसारसृष्टिघटनापरिवर्तनाय, रक्ष: पिशाचगणसिद्धसमाकुलाय ।
सिद्धोरगग्रहगणेन्द्रनिषेविताय, शार्दूलचर्मवसनाय नम: शिवाय ॥ ६ ॥

भस्माङ्गरागकृतरूपमनोहराय, सौम्यावदातवनमाश्रितमाश्रिताय ।
गौरीकटाक्षनयनार्धनिरीक्षणाय, गोक्षीरधारधवलाय नम: शिवाय ॥ ७ ॥

आदित्य सोम वरुणानिलसेविताय, यज्ञाग्निहोत्रवरधूमनिकेतनाय ।
ऋक्सामवेदमुनिभि: स्तुतिसंयुताय, गोपाय गोपनमिताय नम: शिवाय ॥ ८ ॥
॥इति श्री शिवाष्टकम संपूर्ण॥

शिवपच्चाक्षर स्तोत्र

Shiv Panchchakshar Stotra


शिवपच्चाक्षर स्तोत्र

नागेन्द्रहाराय त्रिलोचनाय भस्माङ्गरागाय महेश्वराय।
नित्याय शुद्धाय दिगम्बराय तस्मै काराय नम: शिवाय॥१॥

मन्दाकिनीसलिलचन्दनचर्चिताय नन्दीश्वर प्रमथनाथ महेश्वराय।
मन्दारपुष्पबहुपुष्पसुपूजिताय। तस्मै काराय नम: शिवाय॥२॥

शिवाय गौरीवदनाब्जवृन्द सूर्याय दक्षाध्वरनाशकाय।
श्रीनीलकण्ठाय वृषध्वजाय तस्मै शि काराय नम: शिवाय ॥३॥

वसिष्ठकुम्भोद्भवगौतमार्य मुनीन्द्रदेवार्चितशेखराय।
चन्द्रार्कवैश्वानरलोचनाय तस्मै काराय नम: शिवाय ॥४॥

यक्षस्वरूपाय जटाधराय पिनाकहस्ताय सनातनाय।
दिव्याय देवाय दिगम्बराय तस्मै काराय नम: शिवाय॥५॥

 पच्चाक्षरमिदं पुण्यं य: पठेच्छिवसन्निधौ। शिवलोकमवाप्नोति शिवेन सह मोदते॥६॥

ब्रह्माकृत शिवस्तोत्र

Brahma Krut Shiva Stotra

ब्रह्मा कृत शिवस्तोत्र



नमस्ते भगवान रुद्र भास्करामित तेजसे।
नमो भवाय देवाय रसायाम्बुमयात्मन॥१॥

शर्वाय क्षितिरूपाय नंदीसुरभये नमः।
ईशाय वसवे सुभ्यं नमः स्पर्शमयात्मने॥२॥

पशूनां पतये चैव पावकायातितेजसे।
भीमाय व्योम रूपाय शब्द मात्राय ते नमः॥३॥

उग्रायोग्रास्वरूपाय यजमानात्मने नमः।
महाशिवाय सोमाय नमस्त्वमृत मूर्तये॥४॥

॥इति श्री ब्रह्माकृत शिवस्तोत्र संपूर्ण॥

शिव मानस पूजा

Shiv Manas Pooja, Shiva Manasa Pooja, Puja

शिव मानस पूजा

रत्नैः कल्पितमासनं हिमजलैः स्नानं च दिव्याम्बरं
नानारत्नविभूषितं मृगमदामोदाङ्कितं चन्दनम्।
जातीचम्पकबिल्वपत्ररचितं पुष्पं च धूपं तथा
दीपं देव दयानिधे पशुपते हृत्कल्पितं गृह्यताम्॥१॥

सौवर्णे नवरत्नखण्डरचिते पात्रे घृतं पायसं भक्ष्यं
पञ्चविधं पयोदधियुतं रम्भाफलं पानकम् ।
शाकानामयुतं जलं रुचिकरं कर्पूरखण्डोज्ज्वलं ताम्बूलं
मनसा मया विरचितं भक्त्या प्रभो स्वीकुरु॥२॥

छत्रं चामरयोर्युगं व्यजनकं चादर्शकं निर्मलम्
वीणाभेरिमृदङ्गकाहलकला गीतं च नृत्यं तथा।
साष्टाङ्गं प्रणतिः स्तुतिर्बहुविधा ह्येतत्समस्तं मया
सङ्कल्पेन समर्पितं तवविभो पूजां गृहाण प्रभो॥३॥

आत्मा त्वं गिरिजा मतिः सहचराः प्राणाः शरीरं गृहं
पूजा ते विषयोपभोगरचना निद्रा समाधिस्थितिः।
सञ्चारः पदयोः प्रदक्षिणविधिः स्तोत्राणि सर्वागिरो
यद्यत्कर्म करोमि तत्तदखिलं शम्भो तवाराधनम्॥४॥

करचरण कृतं वाक्कायजं कर्मजं वा
श्रवणनयनजं वा मानसंवापराधम्।
विहितमविहितं वा सर्वमेतत्क्षमस्व
जय जय करुणाब्धे श्रीमहादेवशम्भो॥५॥

॥ इति श्रीमच्छङ्कराचार्यविरचिता शिवमानसपूजा संपूर्ण॥

आदि गुरू शंकराचार्य द्वारा रचित शिव मानस पूजा शिव जी की अद्भूत स्तुति है।

द्वादश ज्योतिर्लिंग स्तोत्रम्

Dwadash Jyotiling Stotram, dvadash Jyotiling Stotra, 

द्वादशज्योतिर्लिंगस्तोत्रम्

सौराष्ट्रदेशे विशदेऽतिरम्ये ज्योतिर्मयं चन्द्रकलावतंसम्।
भक्तिप्रदानाय कृपावतीर्णं तं सोमनाथं शरणं प्रपद्ये॥१॥

श्रीशैलशृंगे विबुधातिसंगे तुलाद्रितुंगेऽपि मुदा वसन्तम्।
तमर्जुनं मल्लिकपूर्वमेकं नमामि संसारसमुद्रसेतुम्॥२॥

अवन्तिकायां विहितावतारं मुक्तिप्रदानाय च सज्जनानाम्।
अकालमृत्यो: परिरक्षणार्थं वन्दे महाकालमहासुरेशम्॥३॥

कावेरिकानर्मदयो: पवित्रे समागमे सज्जनतारणाय।
सदैव मान्धातृपुरे वसन्तमोंकारमीशं शिवमेकमीडे॥४॥

पूर्वोत्तरे प्रज्वलिकानिधाने सदा वसन्तं गिरिजासमेतम्।
सुरासुराराधितपादपद्मं श्रीवैद्यनाथं तमहं नमामि॥५॥

याम्ये सदंगे नगरेतिऽरम्ये विभूषितांगम् विविधैश्च भोगै:।
सद्भक्तिमुक्तिप्रदमीशमेकं श्रीनागनाथं शरणं प्रपद्ये॥६॥

महाद्रिपार्श्वे च तटे रमन्तं सम्पूज्यमानं सततं मुनीन्द्रैः।
सुरासुरैर्यक्षमहोरगाद्यै: केदारमीशं शिवमेकमीडे॥७॥

सह्याद्रिशीर्षे विमले वसन्तं गोदावरीतीरपवित्रदेशे।
यद्दर्शनात् पातकमाशु नाशं प्रयाति तं त्रयम्बकमीशमीडे॥८॥

सुताम्रपर्णीजलराशियोगे निबध्य सेतुं विशिखैरसंख्यै:।
श्रीरामचन्द्रेण समर्पितं तं रामेश्वराख्यं नियतं नमामि॥९॥

यं डाकिनीशाकिनिकासमाजे निषेव्यमाणं पिशिताशनैश्च।
सदैव भीमादिपदप्रसिद्धं तं शंकरं भक्तहितं नमामि॥१०॥

सानन्दमानन्दवने वसन्तमानन्दकन्दं हतपापवृन्दम्।
वाराणसीनाथमनाथनाथं श्रीविश्वनाथं शरणं प्रपद्ये॥११॥

इलापुरे रम्यविशालकेऽस्मिन् समुल्लसन्तं च जगद्वरेण्यम्।
वन्दे महोदारतरं स्वभावं घृष्णेश्वराख्यं शरणं प्रपद्ये॥१२॥

ज्योतिर्मयद्वादशलिंगकानां शिवात्मनां प्रोक्तमिदं क्रमेण।
स्तोत्रं पठित्वा मनुजोऽतिभक्त्या फलं तदालोक्य निजं भजेच्च॥

जो व्यक्ति श्रद्धा पूर्वक इस द्वादश ज्योतिर्लिंग स्तोत्र का पाठ करता हैं, उसे साक्षात द्वादश ज्योतिर्लिंग के दर्शन करने के समान ही लाभ प्राप्त होता हैं।

लिंगाष्टकम

LingaShtakam, Linga Ashtakam

लिंगाष्टकम

ब्रह्ममुरारिसुरार्चित लिगं निर्मलभाषितशोभित लिंग।
जन्मजदुःखविनाशक लिंग तत्प्रणमामि सदाशिव लिंगं॥१॥

देवमुनिप्रवरार्चित लिंगं, कामदहं करुणाकर लिंगं।
रावणदर्पविनाशन लिंगं तत्प्रणमामि सदाशिव लिंगं॥२॥

सर्वसुगंन्धिसुलेपित लिंगं, बुद्धिविवर्धनकारण लिंगं।
सिद्धसुरासुरवन्दित लिंगं, तत्प्रणमामि सदाशिव लिंगं॥३॥

कनकमहामणिभूषित लिंगं, फणिपतिवेष्टितशोभित लिंगं।
दक्षसुयज्ञविनाशन लिंगं, तत्प्रणमामि सदाशिव लिंगं॥४॥

कुंकुमचंदनलेपित लिंगं, पंङ्कजहारसुशोभित लिंगं।
संञ्चितपापविनाशिन लिंगं, तत्प्रणमामि सदाशिव लिंगं॥५॥

देवगणार्चितसेवित लिंग, भवैर्भक्तिभिरेवच लिंगं।
दिनकरकोटिप्रभाकर लिंगं, तत्प्रणमामि सदाशिव लिंगं॥६॥

अष्टदलोपरिवेष्टित लिंगं, सर्वसमुद्भवकारण लिंगं।
अष्टदरिद्रविनाशित लिंगं, तत्प्रणमामि सदाशिव लिंगं॥७॥

सुरगुरूसुरवरपूजित लिंगं, सुरवनपुष्पसदार्चित लिंगं।
परात्परं परमात्मक लिंगं, ततप्रणमामि सदाशिव लिंगं॥८॥

शिवमहिम्नस्तोत्रम्

Shiva Mahimna Stotram, Shiv Mahima Stotram

शिवमहिम्नस्तोत्रम्

महिम्नः पारं ते परमविदुषो यज्ञसदृशी स्तुतिर्ब्रह्मादीना मपि तदवसन्नास्त्वयि गिरः ।
अथावाच्यः सर्वः स्वमतिपरिणामधि गृणन् ममाप्येषः स्तोत्रे हर निरपवादः परिकरः ॥१॥

अतीतः पंथानं तव च महिमा वाड् मनसयो रतद्व्यावृत्यायं चकितमभिधत्ते श्रुतिरपि ।
स कस्य स्तोतव्यः कतिविधगुणः कस्य विषयः पदे त्वर्वाचीने पतति न मनः कस्य न वचः ॥२॥

मधुस्फीता वाचः परमममृतं निर्मितवत स्तव ब्रह्मन्किं वा गपि सुरगुरोर्विस्मयपदम् ।
मम त्वेतां वाणीं गुणकथनपुण्येन भवतः पुनामीत्यर्थेस्मिन् पुरमथनबुद्धिर्व्यवसिता ॥३॥

तवैश्चर्यें यत्तद् जगदुदयरक्षाप्रलयकृत त्रयी वस्तु व्यस्तं तिसृषु गुणभिन्नासु तनुषु ।
अभव्यानामस्मिन् वरद रमणीयामरमणीं विहंतुं व्योक्रोशीं विदधत इहै के जडधियः ॥४॥

किमिहः किंकायः स खलु किमुपायस्त्रिभुवनं किमाधारो धाता सृजति किमुपादान इति च ।
अतकर्यैश्वर्येत्वय्यनवसरदुःस्थो हतधियः कुतर्कोडयंकांश्चिन्मुखरयति मोहाय जगतः ॥५॥

अजन्मानो लोकाः किमवयवंवतोडपि जगता मधिष्ठातारं किं भवविधिरनादत्य भवति ।
अनीशो वा कुर्याद भुवनजनने कः परिकरो यतो मंदास्त्वां प्रत्यमरवर संशेरत इमे ॥६॥

त्रयी सांख्यं योगः पशुपतिमतं वैष्णवमिति प्रभिन्ने प्रस्थाने परमिदमदः पथ्यमिति च ।
रुचीनां वैचित्र्या दजुकुटिलनानापथजुषां नृणामेको गम्य स्त्वमसि पयसामर्णव इव ॥७॥

महोक्षः खड्वांगं परशुरजिनं भस्म फणिनः कपालं चेतीय त्तव वरद तंत्रोपकरणम् ।
सुरास्तां तामृद्धिं दधति तु भव द्भ्रूप्रणिहितां नहि स्वात्मारामं विषयमृगतृष्णा भ्रमयति ॥८॥

ध्रुवं कश्चित्सर्वं सकलमपरस्त्वद्ध्रुवमिदं परो ध्रोव्याध्रोव्ये जगति गदति व्यस्तविषये ।
समस्तेडप्येतस्मि न्पुरमथन तैर्विस्मित इव स्तुवंजिह्रेमि त्वां न खलु ननु धृष्टा मुखरता ॥९॥

तवैश्वर्यं यत्ना द्यदुपरि विरिंचिर्हरिरधः परिच्छेतुं याता वनलमनलस्कंधवपुषः ।
ततो भक्तिश्रद्धा भरगुरुगृणद्भ्यां गिरिश यत् स्वयं तस्थे ताभ्यां तव किमनुवृत्तिने फलति ॥१०॥

अयत्नादापाद्य त्रिभुवनमवैरव्यतिकरं दशास्यो यद्बाहू नभृन रणकंडुपरवशान् ।
शिरःपद्मश्रेणी रचितचरणांभोरुहबलेः स्थिरायास्त्वद्भक्ते स्त्रिपुरहर विस्फूर्जितमिदम् ॥११॥

अमुष्य त्वत्सेवा समधिगतसारं भुजवनं बलात्कैलासेडपि त्वदधिवसतौ विक्रमयतः ।
अलभ्यापाताले डप्यलसचलितांगुष्ठशिरसि प्रतिष्ठा प्रत्वय्या सीद्ध्रुवमुपचितो मुह्यति खलः ॥१२॥

यदद्धिं सुत्राम्णो वरद परमोच्चैरपि सती मधश्चक्रे बाणः परिजनविधेयस्त्रिभुवनः ।
न तच्चित्रं तस्मिंन्वरिवसितरि त्वच्चरणयो र्न कस्याप्युन्नत्यै भवति शिरसस्त्वय्यवनतिः ॥१३॥

अकाण्डब्रह्माण्डक्षयचकितदेवासुरकृपा विधेयस्यासीद्यस्त्रिनयविषं संह्रतवतः ।
स कल्माषः कण्ठे तव न कुरुते न श्रियमहो विकारोडपि श्लाध्यो भुवनभयभंगव्यसनिनः ॥१४॥

असिद्धार्था नैव कवचिदपि सदेवासुरनरे निवर्तन्ते नित्यं जगति जयिनो यस्य विशिखाः ।
स पश्यन्नीश त्वामितरसरुरसाधारणमभूत् स्मरः स्मर्तव्यात्मा नहि वशिषु पथ्यः परिभवः ॥१५॥

मही पादाधाताद् व्रजति सहसा संशयपदं पदं विष्णोर्भ्राम्यद्भुजपरिघरुग्णग्रहगणम् ।
मुहुद्यौंर्दोस्थ्यं यात्यनिभृतजटाताडिततटा जगद्रक्षायै त्वं नटसि ननु वामैव विभुता ॥१६॥

वियद्व्यापी तारागणगुणितफेनोद्गमरुचिः प्रवाहो वारां यः पृषतलघुदष्टः शिरसि ते ।
जगद् द्वीपाकारं जलधिवलयं तेन कृतमि त्यनेनैवोन्नेयं धृतमहिम दिव्यं तव वपुः ॥१७॥

रथः क्षोणी यन्ता शतधृतिरगेन्द्रो धनुरथो रथाडगे चन्द्रार्कौ रथचरणपाणिः शर इति ।
दिधक्षोस्ते कोडयं त्रिपुरतृणमाडम्बरविधिर् विधेयैः क्रीडन्त्यो न खलु परतन्त्राः प्रभुधियः ॥१८॥

हरिस्ते साहस्त्रं कमलबलिमाधाय पदयो यदिकोने तस्मिन् निजमुदहरन्नेत्रकमलम् ।
गतो भकत्युद्रेकः परिणतिमसौ चक्रवपुषा त्रयाणां रक्षायै त्रिपुरहर जागर्ति जगताम् ॥१९॥

क्रतौ सुप्ते जाग्रत्त्वमसि फलयोगे क्रतुमतां क्व कर्म प्रध्वस्तं फलति पुरुषाराधनमृते ।
अतस्त्वां सम्प्रेक्ष्य क्रतुषु फलदानप्रतिभुवं श्रुतौ श्रद्धां बद्ध्वा दटपरिकरः कर्मसु जनः ॥२०॥

क्रियादक्षो दक्षः क्रतुपतिरधीशस्तनुभृता मृषीणामार्त्विज्यं शरणद सदस्याः सुरगणाः ।
क्रतुभ्रंषस्त्वत्तः क्रतुफलविधानव्यसनिनो ध्रुवं कर्तुः श्रद्धाविधुरमभिचाराय हि मखाः ॥२१॥

प्रजानाथं नाथ प्रसभमभिकं स्वां दुहितरं गतं रोहिद्भूतां रिरमयिषुमृष्यस्य वपुषा ।
धनुष्पाणेर्यातं दिवमपि सपत्राकृतंममुं त्रसन्तं तेडद्यापि त्यजति न मृगव्याधरभसः ॥२२॥

स्वलावण्याशंसाधृतधनुषमह्नाय तृणवत् पुरः प्लुष्टं दष्टवा पुरमथन पुष्पायुधमपि ।
यदि स्त्रैणं देवी यमनिरत देहार्धघटना दवैति त्वामद्धा बत वरद मुग्धा युवतयः ॥२३॥

स्मशानेष्वाक्रीडा स्महर पिशाचाः सहचरा श्चिताभस्मालेपः स्तगपि नृकरोटीपरिकरः ।
अमंगल्यं शीलं तव भवतु नामैवमखिलं तथाडपि स्मर्तृणां वरद परमं मंगलमसि ॥२४॥

मनः प्रत्यक्चित्ते सविधमवधायात्तमरुतः प्रह्रष्यद्रोमाणः प्रमदसलिलोत्संगितदशः ।
यदालोक्याह्लादं ह्रद इव निमज्ज्यामृतमये दद्यत्यंतस्तत्त्वं क्रिमपि यमिनस्तत्किल भवान् ॥२५॥

त्वमर्कस्त्वं सोमस्त्वमसि पवनस्त्वं हुतवह स्त्वमापस्त्वं व्योम त्वमु धरणिरात्मा त्वमिति च ।
परिच्छिन्नामेवं त्वयिपरिणता बिभ्रतु गिरं न विद्मस्तत्तत्वं वयमिह तु यत्त्वं न भवसि ॥२६॥

त्रयीं तिस्त्रो वृत्तीस्त्रिभुवनमथोत्रीनपिसुरा नकाराद्यैर्वर्णै स्त्रिभिरभिदधत्तीर्ण विकृतिः ।
तुरीयं ते धाम ध्वनिभिरवरुन्धानमणुभिः समस्तं व्यस्तं त्वां शरणद गृणात्योमिति पदम् ॥२७॥

भवः शर्वो रुद्रः पशुपतिरथोग्रः सहमहां स्तथां भीमशानाविति यदभिधानाष्टकमिदम् ।
अमुष्मिन्प्रत्येकं प्रवितरति देव श्रुतिरपि प्रियायास्मै धाम्ने प्रणिहितनमस्योडस्मि भवते ॥२८॥

नमो नेदिष्ठाय प्रियदवदविष्ठाय च नमो नमः क्षोदिष्ठाय स्मरहर महिष्ठाय च नमः ।
नमोवर्षिष्ठाय त्रिनयन यविष्ठा च नमो नमः सर्वस्मै ते तदिदमितिशर्वाय च नमः ॥२९॥

बहलरजसे विश्वोत्पत्तौ भवाय नमो नमः प्रबलतमसे तत्संहारे हराय नमो नमः ।
जनसुखकृते सत्त्वोद्रिक्तौ मृडाय नमो नमः प्रमहसि पदे निस्त्रैगुण्ये शिवाय नमो नमः ॥३०॥

कृशपरिणति चेतः क्लेशवश्यं क्व चेदं क्व च तव गुणसीमोल्लंधिनी शश्वद्रद्धिः ।
इति चकितममन्दीकृत्य मां भक्तिराधाद् वरद चरणयोस्ते वाक्य-पुष्पोपहारम् ॥३१॥

असितगिरिसमंस्यात् कज्जलं सिंधुपात्रे सुरतरुवरशाखा लेखिनी पत्रमुर्वि ।
लिखति यदि गृहीत्वा शारदा सर्वकालं तदपि तव गुणाना मीश पारं न याति ॥३२॥

असुरसुरमुनीन्द्रैरर्चितस्येन्दुमौले र्ग्रथितगुणमहिम्नो निर्गुणस्येश्वरस्य ।
सकलगणवरिष्ठः पुष्पदन्ताभिधानो रुचिरमलधुवृत्तैः स्तोत्रमेतच्चकार ॥३३॥

अहरहरनवद्यं धूर्जटेः स्तोत्रमेतत् पठति परमभक्त्या शुद्धचित्तः पुमान्यः ।
स भवति शिवलोके रुद्रतुल्यस्तथाडत्र प्रचुरतरधनायुः पुत्रवान्कीर्तिमांश्च ॥३४॥

महेशान्नापरो देवो महिम्नो नापरा स्तुतिः । अघोरान्नापरो मंत्रो नास्ति तत्त्वं गुरोः परम्
दीक्षा दानं तपस्तीर्थं ज्ञानं यागादिकाः क्रियाः । महिम्नस्तवपाठस्य कलां नार्हन्ति षोडशीम् ॥३५॥

कुसुमदशननामा सर्वगन्धर्वराजः शिशुशशिधरमौलेर्देव देवस्य दासः ।
स खलु निजमहिम्नो भ्रष्ट एवास्य रोषात् स्तवनमिदमकार्षीद् दिव्यदिव्यं महिम्नः ॥३६॥

सुरवरमुनिपूज्यं स्वर्गमोक्षैकहेतुं पठति यदि मनुष्यः प्रांजलिर्नान्यचेताः ।
व्रजति शिवसमीपं किन्नरैः स्तूयमानः स्तवनमिदममोघं पुष्पदन्तप्रणीतम् ॥३७॥

आसमाप्तमिदं स्तोत्रं पुण्यं गंधर्वभाषितम् । अनौपम्यं मनोहारिशिवमीश्वरवर्णनम् ।
इत्येषा वाडमयी पूजा श्रीमच्छंकरपादयोः । अर्पिता तेन देवेशः प्रीयतां मे सदाशिवः ॥३८॥

तव तत्त्वं न जानामि कीद्शोडसि महेश्वर । याद्सोडसि महादेव ताद्शाय नमो नमः ।
एककालं द्विकालं वा त्रिकालं यः पठेन्नरः । सर्वपापविनिर्मुक्तः शिवलोके महीयते ॥३९॥

श्री पुष्पदंतमुखपंकजनिर्गतेन स्तोत्रेंण किल्बिहरेण हरप्रियेण ।
कंठस्थितेन पठितेन समाहितेन सुप्रीणितो भवति भूतपतिर्महेशः ॥४०॥

जो मनुष्य शिवजी की अतिप्रिय इस स्तुति का पाठ करता हैं उस पर शिवजी की अवश्य कृपा होती हैं।

रुद्राभिषेकस्तोत्र

Rudra bhishek stotram, Rudraa bhisheka
रुद्राभिषेकस्तोत्र

ॐ सर्वदेवताभ्यो नम :

ॐ नमो भवाय शर्वाय रुद्राय वरदाय च ।
पशूनाम् पतये नित्यमुग्राय च कपर्दिने ॥१॥

महादेवाय भीमाय त्र्यम्बकाय च शान्तये ।
ईशानाय मखघ्नाय नमोऽस्त्वन्धकघातिने ॥२॥

कुमारगुरवे तुभ्यम् नीलग्रीवाय वेधसे ।
पिनाकिने हिवष्याय सत्याय विभवे सदा ॥३॥

विलोहिताय धूम्राय व्याधायानपराजिते ।
नित्यनीलिशखण्डाय शूलिने दिव्यचक्षुषे ॥४॥

हन्त्रे गोप्त्रे त्रिनेत्राय व्याधाय वसुरेतसे ।
अचिन्त्यायाम्बिकाभर्त्रे सर्वदेवस्तुताय च ॥५॥

वृषध्वजाय मुण्डाय जिटने ब्रह्मचारिणे ।
तप्यमानाय सिलले ब्रह्मण्यायाजिताय च ॥६॥

विश्वात्मने विश्वसृजे विश्वमावृत्य तिष्ठते ।
नमो नमस्ते सेव्याय भूतानां प्रभवे सदा ॥७॥

ब्रह्मवक्त्राय सर्वाय शंकराय शिवाय च ।
नमोऽस्तु वाचस्पतये प्रजानां पतये नम: ॥८॥

नमो विश्वस्य पतये महतां पतये नम: ।
नम: सहस्रिशरसे सहस्रभुजमृत्यवे ।
सहस्रनेत्रपादाय नमोऽसंख्येयकर्मणे॥९॥

नमो हिरण्यवर्णाय हिरण्यकवचाय च ।
भक्तानुकिम्पने नित्यं सिध्यतां नो वर: प्रभो ॥१०॥

एवं स्तुत्वा महादेवं वासुदेव: सहार्जुन: ।
प्रसादयामास भवं तदा ह्यस्त्रोपलब्धये ॥११॥

॥ इति रुद्राभिषेकस्तोत्रम् संपूर्ण ॥

प्रयोग :  तांबेके लोटे में शुध्ध पानी या गंगाजल, गाय का कच्चा दूध, सफेद या काले तिल इन सबको लोटे में मिलाकर शिवलिंग उपर दूध की धारा चालु रखकर उपरोक्त लघुरुद्राभिषेक स्तोत्र का पाठ ग्यारा बार श्रध्धा पूर्वक करने से जीवन में आयी हुई और आनेवाली समस्त प्रकार के कष्टो से छुटकारा मिलता हैं और सुख शांति एवं समृद्धि की प्राप्ति होती है । इसमें लेस मात्र सदेह नहीं हैं।

महाकाल स्तवन

Mahakal Stavan

महाकाल स्तवन

असंभवं संभव-कर्त्तुमुघतं, प्रचण्ड-झंझावृतिरोधसक्षम।
युगस्य निर्माणकृते समुघतं, परं महाकालममुं नमाम्यहम॥

यदा धरायामशांतिः प्रवृद्घा, तदा च तस्यां शांतिं प्रवर्धितुम।
विनिर्मितं शांतिकुंजाख्य-तीर्थकं, परं महाकालममुं नमाम्यहम॥

अनाघनन्तं परमं महीयसं, विभोः स्वरुपं परिचाययन्मुहुः।
यगगानुरुपं च पंथं व्यदर्शयत्, परं महाकालममुं नामाम्यह॥

उपेक्षिता यज्ञ महादिकाः क्रियाः, विलुप्तप्राय खलु सान्ध्यमाहिकम।
समुद्धृतं येन जगद्धिताय वै, परं महाकालममुं नामाम्यहम॥

तिरस्कृतं विस्मडतमप्युपेक्षितं, आरोग्यवहं यजन प्रचारितुंम।
कलौ कृतं यो रचितुं समघतः, परं महाकालममुं नामाम्यहम॥

तपः कृतं येन जगद्घिताय, विभीषिकायाश्च जगन्नु रक्षितुम।
समुज्ज्वला यस्य भविष्य-घोषणा, परं महाकालममुं नामाम्यहम॥

मृदुहृदारं हृदयं नु यस्य यत्, तथैव तीक्ष्णं गहनं च चिन्तनम।
ऋषेश्चरित्रं परमं पवित्रकं, परं महाकालममुं नामाम्यहम॥

जनेष देवत्ववृतिं प्रवर्धितुं, वियद् धरायाच्च विधातुमक्षयम।
युगस्य निर्माणकृता च योजना, परं महाकालममुं नामाम्यहम॥

यः पठेच्चिन्त येच्चापि, महाकाल-स्वरुपकम।
लभेत परमां प्रीति, महाकाल कृपादृशा॥

॥इति महाकाल स्तवन संपूर्ण॥

ज्योतिष शास्त्र और शिवरात्रि

Jyotish Shastra Aur shiv ratri, Jyotish Shastra or Shiva ratree

ज्योतिष शास्त्र और शिवरात्रि

चतुर्दशी तिथि के स्वामी शिवजी हैं।
ज्योतिष शास्त्रों में चतुर्दशी तिथि को परम शुभ फलदायी मना गया हैं। वैसे तो शिवरात्रि हर महीने चतुर्दशी तिथि को होती हैं। परंतु फाल्गुन कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को महाशिवरात्रि कहा गया हैं।
ज्योतिषी शास्त्र के अनुसार विश्व को उर्जा प्रदान करने वाले सूर्य इस समय तक उत्तरायण में आ होते हैं, और ऋतु परिवर्तन का यह समय अत्यंत शुभ कहा माना जाता हैं। शिव का अर्थ ही है कल्याण करना, एवं शिवजी सबका कल्याण करने वाले देवो के भी देव महादेव हैं। अत: महा शिवरात्रि के दिन शिव कृपा प्राप्त कर व्यक्ति को सरलता से इच्छित सुख की प्राप्ति होती हैं।

ज्योतिषीय सिद्धंत के अनुसार चतुर्दशी तिथि तक चंद्रमा अपनी क्षीणस्थ अवस्था में पहुंच जात्ता हैं।

अपनी क्षीण अवस्था के कारण बलहीन होकर चंद्रमा सृष्टि को ऊर्जा(प्रकाश) देने में असमर्थ हो जाते हैं।
चंद्र का सीधा संबंध मनुष्य के मन से बताया गया हैं।
ज्योतिष सिद्धन्त से जब चंद्र कमजोर होतो मन थोडा कमजोर हो जाता हैं, जिस्से भौतिक संताप प्राणी को घेर लेते हैं, और विषाद, मान्सिक चंचल्ता-अस्थिरता एवं असंतुलन से मनुष्य को विभिन्न प्रकार के कष्टों का सामना करना पड़ता हैं।

धर्म ग्रंथोमे चंद्रमा को शिव के मस्तक पर सुशोभित बताय गया हैं। जिस्से भगवान शिव की कृपा करने से चंद्रदेव की कृपा स्वतः प्राप्त हो जाती हैं। महाशिवरात्रि को शिव की अत्यंत प्रिय तिथि बताई गई हैं। ज्यादातर ज्योतिषी शिवरात्रि के दिन शिव आराधना कर समस्त कष्टों से मुक्ति पाने की सलाह देते हैं।

बुधवार, फ़रवरी 10, 2010

पंचामृत का महत्व

PanchaMrut ka mahatva, Pancha Amrut ka mahatva,

पंचामृत का महत्व

पंचामृत क्या हैं?
पंचामृत का मतलब हैं पांच तरह के अमृत का मिश्रण


पंचामृत को घी + दुध + दही + शहद + शक्कर मिला कर बनता हैं।
तो कहीं पंचामृत को घी + दुध + दही + शहद + गुड मिला कर बनाते हैं।

आध्यात्मिक द्रश्टि कोण से देखे तो जो व्यक्ति पंचामृत से देवमूर्ति (प्रतिमा) का अभिषेक करता हैं, उसे मुक्ति प्रदान हो जाती हैं।

भारतीय सभ्यता में पंचामृत का जो महत्व बताय गया हैं वह हैं, श्रद्धापूर्वक पंचामृत का पान करने वाले व्यक्ति को जीवन में सभी प्रकार की सुख समृद्धि और ऐश्वर्य की प्राप्ति होती हैं, एवं उसका शरीर मृत्यु के पश्च्यात जन्म-मरण के चक्र से मुक्त हो जाता हैं।

चिकित्सा शास्त्र के अनुशार गाय का दुध, गाय का घी, दही, शर्करा और मधु के सम्मिश्रण में रोगो का निवारण करने वाले गुण विद्यमान होते हैं, और यह शरीर के लिये लाभ कारक होता हैं।

वेदसार शिवस्तवः

Vedsar Shivstavh, Ved Sara Shiva Stavah

वेदसार शिवस्तवः

पशूनां पतिं पापनाशं परेशं गजेन्द्रस्य कृत्तिं वसानं वरेण्यम।
जटाजूटमध्ये स्फुरद्गाङ्गवारिं महादेवमेकं स्मरामि स्मरारिम॥१॥

महेशं सुरेशं सुरारातिनाशं विभुं विश्वनाथं विभूत्यङ्गभूषम्।
विरूपाक्षमिन्द्वर्कवह्नित्रिनेत्रं सदानन्दमीडे प्रभुं पञ्चवक्त्रम्॥२॥

गिरीशं गणेशं गले नीलवर्णं गवेन्द्राधिरूढं गुणातीतरूपम्।
भवं भास्वरं भस्मना भूषिताङ्गं भवानीकलत्रं भजे पञ्चवक्त्रम्॥३॥

शिवाकान्त शंभो शशाङ्कार्धमौले महेशान शूलिञ्जटाजूटधारिन्।
त्वमेको जगद्व्यापको विश्वरूपः प्रसीद प्रसीद प्रभो पूर्णरूप॥४॥

परात्मानमेकं जगद्बीजमाद्यं निरीहं निराकारमोंकारवेद्यम्।
यतो जायते पाल्यते येन विश्वं तमीशं भजे लीयते यत्र विश्वम्॥५॥

न भूमिर्नं चापो न वह्निर्न वायु- र्न चाकाशमास्ते न तन्द्रा न निद्रा।
न गृष्मो न शीतं न देशो न वेषो न यस्यास्ति मूर्तिस्त्रिमूर्तिं तमीड॥६॥

अजं शाश्वतं कारणं कारणानां शिवं केवलं भासकं भासकानाम्।
तुरीयं तमःपारमाद्यन्तहीनं प्रपद्ये परं पावनं द्वैतहीनम॥७॥

नमस्ते नमस्ते विभो विश्वमूर्ते नमस्ते नमस्ते चिदानन्दमूर्ते।
नमस्ते नमस्ते तपोयोगगम्य नमस्ते नमस्ते श्रुतिज्ञानगम्॥८॥

प्रभो शूलपाणे विभो विश्वनाथ महादेव शंभो महेश त्रिनेत्।
शिवाकान्त शान्त स्मरारे पुरारे त्वदन्यो वरेण्यो न मान्यो न गण्यः॥९॥

शंभो महेश करुणामय शूलपाणे गौरीपते पशुपते पशुपाशनाशिन्।
काशीपते करुणया जगदेतदेक- स्त्वंहंसि पासि विदधासि महेश्वरोऽसि॥१०॥

त्वत्तो जगद्भवति देव भव स्मरारे त्वय्येव तिष्ठति जगन्मृड विश्वनाथ।
त्वय्येव गच्छति लयं जगदेतदीश लिङ्गात्मके हर चराचरविश्वरूपिन॥११॥


यह आदिगुरू श्री शंकराचार्य द्वारा रचित वेद वर्णित शिव की स्तुति हैं।

शिव स्तुति

Shiva Stuti Ramcharit Manas

शिव स्तुति (राम चरितमानस)


नमामिशमीशान निर्वाण रूपम्।
विभुं व्यापकम् ब्रह्म वेदस्वरूपम्।॥१॥

निजं निर्गुणम् निर्किल्पं निरीहम्।
चिदाकाशमाकाशवासं भजेहम्॥२॥

निराकारमोंकारमूलम् तुरीयम्।
गिरा ज्ञान गोतीतमीशम् गिरीशम्॥३॥

करालं महाकाल कालं कृपालम्।
गुणागार संसारपारम् नतोहम्॥४॥

तुषाराद्रि संकाश गौरम् गंभीरम्।
मनोभूत कोटि प्रभा श्री शरीरम्॥५॥

आध्यात्मिक आस्था का महापर्व

Aadyatmik Astha ka mahaparva, Adhyaatmik Aastha ka mahaparva
आध्यात्मिक आस्था का महापर्व
हिन्दु धर्म में महाशिवरात्रि को हर्ष और उल्हास का महा पर्व माना जाता हैं।
शिव का व्यक्तित्व हर साधारण व्यक्ति की भावनाओं का प्रतीक है। सदियों से भारत में महाशिवरात्रि उत्सव को पूर्ण आस्था और आध्यात्मिकता के साथ सृष्टि के रचनाकर देव महादेव को आभर प्रकट करते हुए उनकी विशेष कृपा प्राप्त करने का विधान हैं।  दार्शनिक चिंताधारा से देखे तो मानव जीवन के कल्याण लिये एवं मानवता को जोड़ ने हेतु।

हजारो वर्षो से भारतीय जीवन शैलि स्वाभाविक-अस्वाभाविक रूप से प्रकृति से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष संबंध रखती हैं। भारतीय संस्कृति में शिव को सर्वव्यापी पूर्ण ब्रह्म के रूप में समावेष किया गया हैं।

भारतीय संस्कृति मे शिव जी को पिता और उनकी पत्नि पार्वती जी को मां मान कर उनकी आराधना परिवार, समाज एवं विश्व के कल्याण हेतु की जाती हैं। प्रकृति की भेट बेल पत्र द्वारा शिवलिंग पर अभिषेक कर शिव के समीप अपने कार्य या कामना पूर्ति हेतु प्राथना की जाति हैं। जिस्से व्यक्ति अपने कल्याण कर अपनी हिंसक प्रवृति, क्रोध, अहंकार आदि बूरे कर्मो पर अंकुश लगाने में समर्थ हो सकें।

हिंदू संस्कृति में शिव को प्रसन्न करने हेतु शिवरात्रि पर्व पर शिवलिंग की विशेष पूजा-अर्चना की परम्परा हैं। इसि लिये शिवरात्रि पर देश-विदेश के सभी शिव मंदिरों में विभिन्न प्रकार से धार्मिक एवं आध्यात्मिक भावना के साथ पूजा, अर्चना, व्रत एव उपासना की जाती हैं। क्योकि शिव स्वयं विष पान करके सृष्टि को अमृत पान कराते हैं। इसी प्रकार शिवरात्रि का महापर्व संसार से बूराईयों को मिटाकर विश्व को सुख, स्मृद्धि, प्रेम एवं शांति फेलाने का हैं।

मंगलवार, फ़रवरी 09, 2010

शिवरात्रि पूजन विधान

Shiv Ratri Poojan Vidhan

शिवरात्रि पूजन विधान

महाशिवरात्रि के दिन शिवजी का पूजन अर्चन करने से उनकी कृपा सरलता से प्राप्त होति हैं, इस लिये शिवभक्त, शिवालय/शिव मंदिरों में जाकर शिवलिंग पर दूध, गंगाजल, बेल-पत्र, पुष्प आदि से अभिषेक कर, शिवजी का पूजन कर उपवास कर रात्रि जागरण कर भजन किर्तन करते हैं।

शास्त्रो मे वर्णन मिलता हैं की शिवरात्रि के दिन शिवजी की माता पर्वती से शादी हुई थी इसलिए रात्र के समय शिवजी की बारात निकाली जाती हैं।

शिवरात्रि का पर्व सृष्टि का सृजन कर्ता स्वयं परमात्मा के सृष्टि पर अवतरित होने की स्मृति दिलाता है। यहां ’रात्रि’ शब्द अज्ञान (अन्धकार) से होने वाले नैतिक कर्मो के पतन का द्योतक है। केवल परमात्मा ही ज्ञान के सागर हैं जो मनुष्य मात्र को सत्य ज्ञान द्वारा अन्धकार से प्रकाश की ओर अथवा असत्य से सत्य की ओर ले जाते हैं।

शिवरात्रि का व्रत सभी वर्ग एवं उम्र के लोग कर सकते हैं। इस व्रत के विधान में सुबह स्नान इत्यादि से निवृत्त होकर उपवास रखा जाता हैं।

शिवरात्रि के दिन शिव मंदिर/शिवालय में जाकर शिव लिंग पर अपने कार्य उद्देश्य की पूर्ति के अनुरुप दूध, दही, गंगाजल, घी, मधु (मध,महु), चीनी (मिश्रि) बेल-पत्र, पुष्प आदि का शिव लिंग पर अभिषेक कर शिवलिंग पूजन का विधान हैं।

शिवजी की आरती (शिव आरती -१)

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शिवजी की आरती (शिव आरती -१)

जय शिव ओंकारा, ॐ जय शिव ओंकारा।
ब्रह्मा, विष्णु, सदाशिव, अर्द्धांगी धारा॥
ॐ जय शिव ओंकारा

एकानन चतुरानन पंचानन राजे।
हंसासन गरूड़ासन वृषवाहन साजे॥
ॐ जय शिव ओंकारा

दो भुज चार चतुर्भुज दसभुज अति सोहे।
त्रिगुण रूप निरखते त्रिभुवन जन मोहे॥
ॐ जय शिव ओंकारा

अक्षमाला वनमाला मुण्डमाला धारी।
त्रिपुरारी कंसारी कर माला धारी॥
ॐ जय शिव ओंकारा

श्वेतांबर पीतांबर बाघंबर अंगे।
सनकादिक गरुणादिक भूतादिक संगे॥
ॐ जय शिव ओंकारा

कर के मध्य कमंडलु चक्र त्रिशूलधारी।
सुखकारी दुखहारी जगपालन कारी॥
ॐ जय शिव ओंकारा

ब्रह्मा विष्णु सदाशिव जानत अविवेका।
प्रणवाक्षर में शोभित ये तीनों एका॥
ॐ जय शिव ओंकारा

लक्ष्मी व सावित्री पार्वती संगा।
पार्वती अर्द्धांगी, शिवलहरी गंगा॥
ॐ जय शिव ओंकारा

पर्वत सोहैं पार्वती, शंकर कैलासा।
भांग धतूर का भोजन, भस्मी में वासा॥
ॐ जय शिव ओंकारा

जटा में गंग बहत है, गल मुण्डन माला।
शेष नाग लिपटावत, ओढ़त मृगछाला॥
ॐ जय शिव ओंकारा

काशी में विराजे विश्वनाथ, नंदी ब्रह्मचारी।
नित उठ दर्शन पावत, महिमा अति भारी॥
ॐ जय शिव ओंकारा

त्रिगुणस्वामी जी की आरति जो कोइ नर गावे।
कहत शिवानंद स्वामी सुख संपति पावे॥
ॐ जय शिव ओंकारा